शनिवार, 27 अगस्त 2016

धनेसरा~एक गांव की कहानी

रौल नम्बर एक??
- उपस्थित श्रीमान!
रौल नम्बर दो??
- प्रजेंट सर!
तीन??
- यस सर!



सत्ताईस??
- प्रजेंट माटसा!
रौल नम्बर सत्ताईस!!?
- प्रजेंट माटसा!
मास्टर साहब ने पहली बार रजिस्टर से इतर नज़र घूमाया। उनकी नज़रों ने एक बार पूरी क्लास का उपरी सर्वेक्षण किया और अंत में बीच वाली कतार की तीसरी बेंच पर जा कर ठहर गई। सिकुड़ा – सिमटा-सा एक लड़का बैठने की अवस्था में पहुँचते-पहुँचते वापस सीधा हो रहा था।
“बड़ी लम्बी छुट्टी लगाया है रे धनेसरा?”
मास्टर साहब ने चश्मा उतारकर टेबल पर रखने से पहले उसे विशेष अंदाज में दो बार आगे और दो बार पीछे झूलाया। मास्टर साहब के विशिष्ट अंदाज़ से सब समझ चुके थे कि धनेसरा लम्बा नपने वाला है आज! अब पूरा क्लास सावधान से विश्राम की मुद्रा में वापस आ गया था। कुछ तुफ़ानी होने वाला है!
मास्टर साहब सधे कदमों से चलते हुए पहुँच चुके थे उसके पास। धनेसरा ने कभी यमराज नहीं देखा था बस दादी की कहानियों में उसका ज़िक्र सुना था। उसे लगता था कि अगर यमराज होंगे तो होंगे बिल्कुल मास्टर साहब के जैसा ही। न उन्नीस, न ही इक्कीस!
मास्टर साहब ने ग़ौर से मुआयना किया – “बीमार तो कहीं से तू दिखता नहीं,… तो का कर रहा था फिर एतना दिन से…”
धनेसरा को समझ में नहीं आया कि वह क्या जबाव दे। जबाव अगर मास्टर साहब के गुस्से में घुसकर उसे पिघलाने के बज़ाय और कठोर कर गया तो फिर उसकी ख़ैर नहीं। उसने सूखते होठों को जीभ फिराकर फिर से गीला किया।
“हल जोत रहा था का रे?”
इस बार मास्टर साहब की आवाज चढ़ी हुई लग रही थी। उनके गुस्से की भठ्ठी धनेसरा की चुप्पी से और धधक उठी थी।
उसे लगा मास्टर साहब तो सब पहले से ही जानते हैं। उसे याद आया कि सुबह ही उसने हीरा-मोती को पईन वाले खेत में छोड़ कर आया था। आज आखिरी जुताई थी और कल रोपाई के साथ इस बार की चिंता भी कम हो जाएगी। अच्छी बारिश के कारण इस बार लगभग सभी खेतों में रोपाई हो गई थी। फसल अच्छी होने के आसार थे। सोचते हुए धनेसरा खूश हो गया।

“अब बोलेगा कुछ कि उतारे तोहर आरती हम?”

मास्टर साहब की उबलती आवाज ने धनेसरा को धान के खेतों से उठाकर वापस क्लासरूम पहुँचा दिया।
उसे हल में जुते हुए बैल याद आ गए। उसे लगा कि बैलों की जगह वह जुता हुआ है और कभी भी उसकी पीठ पर हलवाहे का डंडा पड़ सकता है। उसे अपनी पीठ मुलायम होती महसूस होने लगी। उसका दिल धाँय-धाँय धड़क रहा था। आज तो पिटाई पक्की है। यमराज के चंगुल से भी मुक्त हो सका है भला कोई! उसे दादी की बातें सच लग रही थीं।

वैसे तो मास्टर साहब इतिहास के टीचर थे लेकिन भूतकाल के बेतरतीब बिखरे तारीखों को याद रखने की ज़हमत वह नहीं उठाते थे। वैसे भी attendance और दिन-दुनिया की ताज़ा ख़बरों को update करने के बाद अक्सर पीरियड छोटी ही पड़ जाया करती। जब कभी उन्हें इतिहास का एक टीचर होने की याद आती तो खड़ा कर देते किसी को किताब के साथ। जब तक कोई सन् 1857 की क्रांति के कारणों पर प्रकाश डाल रहा होता उतनी देर तक मास्टर साहब सुबह की छूटी हुई नींद पूरी कर लेते। कभी – कभी गहरी नींद का उनका सफ़र घंटी की टनटनाहट को भी अनसुना कर जाता। तब कोई बहादुर बच्चा जान पर खेलकर उनको जगा देता। वैसे क्लास को इसमें कोई परेशानी भी नहीं थी, बल्कि उनकी किताबों को और एक पीरियड का एक्सट्रा आराम मिल जाता था। इतिहास की किताबें और कॉपियाँ नयी की नयी रह जातीं, सो अलग।
पर हाँ, मास्टर साहब को अनुशासन की लाइन पार करना कतई पसंद नहीं था। धनेसरा को याद था पिछली दफा जब रविन्दर ने इतिहास की तारीखों के साथ छेड़छाड़ करते मास्टर साहब की याद्दाश्त को दुरुस्त करने की कोशिश की थी। ऐसी सेकाई हुए डंडे से कि बेचारा रविन्दर अभी तक अपनी हिम्मत दुरूस्त न कर पाया।
“आज तो गया धनेसरा…”
“हाँ, साले की आज अच्छी मरम्मत होगी…”
“जरूरी भी है बहुत तेज बनता है…” खुसर-फुसर करते अन्य बच्चे बोर हुए जाते थे। मास्टर साहब की गै़रजरूरी ज़िरह लंबी जो खींच रही थी।
जैसे फिल्म शुरू होने के पहले दर्शकों को ‘धुम्रपान-निषेध’ के विज्ञापन में कोई रूचि नहीं होती वैसे ही क्लास के बाकी बच्चों को मास्टर साहब-धनेसरा संवाद में कोई रूचि नहीं थी। उन्हें लग रहा था कि बेकार में मास्टर साहब फिल्म को लंबा खींच रहे हैं। उन्हें तो इंतज़ार था कि कब मास्टर साहब के गुस्से का पारा उबले और डंडे की चोट पर धनेसरा शुरू कर दे नाचना….।
मास्टर साहब की पिटाई से बचाव के जो दो-एक (अघोषित) कारण सार्वजनिक थे, उनमें खेती-किसानी में परिवार की सहायता करने वाले कारण का दूर – दूर तक कोई ज़िक्र नहीं था। वैसे भी खेती-बाड़ी पढ़ लिख चुकने के बाद ही किया जाए तो शोभा देता है-ऐसा मास्टर साहब हमेशा कहते थे।
उसने कनखियों से मास्टर साहब की ओर देखा। दायें हाथ में लिए हुए डंडे को धीरे – धीरे बायें हाथ की हथेली पर बजा रहे थे। उसे लगा अब उसके पीठ और पिछवाड़े पर बजने का समय आ चुका है। यह बात पूरे स्कूल के बच्चों को मालूम थी कि पानी उबलने की सीमा सौ डिग्री सेल्सियस से आगे बढ़ सकती है पर मास्टर साहब के गुस्से का पारा उबल कर बिखरने में पाँच मिनट से ज्यादा लगने की कोई गुंजाइश नहीं होती।
उसने आशापूर्ण बेचैनी में दरवाजे की ओर देखा। आशा की हल्की-सी किरण भी नहीं थी।
उसने आख़िरी बार जोर से थूक गटका और बोलने के लिए शब्दों को गूंथ ही रहा था जबान से कि बाहर एक शोर सुनाई दिया। कुछ बच्चे दौड़ते हुए दरवाजे पर आकर ठहर गए।
“माटसा! आपकी गैय्या…”
मास्टर साहब जैसे सोते से जागे।
“क्या हुआ रे बबुआ! गैय्या को?”
“माटसा! खूंटे के साथ भाग निकली है…”

न चाहते हुए भी सबकी हंसी छूट गई। मास्टर साहब के गुस्से का बैलून फुस्स हो गया था। उनकी गैय्या अगर एक बार खुल गई तो फिर सड़कों के कितने चक्कर लगवाएगी यह स्कूल में सभी को मालूम था। मास्टर साहब के लिए यह किसी आपदा से कम नहीं होता था। इससे पहले कि वह बाहर की ओर दौड़ लगाते (जो कि संभव नहीं था उनके लिए) धनेसरा ने पहली बार बोला – “माटसा! मैं जाता हूँ आप टेंशन मत लीजिए। वैसे भी दूर चली गई होगी आपसे पकड़ में नहीं आएगी।“
“हाँ बेटा! जल्दी जाओ।“
“पर माटसा! हाज़िरी वाली बात… मैं दरअसल…”
“अरे बेटा! कोई बात नहीं, बाद में बता देना…”
धनेसरा ने उड़ती नज़र क्लास के बाकी बच्चों पर डाली और दौड़ लगा दिया।

बरामदे से गुजरते हुए उसने एक दूसरी क्लास में झाँक लिया। सपना बाहर से जाकर अपनी सीट पर अभी बैठ ही रही थी। उसने दूर से ही आवाज दी – “ऐ सपना! आज फिर तेरी गैय्या भाग गई है, जा रहा हूँ पकड़ लाने।“
सपना मास्टर साहब की बेटी थी। वह धीरे-धीरे हँस रही थी। धनेसरा भी हँसते हुए दूर भाग गया। उन दोनों के अलावा कोई नहीं जानता था कि गैय्या हमेशा ऐन मौके पर ही क्यों भाग जाती है!



चित्र : सांकेतिक।



सोमवार, 22 अगस्त 2016

दूर तक पसरी हरी-हरी ज़मीन, पहाड़ों के बीच सुस्ताती हुई एकाग्र धूप,  हौले-हौले से झूमती घास में लिपटी हुई घनघोर शांति और बीच-बीच में घाटियों के परिवेश में शामिल हो गए सफ़ेद बगूलों का दल, जैसे आँखों के सामने की हरी सतह पर whitener लगा दिया हो किसी ने। यहाँ पर बैठना और बातें करना स्वयं से, ऑफिस से लिए गए अवकाश के जैसा होता है। कभी – कभी हमें स्वयं से भी अवकाश लेने की जरूरत होती है जब हम भूल जाएँ ख़ुद को। जब हम भूल जाएँ कि आज फिर निकालना है पैसे एटीएम से, कि सब्जियाँ आज महँगी हैं कल से, कि Donald Trump आगे निकल रहे हैं कि…., कि ‘रूस्तम’ का कलेक्शन ज्यादा है कि ‘मोहनजोदाड़ो’ का और कि यहाँ पर कितनी देर बैठना है वापस जाने से पहले!
पता नहीं कितनी बातें हम याद किए घूमते रहते हैं। बढ़ी हुई यादों का बोझ नीचे रखकर देख लेना अच्छा होता है कभी दूसरी ओर जब हम देखते रहना चाहते हैं बारिश को फिसलते हुए आँखों के सामने से। बस यह याद रखना होता है कि उन बूंदों को गिनते जाना है यह जानते हुए भी कि ऐसा करना संभव नहीं। और सुनते रहना है छतरी पर बनने वाली उस आवाज का शोर जो बूंदों के उसपर टपकने से बन रहा है। क्योंकि कभी – कभी वह करना भी अच्छा लगता है जिसका कोई लाभ नहीं, कभी – कभी वह सुनना भी अच्छा लगता है जिसका कोई अर्थ नहीं…

गुरुवार, 18 अगस्त 2016

राखी के साइड इफेक्ट

उन दिनों रक्षाबंधन का त्योहार हमारे जैसे कुछ लड़कों के लिए किसी आतंक से कम नहीं हुआ करता था। राखी का नाम सुनते ही उनके चेहरे का रंग फीका पड़ जाता। राखी लेकर बढ़ती लड़कियाँ जो साल के बाकी दिन ऐश्वर्या और दीपिका दिखतीं थीं आज गेटअप बदलकर पुराने फिल्मों की टुनटुन बनी जाती थीं। लड़कियों के आगे कलाइयाँ बढ़ाते उनकी निरीह आँखें जिबह होने जा रहे बकरों से उधार ली हुईं लगती थीं। राखी उनके कोमल अरमानों की बल्ब का फ्युज़ उड़ा जातीं और कुंवारे जीवन की शाम तेजी से ढ़लती हुई अंधेरी रात बन कर रह जाती। जाने कितने लड़कों का अरमान राखी के धागे से लटककर दम तोड़ देते थे।

 फ़र्ज कीजिए कि आप ने मन-ही-मन किसी को मन में बसा रखा हो। पूरे शिद्दत से आप इंतजार कर रहे हो उस दिन का जब आप अपनी हिम्मत बटोरकर उसके सामने अपने प्यार का इज़हार कर सके। पर बीच में ही रक्षाबंधन नामक वह दिन आ जाए और सामनेवाली की राखी आपकी कलाइयों पर ‘चींटियाँ कलाईयाँ’ करते हुए बंध जाए…. एक ऐसे ही बेचारे दोस्त की करूणापूर्ण कहानी मुझे याद आ रही है जब उसकी उमंगों की डोली राखी के धागे से लटककर उलट गयी थी…

... अपनी उमर में कॉलेज के वैसे लड़के किसी स्वतंत्रता सेनानी से कम नहीं होते जो किसी एक लड़की पर कॉन्सेन्ट्रेट करके बाक़ी लड़कियों की तरफ देखना भी गुनाह समझे।फिर कॉलेज जाने का इतना बड़ा ऑफर मिस करने का साहस कोई बिरले ही करते हैं। आख़िर सिर्फ एक लड़की के लिए शहीद होने के लिए जिगरा भी तो चाहिए। प्रियांश भी उसी नस्ल का लड़का था। न जाने कौन-से कीड़े की डंक का असर था कि अमिता नाम के अक्षरों के अलावा कुछ पहचान ही नहीं पाता था। पता नहीं उसे क्या – क्या अच्छा लगता। अमिता की ऑखें… अमिता की जुल्फें… अमिता की चाल….अमिता का चेहरा… अमिता की अदा… वह जब तक अमिता की ज्यूग्राफी खत्म कर रहा होता, उतनी देर में लड़कियों की पूरी दुनिया हमारे सामने से गुजर जाती। वैसे भी हमें तो हमारे पास से गुजरती हर लड़की अच्छी ही लगती, बिना भेदभाव के सब पर निगाह चली जाती थी। कॉलेज की भारी-भरकम फ़ीस वसूल करना है, यह बात भी अच्छी तरह से याद रहती।

ख़ैर, प्यार के शहीदों की दुनिया ही अलग होती है। अमिता नाम की माला जपते प्रियांश दूसरी लड़कियों की तरफ़ देखना भी गंवारा नहीं करता। लड़कियाँ भी तिरछी नजरों से उसी की तरफ़ देखते हुए निकलती। शायद उसकी तरफ़ से ख़तरा नहीं था, यह भाँप गयी थीं। क्योंकि, सुंदर तो हम भी कुछ कम न थे, अपने तरीके से ऋतिक रोशन बने फिरते थे लेकिन साले की बात ही कुछ और थी। वह कॉलेज की पहली पीरियड मिस कर सकता था लेकिन अमिता का आना – जाना कदापि नहीं। अमिता भी निकलते हुए एक – आधी नजर देख लेती, प्रियांश का दिन बन जाता। चार महीने में बात सिर्फ इतनी ही बढ़ी थी उनकी। नाम भी हमारा ही दिया हुआ था – ‘अमिता’। 

इस बीच हमारी दोस्ती सात-आठ से हो चुकी थी और उनमें से आधी के साथ सिनेमा, घूमना-फिरना भी हो चुका था। यह अलग बात है कि इस चक्कर में महीने के बीस दिन हम कंगाल से बने फिरते थे। इस दरम्यान हमारी सारी रहीसी Pause Mode पर शिफ्ट हो जाती। महँगे सिगरेट की जगह पनामा और जरूरत होने पर बीड़ी से भी नाता जोड़ लेते,  Movie देखने की आदत वही होती (First Day – First show वाली), बस बैठने की जगह बदल जाती- BC /DC से रियर स्टॉल। यह सब Adjustment सिर्फ लड़कों के ग्रुप में होती, लड़कियों के साथ होने से फिर से ब्रांडेड रहीसी वापस चढ़ जाती थी जिसकी फंडिग दोस्तों से लिए गए उधार से होती थी। दोस्तों की यह क्रेडिट-सेवा सिर्फ ऐसे मौकों के लिए ही उपलब्ध थीं।

ऐसा नहीं था कि हमने प्रियांश को अपनी ग्रुप में लाने के लिए कोई कम मेहनत की। पर पता नहीं कौन सा भेजा लेकर पैदा हुआ था कि हमारी सारी खूबियों में कोई न कोई कमी निकाल देता। सिगरेट को नशा कहकर टाल देता, बीयर को कड़वी समझकर और सिनेमा को टाइमपास बताकर। अब किस्मत कौन बदल सकता है! जो लिखा है वही भोगता न।
देखते-देखते वह दिन भी आ गया जिसका इंतज़ार हर भाई-बहन को तो होता है पर किसी लड़के को नहीं। इस दिन बिना कंफर्म रिश्ते वाले जोड़े छुट्टी लेकर अलग रहना ही उचित समझते हैं। लड़के तो विशेष सतर्कता बरतते हैं इस दिन। पता नहीं काली बिल्ली के जैसी कौन-सी लड़की मिल जाए राखी लिए और एक रिश्ता फ्रेंडशिप से प्रेम- शिप बनने के पहले ही दूसरी राह मुड़ जाए! खैर, हमने तो पहले ही आपस में एक-दूसरे की बहन होने का फ़र्ज निभा लिया। अब सूनी कलाई लेकर बाहर निकलने में रिस्क कितना होता है यह तो आपलोग जानते ही हैं। पर इत्ती-सी बात प्रियांश को समझ नहीं आयी। अमिता को देखने की ललक में रिस्क – फैक्टर ही भूल गया। रक्षाबंधन के दिन सूने हाथ दूर से ही चमकने लगते हैं और न देखने वाले भी एक बार देख लेते हैं जिज्ञासावश। छूट्टी का दिन था। लड़कियाँ झुंड के झुंड घूम रहीं थीं अपने-अपने हॉस्टल से निकलकर। उनमें से कुछ आकर खड़ी हो गईं प्रियांश के सर पर। आनेवाले ख़तरे से अनजान वह टकटकी लगाए हुए था अमिता के हॉस्टल की तरफ से आनेवाले रास्ते पर। उनमें से एक ने उसका ध्यान खींचने के लिए कहा – “भैया….!  लगता है आपके लिए राखी नहीं आयी है।“ प्रियांश इस अचानक हुए हमले के लिए कतई तैयार नहीं था। सामने लड़कियों का ग्रुप खड़ा था। सबके हाथ रंग – बिरंगी राखियों से लैस थे। उसे लग रहा था कि वह एक मेमना है जो अपने झुंड से बिछड़कर शेरनियों के इलाके में आ गया है। वह क्या करे – सोच ही रहा था कि एक – एक करते हुए छ: राखियाँ उसकी कलाइयों से बंध चुके थे। “आज के दिन कोई बिना राखी बंधवाए रहता है क्या?”-अमिता ने उसके हाथ पर आख़िरी राखी बांधते हुए कहा।

लुटा-पिटा प्रियांश उसके बाद हमारी मंडली का मानद् सदस्य बन चुका था। उसे अफ़सोस सिर्फ़ इस बात का था कि हमारी मंडली की पाठशाला अगर वह समय से ज्वाइन कर लेता तो जीवन की सबसे भयंकर दुर्घटना से बच जाता।



सोमवार, 15 अगस्त 2016

हम जब आज़ादी की बातें करते हैं तो अनायास हमें अंग्रेजी दासता याद दिला दी जाती है और उससे बचकर निकल आने का जश्न हम मना लेते हैं हमारे स्वतंत्रता सेनानियों, क्रांतिकारियों, समाजसेवियों की तस्वीरें सामने रखकर। बगैर यह सोचे कि क्या आज़ादी हमें उसी रूप में मिली जिसकी हमें ख्वाहिश और ज़रूरत थी।
आख़िर हमें आज़ादी चाहिए किससे थी। उसके मायने क्या थे। शासन तो पहले भी था, अब भी है और उम्मीद है आगे भी रहेगा। और शासन वहीं होता है जहाँ शासित हों। फिर आज़ादी का क्या मतलब!
क्या सरकारों ने कभी जानने की कोशिश की है कि जनता क्या चाहती है, बात चाहे अंग्रेजों की करें या चुनी हुई सरकारों की। लोकतंत्र की जिस नींव पर देश खड़ा है क्या उसके लिए कोई जनमत-संग्रह भी हुआ है? क्या लोकतंत्र पूरी तरह से लोकतंत्र हो पाया है आज भी या सिर्फ शासन करने की एक और कुत्सित प्रणाली बनकर रह गया है। पर-शासन से (कथित)स्व-शासन तक पहुँच पाना ही अगर आज़ादी है तो फिर ठीक है। हम कुछ नहीं कहते। लेकिन उनका क्या जिन्हें आज़ादी क्या है-यह समझने की फुर्सत भी नहीं मिल पायी है। जिनकी सुबहें कच्ची छतों से टपकती बरसातें चुरा ले जाती हैं और शामें बज़बज़ाती नलियों- गलियों और गालियों में छिप जाती हैं।
शासकों की आज़ादी तो बढ़कर युवा हो चली है पर शासितों की आज़ादी अभी भी अछूत बनकर चौखट के बाहर ही खड़ी है। कुछ सवाल ख़ुद से भी होने चाहिए। मसलन क्या हम अपनी आजा़दी को पहचान पाए हैं? क्या हम अपनी आज़ादी को संभालने लायक भी हो पाए हैं? कहीं हम अपरिपक्व आज़ादी लेकर ही तो नहीं इतरा रहे हैं? क्या आज भी हम जोड़ पाए हैं अपने आपको अपना कहने वाले इस देश से?
मुझे तो नहीं लगता ऐसा।
जिनको लगता हो, उनको बधाई! मुझे तो मेरी आस्था आज भी जुड़ी दिखती है-अपने आप से, अपने धर्म से, अपने स्वार्थ से, अपने विकास से, अपने अहं से। देश तो अभी भी इंतज़ार कर रहा है, इस अपनी-सी आज़ादी से आगे निकलकर उसकी ओर देखे जाने का। वैसे इतने धर्मों-पर्वों के बीच एक और पर्व आ गया है – आज़ादी का, तो मना लेते हैं। चाहे मनाने भर के लिए ही सही!

गुरुवार, 11 अगस्त 2016

शब्द-दर्पण-4

“ हमारे देखे हुए कुछ सपने ओस की बूंदों जैसे होते हैं
चढ़ती धूप के साथ-साथ अस्तित्व खोते जाते हैं..!”
आप किसी से बहुत प्यार करते हैं। इतना कि अगर उसमें और जिंदगी में से किसी एक को चुनना पड़े तो आप पल भर भी न लें और उसका हाथ थाम लें, जिंदगी की तरफ पीठ किए। और फिर एक दिन वह चला जाए आपको छोड़कर। बिना कुछ कहे, बिना कुछ सुने। कैसा लगेगा.. सोचिए जरा! दुनिया लूटी हुई लगेगी न! कमोबेश एक ही नियति होती है फिर – लूटना-पिटना, रोना-धोना… अंतत: तड़प कर रह जाना! ऑप्शन तो यही होते हैं, अगर आप उसकी याद में तड़पकर चले न जाएँ… किसी और दुनिया में!
             लेकिन, कितना रोइए कि आपको सुकून मिल जाए… कितना चींखिए कि बाहर का शोर ढ़क ले भीतर की शांत भिन्नाहट! कितना छीलिए अपने वज़ूद पर दीवार बनते जा रहे दिल को कि उसपर जमी यादों की हरी काई उतरने लगे!
नहीं दोस्त!
यह सही नहीं है। आप रोओगे उसकी याद में, वह और शिद्दत से याद आएगा- आप फिर रोओगे। आपकी चीख उसको पुकारेगी-वह और दूर होता जाएगा । तात्पर्य यह है कि आप उसे वापस नहीं ला सकते जब तक वह आना न चाहे। तो क्यों न ऐसा किया जाए कि कुछ देर ना रोएँ। कोई बात नहीं अगर हँस न भी पाएँ तो। किसी जख़्म का पहला इलाज़ उसे सुखाना नहीं होता, बल्कि उससे बहते ख़ून को रोकना होता है। तपती धूप में निकल गए मुसाफिर को भी मंजिल से पहले ठहरना पड़ता है कई बार। रास्ते की धूप तो अपरिवर्तित रहती है लेकिन मन तैयार हो जाता है फिर से, उस धूप को सहने के लिए। तो ठहर लीजिए जरा दुनिया की छांव में, उस राह से अलग आगे-आगे जा रहीं हों उसकी यादें जिसपर। वैसे भी, दुनिया में यदि सिर्फ़ एक ही वज़ह होती किसी के जीने के लिए तो फिर बाक़ी सारी चीजें नज़रों में आती ही नहीं। इन आँखों का काम वहीं समाप्त हो जाता जहाँ से वह ओझल हुआ था। धड़कनें उसी राह पर ठहर जातीं बिना पल गंवाए जब किसी ने बिना अलविदा कहे आगे की राह पकड़ ली थी। हमारे शब्द आवाज़ खो देते उस क्षण ही जब उसने अनसुना किया था हमारा पुकारा जाना। किसी का प्यार अमृत बन सकता है जीवन का, मगर अमृत न मिलने की कमी विष से पूरी तो नहीं ही की जा सकती।
        हम जीवन को उस एकमात्र रेलगाड़ी के जैसा नहीं समझ सकते जिस पर सवार न होने की सूरत में यात्री पीछे छूट जाते हैं। हम जीवन को उस विमान के जैसा भी नहीं समझ सकते जो या तो आकाश में उड़ेगा या फिर धरती पर निर्जीव खड़ा रहेगा। इतना निर्जीव कि उसे चार कदम आगे-पीछे करने के लिए भी सहारे की जरूरत पड़ती है।
जीवन तो मौसम है, बदलता जाएगा – धूप को छाँव में, किसी सूने को गाँव में। बस चलते रहिए जब तक रूकने को कहा न जाए!

रविवार, 7 अगस्त 2016

झूठा


सुनो! फिर कब आओगे?
कभी नहीं।
क्यों?
मैं नहीं चाहता तुमसे मिलना।
क्यों?
हर बात बताई नहीं जाती।
कभी नहीं? उसने जैसे सुना ही नहीं।
नहीं।
क्यों? तुम्हें बताना होगा। उसने ज़िद की।
डरता हूँ, कहीं तुमसे प्यार न हो जाए।
इसमें डरने की क्या बात है?
डरता हूँ कहीं तुम्हें भी न हो जाए।
हाँ तो इसमें भी डरने की क्या बात है?
लड़के ने आश्चर्य से उसकी ओर देखा। यह इतना आसान नहीं है यार!
मुझे मालूम है।
तुम्हें डर नहीं लगता।
किस बात का?
लोगों से?
इसमें डरने की क्या बात है? गलत क्या है इसमें?
सोच लो। कहीं पीछे तो नहीं हट जाओगी।
सोच लिया। लेकिन मैं गरीब हूँ। कुछ नहीं है मेरे पास साथ लाने के लिए।
अरे! तुम तो मुझे शर्मिन्दा कर रही हो। तुम ही तो मेरी दौलत हो। मुझे बस तुम्हारा प्यार ही तो चाहिए।
लेकिन लोगों की बातें… मुझे मालूम है, लोगों को बहु कम, उसके साथ आयी हुई बेज़ान चीजें ज्यादा पसंद आती हैं। उनकी भी सुननी पड़ेंगी, जानते हो न।
तुम यह सब सोचना छोड़ो, मैं सब संभाल लूंगा।
दोनों ने जाने से पहले एक-दूसरे को गले लगाया और मुस्करा कर एक-दूसरे से विदा लिया।
समय को पंख लग गए थे। उनका प्रेम भी निकल चला था उन पंखों पर सवार होकर।
यह अलग बात है कि चाहे जहाँ भी ले जाएं ये पंख उड़ते हुए, आसमान के साथ – साथ जमीन भी चलती रहती है सदा। यह ज़मीन कभी समतल होती है तो कभी उबड़-खाबड़, कभी मखमली होती है, तो कभी कांटों भरी। कब, कौन सी धरती पर उतर कर ठहरना है यह आसमान में विचरण करते पक्षी ही तय करते हैं।
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चौदह महीने बाद।
गाजे-बाजे के साथ बारात निकल रही थी। दुल्हे के कीमती शूट-बूट देखनेवालों की आँखें चौड़ी कर रहे थे। उसने इधर-उधर देखा। लोगों के चेहरे पर कौतूहल के भाव थे। लड़के की आँखों में गर्वीली चमक थी और होठों के आसपास के क्षेत्र हल्की मुस्कान से भींगे थे। खुशियाँ बेइंतहा थी।
उधर मोहल्ले के दूसरे छोर पर एक लड़की वादों की पोटली खोले बैठी थी। सारे वादे संक्रमित हो सड़ रहे थे। तेज बदबू फैल गई थी। उसका मन कर रहा था कि दुपट्टा अपनी नाक पर रख ले, लेकिन उसने ऐसा किया नहीं। उसने ऐसी दुर्गंध पहले कभी नहीं महसूस किया था। उसे समझ नहीं आ रहा था कि इस बुरी गंध को कैसे ख़त्म किया जाए। कीचड़ होता तो धो भी देती, राख होती तो बहा देती सामने नदी के पानी में, दर्द भी होता तो घोल कर पी जाती आँसूओं में। उसे याद आया कि उसे दर्द नहीं हो रहा था। आँसू भी नहीं आ रहे थे। उसे कुछ अच्छा नहीं लगा। वह उठी और जाकर खड़ी हो गई बारात के सामने। दुल्हे ने नज़रें उठाने की कोशिश की लेकिन पलकों पर कुछ रखा हुआ-सा लग रहा था,  उसका भार भी कुछ ज्यादा था, उठा नहीं सका।
लड़की ने इशारे से बैंड-बाजे को बंद कराया। लड़के से कहा – “तुम्हारे लिए एक तोहफा लायी हूँ। “
असमंजस की स्थिति में लड़का सामने आया। कुछ समझ में आता उससे पहले ही चटाक की आवाज करता लड़की का हाथ चल चुका था।
लड़की ने महसूस किया कि लोगों ने अपने नाक-भौं सिकोड़ रखे थे। वह संतुष्ट हो गई। बुरी गंध को वह ठीक जगह ले आयी थी। अब धीरे-धीरे दर्द भी जीवित होने लगा था अंदर कहीं। उसे लगा अब वह बेहतर महसूस कर रही थी।
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