शनिवार, 30 जुलाई 2016

शब्द-दर्पण - 3

समय के पास एक कंधा होता है इंतजार का। कभी इस कंधे पर कुछ देर सर रख लेता है मन कि अहसासों को थोड़ा आराम मिल जाए । जैसे एक झपकी का फासला कभी-कभी दिलो-दिमाग को फिर से सोचने लायक बना देता है। इधर ढ़लती रात-सी बेचैनी विलीन हो जाना चाहती है उजली सुबह-सी सुखद अहसासों में। उधर परिंदों के पंखों पर सवार होकर रात निकल जाना चाहती है दूर कहीं चुपचाप यह सोचकर कि सवेरा थाम लेगा उसकी स्याह सायों को। जबकि रात को चाहिए होता है साथ अंधेरों का। मगर यह देखकर कि परिंदों ने बसाया हुआ है सपनों का आशियाना, बस मुस्करा देती है रात। वैसे भी रात बनी है सपनों को सम्हालने के लिए, तोड़ कैसे दे।
 दूर कहीं बिजली की एक नन्ही चमक छिटकती है अपने प्रकाश - दल से और अंधेरों को जगाती हुई बिल्कुल पास आ जाती है। जैसे चाहती हो चूमना रात की उदासी को। पर रौशनी की एक हल्की लकीर खींचते हुए खो जाती है उसी अंधेरे में कहीं। थोड़ी देर के लिए अंधेरों में चलती तन्हाई रौशन हो जाती है। और फिर से सबकुछ पहले जैसा हो जाता है - शांत।
मगर गहराती हुई शांति कभी डरावनी भी हो जाती है, ऐसे में अंधेरे को ओढ़कर मन ढ़क लेता है खुद को और यादों की ड्योढ़ी में रात चुपचाप ताकती रहती है किसी अलसाये प्रहरी – सा। पास किसी पेड़ के पत्ते हवा के छेड़ने से मचल उठते हैं और वीरान खामोशी मौका पाकर जरा खाँस लेती है किसी मरीज के जैसा। रात के दरवाजे पर दस्तक सी होती सुनाई पड़ती है और इधर करवट बदलता हुआ मन डर के घोंसले से बाहर देखता है झांककर तारों की ओर जैसे नाप रहा हो लंबाई रात की। वैसे भी अब तक तन्हाइयों ने काफी लंबा सफर तय कर लिया होता है। बस जरूरत होती है भागती नींद के किसी टुकड़े को खिड़की से खींचकर ख़ुद में समेट लेने की जबतक कि रात की नमी पिघलकर सुबह की रौशनी से चमकने न लगे।
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