रविवार, 7 अगस्त 2016

झूठा


सुनो! फिर कब आओगे?
कभी नहीं।
क्यों?
मैं नहीं चाहता तुमसे मिलना।
क्यों?
हर बात बताई नहीं जाती।
कभी नहीं? उसने जैसे सुना ही नहीं।
नहीं।
क्यों? तुम्हें बताना होगा। उसने ज़िद की।
डरता हूँ, कहीं तुमसे प्यार न हो जाए।
इसमें डरने की क्या बात है?
डरता हूँ कहीं तुम्हें भी न हो जाए।
हाँ तो इसमें भी डरने की क्या बात है?
लड़के ने आश्चर्य से उसकी ओर देखा। यह इतना आसान नहीं है यार!
मुझे मालूम है।
तुम्हें डर नहीं लगता।
किस बात का?
लोगों से?
इसमें डरने की क्या बात है? गलत क्या है इसमें?
सोच लो। कहीं पीछे तो नहीं हट जाओगी।
सोच लिया। लेकिन मैं गरीब हूँ। कुछ नहीं है मेरे पास साथ लाने के लिए।
अरे! तुम तो मुझे शर्मिन्दा कर रही हो। तुम ही तो मेरी दौलत हो। मुझे बस तुम्हारा प्यार ही तो चाहिए।
लेकिन लोगों की बातें… मुझे मालूम है, लोगों को बहु कम, उसके साथ आयी हुई बेज़ान चीजें ज्यादा पसंद आती हैं। उनकी भी सुननी पड़ेंगी, जानते हो न।
तुम यह सब सोचना छोड़ो, मैं सब संभाल लूंगा।
दोनों ने जाने से पहले एक-दूसरे को गले लगाया और मुस्करा कर एक-दूसरे से विदा लिया।
समय को पंख लग गए थे। उनका प्रेम भी निकल चला था उन पंखों पर सवार होकर।
यह अलग बात है कि चाहे जहाँ भी ले जाएं ये पंख उड़ते हुए, आसमान के साथ – साथ जमीन भी चलती रहती है सदा। यह ज़मीन कभी समतल होती है तो कभी उबड़-खाबड़, कभी मखमली होती है, तो कभी कांटों भरी। कब, कौन सी धरती पर उतर कर ठहरना है यह आसमान में विचरण करते पक्षी ही तय करते हैं।
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चौदह महीने बाद।
गाजे-बाजे के साथ बारात निकल रही थी। दुल्हे के कीमती शूट-बूट देखनेवालों की आँखें चौड़ी कर रहे थे। उसने इधर-उधर देखा। लोगों के चेहरे पर कौतूहल के भाव थे। लड़के की आँखों में गर्वीली चमक थी और होठों के आसपास के क्षेत्र हल्की मुस्कान से भींगे थे। खुशियाँ बेइंतहा थी।
उधर मोहल्ले के दूसरे छोर पर एक लड़की वादों की पोटली खोले बैठी थी। सारे वादे संक्रमित हो सड़ रहे थे। तेज बदबू फैल गई थी। उसका मन कर रहा था कि दुपट्टा अपनी नाक पर रख ले, लेकिन उसने ऐसा किया नहीं। उसने ऐसी दुर्गंध पहले कभी नहीं महसूस किया था। उसे समझ नहीं आ रहा था कि इस बुरी गंध को कैसे ख़त्म किया जाए। कीचड़ होता तो धो भी देती, राख होती तो बहा देती सामने नदी के पानी में, दर्द भी होता तो घोल कर पी जाती आँसूओं में। उसे याद आया कि उसे दर्द नहीं हो रहा था। आँसू भी नहीं आ रहे थे। उसे कुछ अच्छा नहीं लगा। वह उठी और जाकर खड़ी हो गई बारात के सामने। दुल्हे ने नज़रें उठाने की कोशिश की लेकिन पलकों पर कुछ रखा हुआ-सा लग रहा था,  उसका भार भी कुछ ज्यादा था, उठा नहीं सका।
लड़की ने इशारे से बैंड-बाजे को बंद कराया। लड़के से कहा – “तुम्हारे लिए एक तोहफा लायी हूँ। “
असमंजस की स्थिति में लड़का सामने आया। कुछ समझ में आता उससे पहले ही चटाक की आवाज करता लड़की का हाथ चल चुका था।
लड़की ने महसूस किया कि लोगों ने अपने नाक-भौं सिकोड़ रखे थे। वह संतुष्ट हो गई। बुरी गंध को वह ठीक जगह ले आयी थी। अब धीरे-धीरे दर्द भी जीवित होने लगा था अंदर कहीं। उसे लगा अब वह बेहतर महसूस कर रही थी।
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1 टिप्पणी:

  1. सार्थक लघु कथा जिसका अंत बहुत भाववाहक है और लगता है कि अंत में उस लड़की ने जो किया बिलकुल उचित किया.

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