बुधवार, 29 जून 2016

शब्द-दर्पण

कभी लहरों पर हिचकोले खाती तो कभी किनारे की रेत को गले लगाती नाव की तरह। जिंदगी का यही आलम  है। जैसे अनमने भाव से उठते कदम निकल पड़ते हैं कहीं बिना आगे की राह देखे। कि चलो निकलते हैं… आगे देखेंगे किधर जाना है। और वहाँ तक बिना सोचे तो जा ही सकते हैं राह जहाँ तक मुड़ती न हो। जैसे एक लहर उठती है यादों की और पहले से उठी, शांति की ओर जाती पुरानी लहर को भी मिला लेती है कि सतह की हलचल कम न हो।
मैं देखता हूँ अक्सर डाल से टूटकर बिखरी हुईं फूलों की रंगीन बनावट, धरती की सतह पर। फिर सोचता हूँ कि क्या तुम्हारे होने से यह दृश्य दूसरा होता! या कि धरती फिर भी चूम रही होती नियति के मारे पंखुड़ियों को। भले ही सजी लगती भूमि मगर शाखों का दर्द तो तब भी उतना ही रहता।  तो तुम्हारे होने या न होने का फ़र्क उन फूलों की बदकिस्मती पर जरा भी नहीं पड़ता। पर जबकि नजरों के आगे तुम रहती तो यह संवेदना भी कहीं दूर बसी होती। किसी पत्ते की ओट से देखती पर मन अंजान बना रहता।
अब देखो न, तुम्हारी ही रंगत लिए एक और शाम आयी थी आज। झेंप गया था कि क्या कहूँ उसे कि जिसकी रंगत का असर था शाम पर उसने ही उगा कर रखा है कांटे दरो – दीवार और कालीनों पर यहाँ की। फिर भी अरसे से जमी धूल को झांड़ते हुए मैंने दिल का एक कोना बढ़ा दिया उसकी तरफ कि अनचाहे अतिथि के जैसे ही पर थोड़ी आवभगत तो करनी ही पड़ेगी। और फिर अपने होंठों के उजड़े फूलदान में हंसी की एक मुर्झायी डाली रख दी। हल्की-सी खुशबू ने शाम का स्वागत किया अनमने होकर। और इसके पहले कि शाम बेतकल्लुफ होकर पसर जाती मैंने इशारों में जता दिया- शाम! ठहरना है तो ठहरो कि घड़ी अभी आयी नहीं मेरे मदहोश होने की। कि दर्द की प्याली अभी सजनी बाक़ी है रात के सेंटर टेबल पर।

शनिवार, 25 जून 2016

अंधेरे का आलोक


**अंधेरे का आलोक**
वह अकेला था इस शहर में। इस दुनिया में भी। एक अनाथालय की दया पर उसका बचपन बीता। पर बुद्धि तीक्ष्ण थी और मेहनत उसका साथी था। सो नौकरी मिलने में परेशानी आयी नहीं। निबंधन कार्यालय के रजिस्ट्रार के पद पर पहली पोस्टिंग मिली और इस तरह वह भी इस शहर की हवा में हिस्सेदार हो गया। दो बड़े कमरों के घर में उसकी जिंदगी अकेली दौड़ रही थी। चीजों की कमी तो खलती नहीं थी, बचपन से अभ्यास जो था, फिर भी उसे महसूस होता कि जिंदगी में कुछ तो कमी थी।

दिन बीतते गए और महीने में बदलने लगे। एक दिन वह फुर्सत के पलों में अपनी बालकनी में बैठा गुम था। चाय की चुस्कियों के अंतराल में उसे कुछ खटका सा हुआ। अनजाना-सा कुछ। रोज तो नहीं लगता था ऐसा। बेचैन होकर उसने इधर-उधर देखा। जल्द ही उसे मालूम पड़ गया कि वह किसी की नज़रों की नोंक पर है। सामने की एक खिड़की से एक नारी शरीर उसे निहार रहा था। सामान्य बात थी। आयी-गयी होने लायक, वह शांत हो गया। 

लेकिन यह सिलसिला रूका नहीं, बल्कि बढ़ता गया। वह जब भी बालकनी में आता स्वयं को उसकी नजरों में बंद पाता। कभी-कभी उसकी मुस्कान भी दिख जाती। धीरे-धीरे वह आदी हो गया। जबतक खिड़की से नारी चेहरा दिख नहीं जाता वह बालकनी से हटता नहीं था। उसने जान लिया था जिंदगी की कमी को। 

एक दिन वह ऐसे ही बालकनी में खड़ा खिड़की को निहार रहा था। आज ज्यादा देर हो रही थी। उसका चैन जा रहा था। तरह-तरह के ख़्याल आने शुरू हो गए थे। प्रेम में इन्तज़ार के लिए कोई जगह नहीं होती। ख़ैर यह इन्तज़ार ज्यादा लंबा नहीं हुआ। थोड़ी देर बाद ही खिड़की खुली और उसकी नजरों का चैन वापस हासिल हुआ। चिरपरिचित चेहरा मुस्कान बिखेरता रौशन हुआ। नजरों की शिकायत दूर हूई तो उसने देखा- नारी – शरीर ने अपने हाथ से काग़ज़ का एक टुकड़ा नीचे की गलीनुमा सड़क पर उछाल दिया था। फिर एक इशारा मिला। मिनटों में वह लगभग दौड़ते हुए जा पहुँचा काग़ज़ी टुकड़े तक। 

क़ायदे से काग़ज़ के उस तुड़े-मुड़े टुकड़े को गली के किसी कोने में पड़ा हुआ होना था। पर उसपर लिखे गए तीन अंग्रेजी के अक्षरों ने उसे किसी के लिए उम्रभर सहेज कर रखने लायक बना दिया था। लिखावट ऐसी कि किसी को समझ में ना आए सिवाय उसके जिसके लिए वह लिखा गया था। 

उसने इधर-उधर नज़र घूमायी। गली के दोनों छोरों पर कोई न था, सिवाय सुनसान के। उसने धड़कनों को थोड़ा धीमा होने दिया। फिर झूककर उठा लिया नेह-निमंत्रण को। धड़कनों का शोर उत्कर्ष पर था फिर से। उसने सर ऊपर किया। उस ओर जिधर से आकर कागज़ का वह टुकड़ा किनारे लगा था। नारी – शरीर मुस्कान भरी नजरों से निहार रहा था। उसने भी मुस्कान बिखेरी। दोनों के रास्ते एक हो रहे थे। नारी – शरीर अब उसके लिए देवता था। प्रेम का देवता। 

अपने कमरे में आकर उसने प्रेम की सिलवटों को सीधा किया। केवल तीन अक्षर थे – आई एल यू। जैसे किसी अनाड़ी ने लिखा हो। तीनों अक्षरों का सम्मिलित तात्पर्य वह समझता था। कौन नहीं समझेगा! 
बेहद कीमती लिखावट थी। उसने संभाल कर रख लिया किसी अमूल्य निधि के जैसा। 

अब वह सातवें आसमान पर था। वापस आने की कोई जल्दी नहीं थी। आना भी नहीं चाहता था, पर आया। प्रेम की जो सौगात मिली थी उसका जवाब भी तो देना था। अठ्ठाईस बरस के बाद उसकी जिंदगी में प्रेम की पहली दस्तक पड़ी थी। भावनाओं का संक्षेपण कठिन था। चार पन्ने में किसी तरह उसने दिल की बात ख़त्म की। भावनाओं में लिपटा उसका प्रेम शब्दों पर सवार होकर पहुंच गया अपनी नयी – नयी मिली मंज़िल पर। उसने खिड़की से देखा सामने की बालकनी पर। उसके देवता ने दामन से लगा रखा था उसके जवाब को। उसकी जिंदगी की दीवार से उदासी की मैली धूल झड़ रही थी। किसी के प्रेम का सुनहरा रंग चढ़ने लगा था।

दो दिनों तक दोनों के शब्दों ने खूब भ्रमण किया। एक दिल से दूसरे दिल तक। तीसरे दिन तयशुदा समय और जगह पर दोनों का सामना हुआ। उसकी प्यारी बातें और मोहक अदा ने आदमी को यह सोचने पर मजबूर कर दिया कि वह इस दुनिया के सबसे खुशक़िस्मत इंसानों में से एक है। देवता की हँसी के अवदात आलोक में उसने पहली बार महसूस किया जिंदगी कितनी सुंदर है। सपने हजारों की संख्या में तैरने लगे थे, आँखों में। स्मित मुस्कान धारण किए उसके प्रेम के देवता ने फिर विदा लिया इस सहमति के साथ कि अब उनके प्रेम को एकांत चाहिए। वह भावविभोर था। यह मिलन तो अब इतिहास बनेगा। 

इस तरह मिलने का सिलसिला आरम्भ हुआ। वह खुश था। प्रेम परिपक्व हो रहा था। एक दिन भावी जीवन के सपने देखने – देखते पता नहीं वह कब आगे बढ़ गया अपनी स्वयं की तय की हुई सीमाओं से। परिणाम- अभिसाररत  कामना में उसे पता भी नहीं चला कि कब बिजली सी कौंधी और उनका प्रेम हमेशा – हमेशा के लिए स्थान पा गया था स्वचालित कैमरे में। प्रेम के देवता की कुटिल हँसी की कालिमा उसके वज़ूद को खाये जाती थी। उसे कुछ सूझता न था। 

प्रेम के देवता ने एक और पुजारी को अपना दास बना लिया था। 

बाद में उसे पता चला कि एक जमीन माफिया के ख़र्चे पर पलने वाली वह एक लड़की थी जिसे उस रजिस्ट्रार की इमानदारी को काटने के लिए औजार बनाया गया था। इमानदारी का लोहा इतनी जल्दी जंग खा जाएगा, उसने सपने में भी नहीं सोचा था। 


रविवार, 19 जून 2016

आधे-अधूरे स्वप्न

उसके लिए पार्क के इस हिस्से की आबोहवा में कुछ अपनापन अभी बाक़ी था। उससे आख़िरी मुलाकात की ताज़गी जड़ों की मिट्टी में मौजूद नमी जितनी बची थी। हर बार सूखने से पहले वह आ जाता और यादों के धुसर जल से सींचने के बाद लौट जाता। उन यादों में उसकी जिंदगी के खुबसूरत पल भी शामिल थे और उसी के बदौलत मिले दर्द और टीस भी।
“आरव! मिलते रहना कभी-कभी.. “
(क्यों कुछ और बाक़ी है क्या..! .दर्द शायद एक से ज्यादा किस्तों की है!)
“जरूर.." - प्रत्यक्षत: आरव ने जवाब दिया।
आखिरी शाम की आख़िरी बात थी जो कहीं गहरे पैठ गयी थी।
उसकी आँखों से कुछ बूंदें निकल कर पराए हो गए।
अपनापन के रिश्ते विछोह में परिवर्तित होने से असह्य पीड़ा देते हैं। उसने दर्द को पी लिया था।
करता भी क्या?
जब अपना ही पराया हो जाए।
जब अच्छाइयाँ भार बन जाए। जब रिश्ते का फूल काँटे-सा चुभने लगे।
उसने सर को झटका और घास पर लेट गया। थोड़ा आराम मिला। कुछ देर बाद वह तालाब की घेरे वाली दिवार पर टहल रहा था।
तालाब की बच गयीं मछलियाँ जब-तब सतह पर आकर जल की नीरवता को छेड़ जाती थीं। उसकी आँखों से एक और शाम निकल कर ढ़लने लगी…चार साल पहले वाली -

हल्की बूंदाबांदी शुरू हो चुकी थी जब वे पार्क में पहुंचे। पार्क खाली हो चुका था। उपर से पार्क बंद होने का समय भी हो चला था। गार्ड ने गेट पर ही रोक दिया। इसके पहले कि मायूस हो वे वापस होते निशा ने पचास का एक नोट आगे कर दिया। नोट की ललक गार्ड के चेहरे पर तत्काल स्पष्ट हुई। परमीशन ग्रान्टेड! अपनी पर आने से अक्सर लोग पाबंदियों को तोड़ने से नहीं हिचकते।

नया-नया बना पार्क बड़ा खुबसुरत लग रहा था। फूलों और सजावटी पौधों के गमले योजनाबद्ध तरीके से लगाए गए थे। किसी कुशल गाइड – सी निशा उसे पार्क के हर हिस्से के बारे में बताती जा रही थी। पर उसकी नज़रों की परिधि में तो हवा के झोंके से रह – रह कर उड़ते निशा के रेशम-से बाल और कंपन करते हुए उसके होठ थे। उसके होने से पार्क जीवन से भर गया था। हरेक पल कीमती था। संजोए रखना लाजिमी था।

भैया! टाईम हो गया है, बाहर चलते तो लाँक कर देता..
गार्ड ने आवाज लगायी और आरव वर्तमान के धरातल पर लौट आया।
उस दिन भी ऐसी ही स्थिति थी। हर बार गार्ड आवाज देता और - बस पांच मिनट भैया.. कहती हुई निशा आगे खींच ले जाती आरव को। अंत में तालाब के किनारे पर चढ़ ली। बमुश्किल दस इंच चौड़ी दिवार पर आगे-आगे वह और उसकी उंगली थामे आरव। बचपन उतर आया था उनके बीच। हंसते – हंसते पेट फूलने लगा था। उसकी ठंडी उंगलियों की डोर थामे बचपन छिटककर उसके साथ हो लिया। तालाब के रेलिंग पर चलते-चलते तीन-चार चक्कर काट लिये दोनों ने। बूंदें अपना काम कर रही थीं।
      कभी-कभी बेवजह की गयी बचकानी बातें ही खुबसुरत पल बन कर यादों के अलबम में कैद हो जाती हैं। तन्हाई की हवा से फड़फड़ाते इसके पन्ने फिर हमें वापस इन पलों की सैर कराते हैं।
उसका साथ आरव के लिए हमेशा एक रूमानी स्वप्न-सा होता। शब्द केवल सुनाई देते थे। बोल कर वह उन लम्हों को बर्बाद नहीं करना चाहता था। उसने तय किया था-“ बोलना उसके जिम्मे, सुनना मेरे! “

पार्क से बाहर निकलने से पहले उसने यूँ ही पूछ लिया था- “निशा मुझे भुल तो नहीं जाओगी कभी।“नहीं बाबा” – निशा ने हंसते हुए कहा। अगंभीरता से। अनजान-सा डर छू गया था उस घड़ी।

आरव गरीबी के कीचड़ से निकला हुआ था और अभी तक यह (अ)प्रमाणित था कि वह कमल था। रोजगार को हासिल करने की होड़ जारी थी मगर। यह पेट के लिए भी जरूरी था और निशा को अपनी जिंदगी का सवेरा बनाने के लिए भी।
लड़की के पिता की शर्त थी बराबरी वाली सोसायटी में ही बेटी का घर बसाने की। शर्तों वाला प्यार एक स्वाभिमानी ग़रीब को पसंद नहीं आया तो उसे भावनाओं के चाशनी में लपेट कर आकर्षक बनाया गया।
“आरव! पापा हमारे भले के लिए ही तो कह रहे हैं.. “
“और फिर तुम्हारी प्रतिभा के सामने कौन सी परीक्षा मुश्किल है.. मेरे लिए इतना भी नहीं करोगे। “

दो प्रेमियों के बीच मैं का होना प्रेम की संपूर्णता पर प्रश्नचिन्ह लगाता है। आरव ने गहरी साँस ली थी। उसके सामने सपनों का ताजमहल था तो ग़रीबी का खंडहर भी था। उस खंडहर में एक बीमार माँ की हाँफती जिंदगी भी थी जिसके कितने दिन बाक़ी थे कहा नहीं जा सकता था।
 बेटे ने कैसा रोग पाल लिया!
तय हुआ आरव को सिविल सेवा की परीक्षा पास करनी होगी फिर शादी होगी।

बीमार माँ को छोड़ कर जाना उसे कतई मंजूर नहीं होता। उसने घर पर रहकर ही तैयारी शुरू कर दी। इंटरनेट और सच्चे दोस्तों द्वारा दी गयी किताबों और नोट्स से तैयारी शुरू हुई। कहते हैं कि भाव प्रबल हो और प्रण कठिन तो फिर परिणाम तिनके जैसा नजर आता है। प्रारंभिक और मुख्य परीक्षा उसने अपनी मेहनत और प्रतिभा के बदौलत निकाल ली थी।
इंटरव्यू दो महीने बाद होने वाले थे। अब निशा बहुत खुश थी। उसे उसका प्यार मिलनेवाला था और बराबरी की सोसायटी भी। इस खुशी को सेलिब्रेट करने के लिए निशा आरव के साथ पार्क गयी थी।

बाहर निकलने से पहले वह एक बार नजर भर के देख लेना चाहता था.. निशा की बाहों के घेरे में खड़ा पाया उसने खुद को। देखा बेईमान समय को और उसके घिनौने चेहरे को। बारिश की बूंदों से बचाने के लिए उसने अपना दुपट्टा उसके सिर पर रख दिया था। दुपट्टे की झीनी ओट बूंदों को रोक तो नहीं सकी थी मगर अपनापन का ऐसा आवरण बना गई थी जिसमें प्रेम की नवजात मगर अमिट भावनाएँ ढ़ल चुकी थीं। बारिश तो खत्म हो गयी थी मगर समय हीन भावनाओं के रंग अभी भी झर रहे थे उसके सर से। फीकी हंसी उभर आई न चाहते हुए भी।

बाहर अनवरत शोर था। चिल्ल-पों थी। धकियाते हुए लोग थे। भागती हुए राहें थीं। इनके बीच वह था। “.. उसकी तो कोई राह ही नहीं है। किधर जाए..!” उसने एक नज़र भीड़ पर डाली, “भागते हुए लोगों की मंजिल तो है।“

आज इस शहर में उसका पहला दिन था। कल दिन में एक ऑफिसियल मीटिंग अटेंड करनी थी और शाम में कुछ मित्रों के साथ पार्टी। खुशी जैसी कोई चीज तो थी नहीं उसकी जिंदगी में, फिर भी। दोस्तों के लिए। दोस्त ही थे जिन्होंने उसे उबारा था। मुफलिसी से, बेमकसद जिंदगी से।गुजरे दिनों की काटती तन्हाई में इन दोस्तों की निश्छल धमक ही थी जिसने उसके जीवन की फीकी ही सही रोशनी को बचाये रखा। वैसे भी निशा के बिना यह शहर उसे सुनसान ही लगता था। दोस्तों के साथ ग़म छलकता तो मन का भार कम हो जाता।
“.. अब छोड़ो भी यार, बीते दिनों को भार बनाकर कब तक ढ़ोते रहोगे. . पूरी जिंदगी सामने पड़ी है.. कल से बाहर निकलो और आनेवाले कल की तरफ देखो… “-उसके दोस्त कहते, उँची नौकरी, समाजिक प्रतिष्ठा और सुंदर मन..क्या नहीं है तुम्हारे पास..!"

सच्चाई की बातें थी। आज उसके पास वो सब कुछ था जो लोगों की नजरों में उसे बड़ा बनाते थे।
पर उसे तो अपना बिता हुआ कल ही चाहिए था। उसकी दुनिया थी जिसमें। माँ थी, निशा थी। सपने थे, आनेवाले कल के…

इंटरव्यू के बाद मिलना भूल मत जाना.. वर्ना याद दिलाने घर आना पड़ेगा, समझे भोलूराम.. जूस का ग्लास थमाते हुए कहा था निशा ने। आरव हल्के से हँसकर रह गया।
क्या हुआ बाबू.. चिंतित स्वर गुँज उठा।
कुछ नहीं, बस आनेवाले कल की चिंता है.. निशा क्या होगा अगर मैं पास न हो.. स. का..
यार.. तुम सोचते बहुत हो, वैसा कुछ नहीं होगा। तुम पास करोगे मुझे पता है.. मैंने तो शादी की तैयारी भी शुरू कर दी है.. बस तुम पढ़ाई करो, सिर्फ पढ़ाई।.

उसके बाद आरव ने धुन ठान ली थी। दिन-रात किताबों में ही बीतता। इंटरव्यु के तैयारी के लिए कुछ जाने-माने लेखकों की पुस्तकें उसकी मित्र मंडली ने उपलब्ध करवा दी थी।
इंटरव्यू के दिन पास आ रहे थे। आरव आत्मविश्वास से जुटा हुआ था।

इधर माँ की बीमारी भी कम होने के बजाय बढ़ती जा रही थी। इन्सान सोचता तो बहुत कुछ है पर परिस्थितियाँ अक्सर हकीक़त का संतुलन बिगाड़ देती हैं। भविष्य के रास्ते उबड़-खाबड़ मिलेंगे या सपाट-समतल, यह जानना मनुष्य के वश के बाहर है अभी तक। सोचने और उसके अनुसार घटित होने का महीन अंतर भी कभी-कभी बड़ा परिणाम उत्पन्न कर देता है।

“काश! जिंदगी दो और दो चार जितनी होती..”
 माँ की ममता ने उसके दर्द को ढ़क रखा था। बेटे के दिन संवरने वाले थे, इसकी खुशी बढ़ते दर्द को प्रकट करने से रोके रखती। नतीजा बीमारी बढ़ती गयी।

साक्षात्कार पूरा हुआ। माँ भी खुश थी। अपनी बीमारी के बढ़ते प्रभाव से आश्वस्त भी थी। दिन कम हो रहे थे।
आरव ने बहुत कोशिश की पर डाक्टरों ने हाथ खड़े कर दिए थे।
माँ की ज़िद थी। आखिरी सांस घर पर ही लेगी। बेटे का घर बसते देखना शायद भाग्य में नहीं लिखा था।
आरव ने बहुत कोशिश की समझाने की निशा के पापा को।
“अंकल जी, एक माँ के लिए इससे बड़ा सपना कुछ नहीं होता कि उसके बच्चों का घर बस जाए।जिंदगी के सारे दुख उसने अपने बेटे के लिए उठा लिए। कम से कम आखिरी खुशी तो दे दीजिए। यह उपकार मुझपर कर्ज रख दीजिए।“

कुछ लोग केवल झूठी शान के लिए जिंदगी जीते हैं। रिश्तों की खुशबू, उनमें शामिल खुशियों के रंग और उनको बाँधने वाली डोर को नजरअंदाज कर अपनी छद्म सामाजिक रुतबे के लिए जीना ही सिर्फ़ जीना होता है, उनके लिए। राजशेखर भी उन्हीं लोगों में से एक थे। अपनी सामाजिक मर्यादा की उँची छत से इतनी जल्दी कैसे उतरते! न तो आरव की कातर याचना उन्हें सुनाई दी और न ही निशा की ममत्व भरी पुकार।
अपनी इच्छा को आँखों में ही बसाये आरव ने अपनी माँ को विदा होते देखा ।
एक बेटा अपनी माँ की पूरी हो सकने वाली इच्छा भी पूरी न कर सका। यह उसका स्वार्थ ही तो था। हालांकि आरव का इसमें कोई कसूर नहीं था। मगर बेटे के अंतर्मन में यह बात घर कर गई कि उसने बेटा होने के फ़र्ज को नहीं निभाया।
आरव का मन खोया-खोया रहने लगा था। निशा के लिए उसका प्यार ही अब उसे अपनी माँ का कातिल लगने लगा था। स्वार्थी था उसका प्यार। उसकी नजरों में ख़ुद के लिए हिक़ारत दिखाई देता था उसे।

निशा ने बहुत कोशिश की पर उसके मन से यह बात निकाल नहीं पायी।
"आरव, तुम्हारा दुख बहुत बड़ा है। पर यह मेरे लिए भी उतना ही गहरा है। एक और माँ का साया मेरे सर से भी उठा है। पर जिंदगी में एक बार फिर खड़ा होना ही पड़ता है लड़खड़ा कर गिरने के बाद। "
" मैं लड़खड़ा कर नहीं गिरा निशा, ऐसा होता तो मैं उठ चुका होता।"
"
अपने रिश्ते के लिए, अपनी पढ़ाई के लिए मैं यह भूल गया कि एक बीमार माँ को मेरी जरूरत है। कल को मेरे पास सब होंगे पर जो अभी-अभी छूटा है वह तो वापस नहीं न आएगा।"

"ऐसा नहीं है आरव, तुमने तो हर संभव कोशिश की पर किस्मत में कुछ और ही था तो तुम क्या कर पाते। फिर माँ भी तो यही चाहती थी कि तुम पढ़-लिख कर अच्छी जिंदगी चुनो।"
"नहीं निशा, माँ चाहती थी कि अच्छा आदमी बनूँ।
अच्छी जिंदगी और बड़ा आदमी तो तुम्हारा साथ पाने के लिए जरूरी था। तुम्हारे पिता के लिए।"
आरव का मन कसैलेपन से भर चुका था। सामाज का दोहरा आचरण और उसका ग़म उसके शब्द को अनियंत्रित कर रहे थे।
"
तुम्हारी तरफ से तो यह रिश्ता इसी शर्त पर टिका हुआ है न निशा। कल को अगर मुझे तुम्हारे मनमाफिक नौकरी नहीं मिली तो फिर इस रिश्ते का क्या भविष्य होगा। क्या यह प्यार है?नहीं निशा यह प्यार नहीं, बल्कि व्यापार है। तुमने तो एक कुशल व्यापारी जैसा सोच – समझकर निवेश किया है अपने प्यार का, पर मैं व्यापारी नहीं हूँ निशा।"
निशा निःशब्द थी।
आरव के शब्द बहुत धारदार थे, गहरे तक चोट कर रहे थे। आँसूओं की राह तैयार थी।
आरव अपनी जगह सही था। पर जो हुआ उसके लिए निशा को दोष देना भी उचित नहीं था। वह अपने पिता की अकेली बेटी थी। प्यारी भी। हर अमीर पिता की तरह राजशेखर ने भी अपनी बेटी को सुख-सुविधा के सारे साधन दिए थे और अच्छे संस्कार भी। उसे अपने पिता के निर्णय में कोई बुराई नहीं दिखी। यह अलग बात है कि उसने एक प्रेमिका की नज़र से देखने की कोशिश भी नहीं की थी।
"आरव, पापा ने वही चाहा जो हर पिता चाहता है। कौन पिता नहीं चाहता कि उसकी बेटी अच्छी जिंदगी जीये। और तुम भी तो इसीलिए पढ़ रहे थे। ग़रीबी किसको पसंद है! "

" सच कहा तुमने, गरीबी किसको पसंद है। यह तो कलंक है समाज का। एक धब्बा है अमीरी के आँचल पर। मैं भी उसका एक हिस्सा हूँ निशा, बेहतर है तुम भी किनारे ही रहो..!!"

"आरव! ऐसा नहीं है। तुम्हारे लिए मेरा प्यार ऐसी बातों से उपर है लेकिन जिंदगी सिर्फ प्यार से तो नहीं कटती.. "

" ओ रीयली! काफी समझदार हो गयी हो, पर मुझे तो लगा था प्यार के साथ पूरी जिंदगी काटी जा सकती है.. हमारी सोच नदी के दो धार जैसी अलग जाती दिख रही है..!"
आरव के शब्द नश्तर बन गड़ रहे थे। जिंदगी के उस मोड़ पर निशा उसे कोई चोट पहुंचाने नहीं आयी थी। अत: उसने जाना ही उचित समझा इस समय।
"आरव! ऐसा नहीं है.. अपने को संभालो.. धीरे-धीरे सब ठीक हो जाएगा। हमारी भी जिंदगी होगी, खुशियाँ होंगी, ग़म भी होंगे। बस तुम साथ रहना।"-उसने आरव को गले लगाते हुए कहा।
आरव को थोड़ी सांत्वना मिली। अच्छा लगा निशा का साथ। मन का गुब्बार निकल चुका था।आँखें भी नम हो चली थीं। दोनों की।

फोन का रिंगटोन बजा तो आरव की तंद्रा टूटी। मधुर का कॉल था। शाम की पार्टी के बाबत पूछ रहा था। उसने अपने हिसाब से अरेंज करने के लिए मधुर को राजी कर लिया साथ मे बाक़ी दोस्तों से भी को-आर्डिनेट करने के लिए भी बोल दिया।

आरव की मीटिंग में अभी देर थी। उसने एक बार फिर अपना प्रजेंटेशन चेक किया। सब कुछ दुरूस्त था। दरअसल संयुक्त राष्ट्र संघ की संस्था यूनिसेफ जो बच्चों की शिक्षा को बढ़ावा देने के लिए प्रसिद्ध है, उसी के कुछ प्रतिनिधियों के साथ आज उसकी बैठक थी। अगर बैठक सफल होती तो भारी अनुदान की अनुशंसा हो जाती जो गरीब बच्चों की शिक्षा नीति के लिए बहुत सहायक सिद्ध होता। सरकार की तरफ से इस काम के लिए आरव को अधिकृत किया गया था। उसने पहले भी कई मौकों पर इस काम को सफलतापूर्वक संपन्न करवाया था। उसे विश्वास था इस बार भी वह सफल रहेगा। असफल होने का दर्द उससे बेहतर कौन जानता था।

आरव के लिए जिन्दगी में अब कुछ बाक़ी नहीं था। मन को सुकून देता जाँब था। नाते-रिश्तेदार ज्यादा थे नहीं, जो थे वे अपनी दुनिया में व्यस्त थे।
अकेला आदमी या तो भविष्य के सपने बुनता है या फिर अतीत की अतल गहराईयों में भटकता रहता है।वहीं बिखरे यादों के मोती सहेजता है, समेटता है। चैन मिले तो, न मिले तो – वापस वर्तमान की सतह पर उभर आता है।
 आरव के लिए भविष्य था भी या नहीं, उसे मालूम नहीं था। वह तो बस अतीत में ही जीना चाहता था। वही  अतीत जिसमें ग़म था, दुख था, असफलता थी और निशा भी। अंतिम के अलावा किसी को याद नहीं करना चाहता था वह। मगर अतीत के पल ऐसे उलझे थे आपस में कि सुलझाना मुश्किल था।

.. दो-दो असफलताओं के बाद उसका सपना टूटने लगा था। उसे स्वयं पर तो विश्वास था मगर राजशेखर के लिए अब और इंतजार करना मुश्किल था। उनकी नजर में प्यार अपनी जगह पर सही था, लेकिन दुनिया केवल प्यार से नहीं चलती। कितने अच्छे रिश्ते उन्हे ठुकराने पड़े निशा की जिद और प्यार के आगे। इस बार उन्होंने फैसला कर दिया था।
"अगर मेरी कद़्र है और मेरी इज्ज़त का ख़्याल है तो मना मत करना बेटी, बाक़ी तुम्हारी मर्ज़ी पर दूसरी स्थिति में एक पिता-पुत्री का रिश्ता समाप्त समझना। हाँ, यह दौलत तुम्हारी रहेगी, हर हाल में। घबराना मत। "
निशा के लिए कुछ कहना बाक़ी था क्या!

एक रिश्ते को बनाने के लिए दूसरा टूट जाए ऐसा वह कैसे कर सकती थी। उसके लिए पापा ने कम त्याग नहीं किया था। न तो निशा का बेटी होना उनके लिए कोई अफसोस की बात हुई और न ही पत्नी की मृत्यु के बाद उपजा अकेलापन। उनकी दुनिया बेटी निशा पर ही शुरू और उसी पर खत्म होती थी। यही कारण था कि उन्होंने दूसरी शादी के बारे में कभी सोचा भी नहीं। जिन्होंने पाल-पोस कर बड़ा किया है उनके ही हृदय पर आधात वह कैसे करेगी।

एक बेटी जीत गयी थी। प्रेम ने हार स्वीकार कर ली।

सुंदर सपनों की दुनिया उजड़ रही थी। पार्क के जिस हिस्से में दोनों के सपने बड़े हुए थे वहीं पर सपनों को दफ़न भी किया गया। गवाह बने उफनते आँसू, लरज़ते होंठ, भींगी पलकें और सिसकते पलों के साये। एक सूरज पश्चिम में डूब रहा था, दूसरा उनके मन के किसी कोने में। अपने-अपने हिस्से की तन्हाई और बेबसी लेकर दोनों निकल पड़े अनजान-से डगर पर।

जाते-जाते निशा ने औपचारिकता निभायी थी।
“आरव! आते रहना कभी-कभी..”

आँखों के किनारे नम हो गए थे। आरव ने घड़ी देखा। एक बजने वाला था।
“ओ, शिट्! लेट हो जाऊँगा.. “स्वयं को कोसते हुए भागा आरव।
ड्राइवर मुस्तैद था, आरव के बैठते ही गाड़ी भगा लिया। साहब का इशारा पाते ही गाड़ी को जैसे पंख लग गए। नीयत समय से दस मिनट पहले वह कॉन्फ्रेंस रूम का जायजा ले रहा था। यूनिसेफ की समिति के सदस्य भी बाहर आ चुके थे। जरूरी आवभगत के बाद मीटिंग शुरू हो गई थी।
दो घंटे बाद मीटिंग खत्म हुई। आरव बहुत खुश था। अनुशंसा समिति को उसका प्रजेंटेशन बहुत जँचा था। अतः उन्होंने एक मत से सरकार द्वारा पेश किया गया प्रस्ताव मंजूर करने की सिफारिश करने का फैसला किया था। अपने अधीनस्थ कर्मियों को जरूरी निर्देश देने के बाद आरव जब बाहर निकला तो उसका चेहरा चमक रहा था। उसने मोबाइल देखा। आरव के दोस्त बेसब्र हुए जा रहे थे।
बत्तीस मिस्ड कॉल थे। उसने जल्दी से कॉल लगाया मधुर को। खुशी उसकी बातों से टपक रही थी। मधुर अचरज में था। पर खुश था। चलो दोस्त आख़िर खुश तो हुआ।

आधे घंटे बाद आरव की गाड़ी जब होटल लैंडमार्क के पोर्टिको में रूकी तो उसके सारे दोस्त वहीं जमा इंतजार कर रहे थे। जोशीले अंदाज़ में सारे दौड़कर लिपट गए। दूरियां सिमट गई थीं यारों की आज। आज़ की शाम खुशियाँ बिख़र-सी गई थी। दुआ-सलाम और गिले-शिकवों का दौर खत्म कर सभी मुड़ने ही वाले थे अंदर जाने के लिए कि आरव ने कहा – “ एक और मेहमान को नहीं ले चलोगे अंदर? “ बिन बुलाए ही सही पर है तो मेहमान ही।“
“हाँ – हाँ, क्यों नहीं.. बुलाओ तो सही!”-सभी ने समवेत स्वर में कहा।
अगले क्षण कार का दरवाजा खुला और बाहर आती हुई आकृति पर नजरें गयी तो आरव को छोड़कर सारे साथियों के मुँह खुले के खुले रह गए।
सामने निशा थी।
माहौल शांत था।
कुछ पल बाद जब माहौल हल्का हुआ तो आरव आगे-आगे और सारे दोस्त उसके पीछे-पीछे थे।
साले बता नहीं सकता था..
कमीने फोन पर तेरी खुशी यूँ ही नहीं छलकी जा रही थी..
कुत्ते मैं तेरा खून पी जाउँगा..
निशा लोटपोट हुई जा रही थी। फ़िजा एक बार फिर रंगीन हो गई थी।

बाद में डायनिंग टेबल पर सारे लोग ध्यान से उन दोनों को सुन रहे थे। आरव ने कहना शुरू किया – “एकबारगी तो मुझे यक़ीन ही नहीं हुआ अपनी आँखों पर। एक तो साड़ी में पहली बार देखा था निशा को, उसपर मीटिंग का प्रभाव, मुझे लगा यादों का हैंगओवर तो नहीं है यह…!"
"आरव तुम भी तो पहचान में नहीं आ रहे थे। मैंने तो लिस्ट में तुम्हारा नाम देखा तब विश्वास हुआ।"
"हाँ निशा! कौन जानता था कि जिन्दगी के इस मोड़ पर यूँ अजनबी बन मिलेंगे!"– आरव ने अफसोस के स्वर में कहा।
दरअसल निशा यूनिसेफ के लिए काम करती थी और आरव के साथ होने वाली बैठक में शामिल होने अन्य सदस्यों के साथ आयी थी। अचानक से मिले दो (पूर्व)प्रेमी बैठक की विवशता और औपचारिकता में लाचार थे। भावनाओं को जताना तो दूर ठीक से बात भी नहीं कर पाए थे। मीटिंग खत्म हुई तो भावनायें प्रवाहित होने लगी। कभी खुशी में नज़रें मिलाते फिर अनदेखे हकीकत को जानकर नजरें हटा भी लेते। पता नहीं यह दौर कब तक चलता अगर निशा ने पूछा न होता – और बताओ घर पर कैसे हैं सब?
“घर!! “-हंसा था आरव।
“जैसा भी है सामने है तुम्हारे.. मेरा घर.. मेरी दुनिया.. सब तुम ही तो थी.. तुम मेरी रही नहीं तो अब सिर्फ मैं हूँ – ठीक भी हूँ! “
आरव ने देखा - डबडबायी आँखों से निशा लिपट गई थी आरव के गले से।
हड़बड़ाकर पीछे होना चाहता था आरव।
इक्का-दुक्का लोगों का आना-जाना हो रहा था गैलरी में।
“निशा तुम किसी की पत्नी हो, ऐसा आचरण सही नहीं है! “-आरव ने चुटकी लिया। वास्तव में वह निशा के आचरण से अच्छी तरह परिचित था।
“तुमसे शादी हुई नहीं तो पत्नी कैसे बनी। “
“किसी और की पत्नी “
“नहीं बाबा! किसी और की भी नहीं हूँ.. अब तो निश्चिंत हो जाओ… भोलुराम§§.. “ गाते हुए कहा निशा ने।
दोनों हँस पड़े।
निशा ने बताया कि शादी से दो दिन पहले ही प्लेन – क्रैश में उसके मंगेतर की मौत हो गई थी। फिर निशा ने भी मना कर दिया था। इस सदमे के बाद उसके पिता ने भी दबाव देना बंद कर दिया था। निशा का मन इस शहर से उचट चुका था। उसने एक प्रतिष्ठित कॉलेज से एमबीए किया था। जल्द ही एक एनजीओ से जुड़कर विदेश चली गयी। बाद में यूनिसेफ में नियुक्त हो गयी थी।
आरव का सलेक्शन भी सिविल सेवा में अगले साल ही हो गया था। अपने कुशल कार्यशैली से जल्द ही वह प्रमोशन पाते हुए शिक्षा-परियोजना कार्यक्रम का उपनिदेशक बन गया था और अन्तत: निशा से मिल पाया।