सोमवार, 22 अगस्त 2016

दूर तक पसरी हरी-हरी ज़मीन, पहाड़ों के बीच सुस्ताती हुई एकाग्र धूप,  हौले-हौले से झूमती घास में लिपटी हुई घनघोर शांति और बीच-बीच में घाटियों के परिवेश में शामिल हो गए सफ़ेद बगूलों का दल, जैसे आँखों के सामने की हरी सतह पर whitener लगा दिया हो किसी ने। यहाँ पर बैठना और बातें करना स्वयं से, ऑफिस से लिए गए अवकाश के जैसा होता है। कभी – कभी हमें स्वयं से भी अवकाश लेने की जरूरत होती है जब हम भूल जाएँ ख़ुद को। जब हम भूल जाएँ कि आज फिर निकालना है पैसे एटीएम से, कि सब्जियाँ आज महँगी हैं कल से, कि Donald Trump आगे निकल रहे हैं कि…., कि ‘रूस्तम’ का कलेक्शन ज्यादा है कि ‘मोहनजोदाड़ो’ का और कि यहाँ पर कितनी देर बैठना है वापस जाने से पहले!
पता नहीं कितनी बातें हम याद किए घूमते रहते हैं। बढ़ी हुई यादों का बोझ नीचे रखकर देख लेना अच्छा होता है कभी दूसरी ओर जब हम देखते रहना चाहते हैं बारिश को फिसलते हुए आँखों के सामने से। बस यह याद रखना होता है कि उन बूंदों को गिनते जाना है यह जानते हुए भी कि ऐसा करना संभव नहीं। और सुनते रहना है छतरी पर बनने वाली उस आवाज का शोर जो बूंदों के उसपर टपकने से बन रहा है। क्योंकि कभी – कभी वह करना भी अच्छा लगता है जिसका कोई लाभ नहीं, कभी – कभी वह सुनना भी अच्छा लगता है जिसका कोई अर्थ नहीं…

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