सोमवार, 15 अगस्त 2016

हम जब आज़ादी की बातें करते हैं तो अनायास हमें अंग्रेजी दासता याद दिला दी जाती है और उससे बचकर निकल आने का जश्न हम मना लेते हैं हमारे स्वतंत्रता सेनानियों, क्रांतिकारियों, समाजसेवियों की तस्वीरें सामने रखकर। बगैर यह सोचे कि क्या आज़ादी हमें उसी रूप में मिली जिसकी हमें ख्वाहिश और ज़रूरत थी।
आख़िर हमें आज़ादी चाहिए किससे थी। उसके मायने क्या थे। शासन तो पहले भी था, अब भी है और उम्मीद है आगे भी रहेगा। और शासन वहीं होता है जहाँ शासित हों। फिर आज़ादी का क्या मतलब!
क्या सरकारों ने कभी जानने की कोशिश की है कि जनता क्या चाहती है, बात चाहे अंग्रेजों की करें या चुनी हुई सरकारों की। लोकतंत्र की जिस नींव पर देश खड़ा है क्या उसके लिए कोई जनमत-संग्रह भी हुआ है? क्या लोकतंत्र पूरी तरह से लोकतंत्र हो पाया है आज भी या सिर्फ शासन करने की एक और कुत्सित प्रणाली बनकर रह गया है। पर-शासन से (कथित)स्व-शासन तक पहुँच पाना ही अगर आज़ादी है तो फिर ठीक है। हम कुछ नहीं कहते। लेकिन उनका क्या जिन्हें आज़ादी क्या है-यह समझने की फुर्सत भी नहीं मिल पायी है। जिनकी सुबहें कच्ची छतों से टपकती बरसातें चुरा ले जाती हैं और शामें बज़बज़ाती नलियों- गलियों और गालियों में छिप जाती हैं।
शासकों की आज़ादी तो बढ़कर युवा हो चली है पर शासितों की आज़ादी अभी भी अछूत बनकर चौखट के बाहर ही खड़ी है। कुछ सवाल ख़ुद से भी होने चाहिए। मसलन क्या हम अपनी आजा़दी को पहचान पाए हैं? क्या हम अपनी आज़ादी को संभालने लायक भी हो पाए हैं? कहीं हम अपरिपक्व आज़ादी लेकर ही तो नहीं इतरा रहे हैं? क्या आज भी हम जोड़ पाए हैं अपने आपको अपना कहने वाले इस देश से?
मुझे तो नहीं लगता ऐसा।
जिनको लगता हो, उनको बधाई! मुझे तो मेरी आस्था आज भी जुड़ी दिखती है-अपने आप से, अपने धर्म से, अपने स्वार्थ से, अपने विकास से, अपने अहं से। देश तो अभी भी इंतज़ार कर रहा है, इस अपनी-सी आज़ादी से आगे निकलकर उसकी ओर देखे जाने का। वैसे इतने धर्मों-पर्वों के बीच एक और पर्व आ गया है – आज़ादी का, तो मना लेते हैं। चाहे मनाने भर के लिए ही सही!

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