रविवार, 10 जुलाई 2016

प्रेम उधार रहा

                       *प्रेम उधार रहा*

याद नहीं कब रश्मि मुझे अच्छी लगने लगी थी। बहुत जोर देने पर भी नहीं। शायद आहिस्ता-आहिस्ता शामिल हुए थी रश्मि मेरे विचारों की सीमा में। जैसे बसंत आता है पतझड़ की सीमा में शनै:-शनै:। जैसे नींद का आना होता है धीरे-धीरे आधी रात के बाद। जैसे हरियाली आती है हौले-हौले दो चार बरसातों के पीछे।

शुरूआत शायद उसकी निश्छल मुस्कान से हुई होगी। मोतियों- से सजे उसके दाँत ज्यादातर होंठों के पर्दे में ही रहते थे। मगर जब अनावृत होते तो अपने आसपास की दुनिया आलोकित कर जाते। इसी चमक में शायद दिखी होगी पहली रोशनी प्यार की। या शायद उसकी पतली काली भवों के बीच शोभित उस बिंदी ने सुझाया होगा मुझे रास्ता प्रेम का। उस छोटी-सी बिंदी से उसके सुंदर चेहरे की आभा और निखर जाती थी। मानो निर्मल आकाश में चंद्रमा! और यह भी हो सकता है कि हिरणी–सी बड़ी–बड़ी बिना काजल के ही काली आँखों की चंचलता ने खींचा हो ध्यान मेरे अंतर का।

खैर स्पष्ट रूप से तो मुझे भी नहीं पता कि वह कौन सी झंकार थी रश्मि के व्यक्तित्व की जिसकी धुन पर नाचने लगा था मेरा मन। पर रश्मि से मेरी पहली मुलाकात मेरी यादों के दस्तावेजों में साफ-साफ अंकित थी ।

तब पहली बार मैंने महसूस किया था उसका होना। कहने को तो वह अपनी सहेलियों के साथ थी। लेकिन मेरी नजरों में वह अकेली ही आयी थी। हंसी – ठिठोली करती लड़कियों की टोली में वह किसी प्रतिमा सी दिखती थी। सफ़ेद सलवार और आसमानी कुर्ते में सिमटी उसकी लंबी सुडौल देह झलक रही थी। उसपर गुलाबी रंग की बिंदी भवों के बीचों-बीच। मैंने कनखियों से देखा-अप्रतिम थी वह। कहाँ थी आज वाली मेरी आँखें अब तक। और कहाँ थी यह रूप की लहराती डाल।

“दर्पण देखते स्वयं पर अभिमान तो जरूर होता होगा..”-मेरे मन ने अंदाजे से कहा।

कुछ दूर के फासले में चलता मेरा मन कदमों से आगे निकल गया था। उसकी ओर।
उसे पूरी नजर से देखने को, उसकी आवाज सुनने को, उसका नाम पूछने को मन छिटक रहा था, मेरी सोच से आगे निकल कर। नजर हटती नहीं थी उसकी लम्बी लहराती लटों से। मन हवा पर सवार होकर उलझना चाहता था उसके बालों में। उसकी नज़ाकत भरी चाल से निर्जीव सड़क को जीवित होते देख सकता था मैं।

उस समय लग रहा था कि रास्ता ज़रा और लम्बा हो जाता। पर ऐसा हुआ नहीं। रश्मि आगे बढ़ गयी थी और मैं अपने गांव की ओर मुड़ गया था। पर जाने से पहले उसका एक बार पलटकर देखना भी सौ मन्नतें पूरी होने की खुशी के बराबर था। मैंने देखा था, मेरी ओर देखती उसकी आँखें मुस्कान भर रही थीं उसके चेहरे पर। मैं पूछना चाहता था उससे-“क्या तुम भी..!”
पर उसके सखा-सहेलियों के सामने हिम्मत जवाब दे गई। वह चली गई थी मेरे सीने को खाली करके जो अब हल्का महसूस कर रहा था और उड़ना चाहता था, बादलों से ऊपर..! चाहता था पल भर को नीचे आना प्यार की हवा में सांस लेने और फिर वापस खो जाना किसी अकेले अनंत में।
मन कर रहा था कि उसके कदम चूम लूँ, पर वह तो जा चुकी थी। सिर्फ उसके कदमों के निशान थे। मैंने आगे-पीछे देखा, लोग –बाग जरा दूर थे। मैं झूका और छू लिया उन कदमों की छाप को जो रश्मि के गुजरने से बने थे। कुछ देर के बाद ये निशान अपने अस्तित्व खो देने वाले थे।

रश्मि की तरफ झूकते दिल के पलड़े को बैलेंस करने की कोशिशें जब नाक़ाम साबित हुईं तो बात दिमाग के संज्ञान में लायी गयी। दिमाग की भवें उठीं-“नहीं!”
“क्यों?”-दिल के अपने सवाल थे। जायज़ था पूछना भी।“क्या वह अच्छी नहीं!”
“ऐसी बात नहीं..”
“क्या वह भली नहीं!”
“ऐसी बात नहीं..”
“क्या वह मेरे प्यार के काबिल नहीं!”
“ऐसा मैंने कब कहा..”
“क्या मैं उसके काबिल नहीं!”
“यह बात भी नहीं, दोस्त!”
“तो फिर..”- दिल ने बेचैन हो कर पूछा।
कुछ देर सोचने के बाद दिमाग ने कहा – “अभी अपने पढ़ने-लिखने के दिन हैं दोस्त, इसी पर ध्यान देना होगा।“
“लेकिन दिल तो उधर लगा रहता है रश्मि की ओर, अकेले तुमसे हो पाएगी पढ़ाई?”-मैंने दिमाग को अपनी शंका से अवगत कराया।
दिमाग परेशान दिखा। बिना दिल के लगे अकेले दिमाग के लिए पढ़ाई मुश्किल थी।
उसने दिल को समझाया – “देखो दोस्त! खाली प्यार-व्यार से दुनिया नहीं बनती, उसका भी वक्त आएगा।“
“पर तब तक वह दूर चली जाएगी, उसे पढ़ने में ज्यादा मन नहीं लगता, बता रहा था मेरा दोस्त अभिनव।“-दिल की अपनी चिंता थी।
“अच्छा! उसकी बड़ी चिंता हो रही है, पर उनका क्या जो तुम्हारे सहारे सुनहरे भविष्य के सपने देख रहे हैं?”- दिमाग ने दिल की कमजोर नस दबा दी थी।

***

घर की तंगहाली के बीच मेरी किताबें ऐसे चमकती थीं जैसे बादलों से भरी रात में दूर चमकती बिजली की कौंध। अंधेरा मिटने के लिए दिन का निकलना आवश्यक होता है। मेरे घर की तंगी और गरीबी मिटाने के लिए मेरा अपने पैरों पर खड़ा होना ही काफ़ी नहीं था। जरूरत थी इस रेस में दौड़कर आगे निकलने की। मुझसे छोटी दो बहनों का भविष्य भी मुझसे बंधा था, यह बात मुझे आठ-दस बरस का होते-होते अच्छी तरह समझा दिया गया था। मन कभी भूलना भी चाहता तो मस्तिष्क अपनी डुगडुगी बजा देता और मन वापस खो जाता किताबों की दुनिया में।

उस दिन मन और मस्तिष्क ने एक-दूसरे से बात न की। मन जहाँ रश्मि की सोच में डूब-उतर रहा था वहीं मस्तिष्क में भी हलचल मची थी कि आख़िर रश्मि का चित्र इतनी जल्दी मन के फ्रेम में तैयार कैसे हो गया। इसने तो कभी प्रेम की कूची को देखा भी नहीं था। उसे गुस्सा भी आ रहा था। आख़िर मन ने उसके साथ छल किया। मन की अपनी उलझन थी। क्यों उसे ही झेलना पड़ता है भावनाओं का दर्द। क्यों उसी के हिस्से में आता है अकेले होने की तड़प।

मेरे मित्र अभिनव ने बताया था उसका नाम –“ रश्मि! अपने पड़ोसी गांव की है। क्या बात है जनाब परेशान से दिखते हैं!”-उसने बात की तह तक पहुंचने की कोशिश की।
मैंने गाते हुए से कहा था –
“साथी रे साथी..
याद तुम्हारी..
कहाँ से है आती..
और कहाँ को है जाती..
सुखी डाली मन की..
जाए झूलाती..!”
“बस.. बस.. बस.. जनाब सब समझ गया” - अभिनव ने कहकहा लगाया।
“यार मुझे उससे मिलना है..”
“तो मिल लेना..ऐसी भी क्या जल्दी है!”
“फिर से गीत सुनाऊँ क्या?”
“नहीं भाई! तू रहने दे, मैं समझ गया तुम्हारी बेताबी।“
“यार! जल्दी ही तो है, पूरी दुनिया खाली दिखती है उसको देखने के बाद। अब उससे मिलकर ही पूरी हो सकेगी। चाहे एक बार ही सही।“

अभिनव किताबों के अलावा दुनिया की ज्यादातर चीजों की ख़बर रखता था। वह मेरी स्थिति से भी अवगत था और उसके सामने आनेवाली मुश्किलों से भी। जिस देश में प्यार को छूआछूत समझा जाता हो, जहाँ लोग इसे बीमारी समझकर इससे डरते नहीं बल्कि भागते हों वहाँ दो प्रेमियों को एक जगह लाना कितनी टेढ़ी खीर थी यह अभिनव को भली-भाँति मालूम था। और यहाँ तो बात गांवों की थी जहाँ ऐसे मामले बातों से नहीं, गोली – बंदूकों से निपटाए जाते थे । उसने समझाते हुए कहा – “नहीं आयुष! तेरी खाली दिखने वाली दुनिया पूरी तरह भरी हुई है – लोगों की चौकस निगाहों से, बातों में अर्थ नहीं अनर्थ ढूँढ़ते कानों से। मिलना तो दूर अगर किसी ने सुन भी लिया तो तूफान आ जाएगा। जानता नहीं उसके दबंग बाप को तू।“

अभिनव के शब्दों ने मेरी बेचैनी और बढ़ा दी थी।

अधीर होते हुए मैंने कहा – "यार अभिनव! यह बता कि हमारे क्लास-टीचर कम दबंग हैं क्या? फिर भी मैं हर बार तुम्हें नकल करवा कर पास करवाता हूँ न?"
असर में आने लगा था अभिनव मेरी बातों की गम्भीरता से।
"परिक्षाएँ फिर से आयी हैं सर पर। ऐसे में तू पास न हो तो दुख तो मुझे भी होगा न..तू समझता क्यों नहीं भाई !"

बात अभिनव के समझ में आ गई थी। उसे पता था कि मैं ऐसी बीमारी से पीड़ित हूँ जिसका इलाज रश्मि की एक झलक से ही हो सकती है। मरता क्या न करता! अभिनव के लिए अपनी परीक्षा पास करना जरूरी था और मेरे लिए रश्मि से जल्द ही मिलना। अभिनव की प्रतिभा पर मुझे पूरा भरोसा था। इस भरोसे को तोड़ने का जोखिम वह नहीं ले सकता था, लिया भी नहीं।

अगली बार जब वह मिला तो चहकता हुआ मिला।
“रश्मि को भी तुम्हारा ही इंतज़ार था। आज से तीसरे दिन रविवार को उसे बाज़ार से थोड़ा पहले सड़क के बगल के बगीचे में मिलना। वह अपनी एक सहेली के साथ वहीं आएगी।“
दिमाग ने फिर चेताया था- “वहाँ तो काफी लोग आते-जाते होंगे, बदनामी होगी।“
“लोगों की तो आदत है दूसरों की ओर झांकने की, उनकी परवाह क्यों करना!”-मन ने प्रत्युत्तर में कहा था।
“पर इन बातों में उलझने की जरूरत ही क्या है? कहीं बात फैल गई तो…!”-दिमाग का डर उभर आया था।
“कभी किताबों की दुनिया से बाहर आते तब तो समझते कि प्यार भी कोई शै है!”-मन ने मजाक उड़ाया था।

दिमाग ने बहस करना उचित नहीं समझा। उसे वास्तविकता की समझ थी। वह जानता था कि उसपर सबकी आशाएँ टिकी थीं। सच था कि मेरे जीवन में पढ़ाई के अलावा किसी और बात के लिए सोचने की गुंजाइश ही कहा थी।
“मन तो कोमल है, इस घड़ी बावला हुआ जाता है। विद्रोह की संभावना है” – दिमाग चुप हो गया था।

***

रविवार का इंतज़ार करना मेरे लिए अब तक का सबसे मुश्किल काम साबित हो रहा था। मचलते मन ने हलचल मचा रखी थी। जैसे लहरों के उन्माद में सागर के किनारे भी अशांत होते हैं वैसे ही मन के उन्माद में मैं अशांत महसूस करता था।
ख़ैर, आते-आते रविवार भी आ गया। नाराज़ दिमाग़ को घर पर ही बिठा कर मैं मुदित मन के साथ निकल पड़ा एक अहसास को जीने के लिए। दिल के रास्ते में धड़कनों का तेजी से आना-जाना हो रहा था। किसी की आँखों में अपने-आप को देखने वाला था मैं। मन मेरा भागा जा रहा था उसी रास्ते की तरफ़ रश्मि जिधर आने वाली थी।
मैं बार-बार पीछे छूट जाता था। मन देखता कभी पलटकर, मुस्कुरा देता और फिर भागने लगता।
रश्मि के बारे में सोचता मैं भी चला जा रहा था। देखा- गंतव्य से थोड़ा पहले मन रूक गया था, पेड़ की टेक लगाए।
“थक गए क्या?”-मैंने पूछा।
“हाँ”-संक्षिप्त उत्तर दिया उसने।
“ठीक है, थोड़ा रूक जाते हैं, फिर चलेंगे। वैसे भी अब पहुंचने वाले हैं..”
“नहीं! अब हम नहीं जा रहे।“
“क्यों? रश्मि नहीं आ रही क्या?”- निराश होने लगा था मैं।
“वह तो आयी हुई है, देखो दिखती है यहीं से..”-मन विह्वल होकर बोला था।
“फिर क्या हुआ? क्यों परेशान करते हो बेचारी को? इंतजार कष्ट देता है, नहीं जानते! कहीं तू भी तो नहीं डर रहा उसके दबंग बाप से, दुनिया की बातों से? “
“जानता हूँ, लेकिन मिलने के बाद बिछड़ने का दर्द ज्यादा कष्टप्रद होता है और मैं नहीं डरता किसी के भी आप-बाप से..”-मन ने तुनक कर जवाब दिया। “एक बार मेरी बात का जवाब दे दो आयुष, फिर मैं तुम्हारे साथ रहूँगा।
“बिछड़ने की बात कहाँ से आ गई मिलने के पहले ही?”-मन के इस रवैये से मुझे चिढ़ होने लगी थी।
“तो क्या रश्मि के साथ जिंदगी बीता पाएंगे हम..” – मन के इस सवाल ने मेरे होंठ सील दिए थे।
थोड़ी देर शांति रही, फिर सोचपूर्ण भाव से मैंने कहा – “शायद नहीं।“
“शायद क्या, बिल्कुल नहीं आयुष! उम्मीदों के बोझ से दबी अपनी जिंदगी से क्या दे पाएंगे हम रश्मि को, इंतज़ार के सिवा। उसके सपनों, उसकी आशाओं को हम कुछ दिनों, कुछ महीनों तक अपने नाम पर ठहरा तो सकते हैं, परन्तु उसे मंजिल कभी नहीं दे पाएंगे आयुष! जरा सोचो!” मन आज मस्तिष्क की आवाज में बोल रहा था –“ वह बेचारी इंतज़ार के सिवा कुछ नहीं पाएगी हमसे। वर्षों के लिए बिछड़ने की तड़प देने से कहीं बेहतर है कुछ पलों, कुछ दिनों का इंतजार।“

मन ने गहरा मंथन किया था। मुझे भी नहीं बताया था। पर इस वक्त मन का यह रूप मुझे तड़पा रहा था। विचलित-सा मैं बोल उठा- “लेकिन रश्मि भी प्यार करती है मुझसे, उसे कितना बुरा लगेगा?”
“इसीलिए तो..”-मन ने खुद को काठ बना लिया था, - “जो तुम्हें प्यार करती है उसे जीवन भर तड़पने के लिए छोड़ना ठीक नहीं आयुष। वह पगली कुछ घंटे, कुछ दिन तुम्हारी राह देखेगी आते-जाते फिर यह समझ कर कि तुम उसे प्यार नहीं करते थे भूल जाएगी। बस बात ख़त्म। बहुत होगा तो तुम्हें मनचला समझ कर थोड़े दिन कोसेगी। पर बाक़ी जिंदगी तो चैन से गुजारेगी। किसी और के प्यार को स्वीकार करेगी।“

“और मेरा क्या होगा?”-मैंने पूछा।
“तुम खाली हाथ नहीं जा रहे आयुष। वह देखो रश्मि बार-बार इधर ही देखती है तुम्हारी राह। तुम जानते हो कि वह तुम्हें प्यार करती है। तुम अधुरे कहाँ रहे। तुम्हारा प्यार पूरा हो गया आयुष।“

बात सही थी। रश्मि की जिंदगी चैन से बीते और उसके सपने सजते रहें, इसके लिए मेरा उससे दूर रहना ही बेहतर था। वैसे भी मुझ गरीब के पास उसके प्यार की दौलत तो थी ही। मेरे जीवन का खर्च आराम से पूरा हो जाना था इससे।

दिल का काम भी पूरा हो चुका था। उसमें रश्मि के प्यार की खुशबू बस गयी थी।
रश्मि को अपने दिल के गहरे में छुपा कर मैं वापस मुड़ गया था। भारी हो चुके मन ने आँखों के रास्ते कुछ आँसू निकाल दिए ताकि वापसी की राह आसानी से कट सके।




चित्र desibucket.com से साभार.






8 टिप्‍पणियां:

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  2. प्रारंभ से लेकर अंत तक कहानी बहुत सुंदर है, बीच-बीच में लेखक नें बहुत सी सुंदर पंक्तियाँ लिखी हैं। यह कहानी शिक्षा भी देती है और पाठक को आनंद भी।
    एक स्थान पर रश्मि को गलती से ‘राशि’ लिख दिया गया है -“राशि को भी तुम्हारा ही इंतज़ार था। आज से तीसरे...”।

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  3. धन्यवाद और आभार आपका निशांत चौहान जी! हर्ष हुआ जानकर कि कहानी पसंद आयी। त्रुटि की तरफ ध्यान दिलाने के लिए आपका धन्यवाद! आशा है कि भविष्य में भी आपकी पैनी नजर इस तरफ बनी रहेगी।

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  5. धन्यवाद, शुक्रिया फारूक़ भाई। पसंद आया यह मेरे लिए ख़ुशी की बात है।

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