शनिवार, 31 दिसंबर 2016

मधु

हवा धूल से भर गयी थी। सांस लेना भी मुश्किल हो रहा था। लेकिन मेरा मन नहीं हो रहा था कि वहाँ से हिलूँ भी। किताबों के बीच मैं पूरी तन्मयता से बैठा था। समय की रफ़्तार में घिसटती ज्यादातर किताबें भी जैसे छीलकर पीली पड़ गई थीं। पर कुछ किताबें जस की तस बची हुई थीं। वही पन्ने, वही समाचार पत्रों वाली ज़िल्द। जैसे वक़्त ने उनसे दूरी बना ली हो। मैं हर किताब को उठाता,उसकी धूल झाड़ता, प्रारंभ से अंत तक उसके पन्ने पलटता और फिर वापस रख देता दूसरी तरफ़। नाश्ते के लिए सुबह से माँ ने दस बार आवाज़ लगा दी होगी। मैं हर बार ‘पाँच मिनट माँ’ कहता और वापस खो जाता। इस तरह तीन घंटे बीत चुके थे और अब किसी भी समय माँ का क्रोध कॉफ़ी के जैसा उबल सकता था जो काफी हो सकता था पूरे दिन की सेहत ख़राब करने को। उठने का वाज़िब विचार बन ही रहा था कि नज़र पुराने किताब की उस ज़िल्द से उलझ गई जिसपर एक नाम लिखा था – मधु। दरअसल गलती उस ज़िल्द की नहीं थी, बल्कि वह नाम ही ऐसा था जिसमें उलझकर मेरी दुनिया कभी उल्टी घूमने लगी थी। और अब इस समय मैं अपने आप को उल्टा घूमते हुए देख रहा था। उस किताब के पन्नों में दबी एक तस्वीर भी थी। मुस्कुराती हुई। वैसे तो उस समय के हिसाब से यह लाखों की थी पर अब इसका मोल सिर्फ एक याद भर रह गया था…
एक्सक्यूज़ मी!
मुझे लगा जैसे सपने में किसी ने पुकारा हो।
सुनिए प्लीज़!
ओह! माफ़ करना, मैं शायद नींद में था।
आप अपना फ़ोन देंगे? मुझे एक मिसकॉल करने के लिए..
मिसकॉल नहीं, पूरी बात कर लो आप… मैंने अपना फ़ोन बढ़ा दिया।
अबतक मेरी नींद जा चुकी थी। वैसे मुझे नींद बहुत कम ही आती है और बैठे-बैठे मैं कभी सोया होऊँ, ऐसा याद भी नहीं। मैं अक्सर सोचता था कि लोग कैसे सो लेते हैं बैठे-बैठे। वैसे अच्छा लगता है ऐसी नींद में होना। बिल्कुल हल्की नींद, जैसे बदन पर किसी प्योर सिल्क का कपड़ा। आपने पहना होगा तो समझ सकते हैं कितनी हल्की होती है। वज़न में जितनी हल्की, रखरखाव में उतनी ही भारी। तुरंत में क्रिच टूट जाती है, ठीक जैसे मेरी नींद टूट गई अभी।
सुबह की धूप अब अपनी किशोरावस्था में आकर आँखों में चुभने लगी थी। मींचती आँखों से वह दिख रही थी फ़ोन पर बातें करते हुए। थोड़ी परेशान-सी। सुबह के साथ उसकी कौन सी परेशानी शुरू हो गयी थी!
वैसे परेशानियों का कोई शेड्यूल नहीं होता। जब चाहेंगी तब आएँगी। बिल्कुल यादों की जैसी। न कोई मौसम, न कोई साधन। जब चाहे, जैसे चाहे आ सकती हैं। मैंने नज़रें हटा ली उसपर से। बेवज़ह ज़्यादा देर किसी की तरफ़ देखना ठीक नहीं। ख़ासकर जब उसे पता भी न हो। घास पर ओस की कुछ बूंदें अभी भी बाक़ी थीं। उतनी ही जितनी शायद क़दमों के नीचे आने से बच गई थीं। कुरकुरी धूप उसके चेहरे पर फैलकर चमक रही थी, मैंने फिर देखा उसकी तरफ़। अब वह रिलैक्स नज़र आ रही थी।
जिज्ञासा को आप दबा नहीं सकते, टाल सकते हैं। मैं भी टाल ही रहा था। पर न चाहते हुए भी भूल जाता और टल गई जिज्ञासा फिर आ खड़ी हो जाती। सवाल को टालने की कोशिश करना भी दरअसल उसे याद रखने की वज़ह बन जाती है। वैसे वे लोग कम बेचैन रहते हैं जो सवाल को भूलते जाते हैं। मेरे सामने अब वह सवाल बन टहल रही थी।
थैंक्यू वेरी मच! यूँ हैव सेव्ड माय डे।
जानकर खुशी हुई कि आपकी प्रॉब्लम सॉल्व हो गई। पर आख़िर हुआ क्या था? इफ़ यू डोन्ट माइंड…
मेरा फ़ोन गुम गया था.. पहली बार हँसी थी वह,… साइलेंट में रख दिया था घर में कहीं जबकि मुझे लगा कि मैं साथ लायी थी… बेकार में आपकी नींद भी ख़राब की।
अंजान ही सही पर किसी की हँसी की वज़ह बनना गुडफ़िल तो करा ही जाता है।
बेकार में ख़राब नहीं की मोहतरमा… बदले में आपने हँसी भी खर्च की है… देखिए पत्तों पर मुर्झाते ओस को…आपकी नज़ाकत ने फिर से नयी चमक दी है इन्हें...
अच्छा जी! मतलब आप बातें भी बनाते हैं!
नहीं जी! मैं तो बस सच्चाई सुनाता हूँ।
… और सच्चाई सुनाने की तैयारी में पार्क में सो जाते हैं। वह खिलखिला उठी।
हा.. हा.. हा… दरअसल सुबह-सुबह दूब पर चलते हुए मैंने पार्क के कितने फेरे लगा दिए थे मुझे पता ही नहीं चला। जब थक कर बैठा तो आँख लग गई, ग़लती यहाँ की हवा में थी जिसने थोड़ी तसल्ली बख़्श दी।
वैसे सुबह-सुबह घास पर चलना सुक़ून देता है.. मैंने जूत्ते पहनते हुए कहा.. आप भी आज़मा सकती हैं।
जरूर! परसो से ट्राई करूँगी।
कल को बाईपास करने की कोई ख़ास वज़ह?
जी, कल मैं घर जा रही हूँ तो परसों..
ओह! समझा।
चलो आप से मिलकर खुशी हुई। और अपने फ़ोन को मेरा हल्लो बोलना… हँसते हुए कहा मैंने।
जरूर बोल दूँगी, अगर आप मेरे साथ नारियल पानी पीने तक चलोगे।
वह बेतकल्लुफ़ नहीं होना चाहता था। वह मुड़ना चाह रहा था यहीं से बिना किसी औपचारिकता के। क्या हो जाएगा.. नारियल पानी के बिना ही अपने रास्ते निकल चलें। जैसे कुछ देर पहले थे, अंजान – अजनबी फिर वही रह जाएंगे। बीच के लम्हों को एक नारियल पानी कितना तान पाएगा। हर बात की कोई न कोई हद तो होती ही है। परन्तु उसकी आँखें बेहद बातूनी थीं। रोक रही थीं न कहने से।… (क्रमशः)


चित्र :सांकेतिक