शनिवार, 23 जुलाई 2016

शार्टकट समाधान

छोटी-सी बात से शुरू हुआ विवाद झगड़े की शक्ल लेकर खून-खराबे तक पहुंच चुका था। सैकड़ों की भीड़ भी जुट गई थी मगर बीच – बचाव करना उनमें से किसी को नहीं आता था । भीड़ को ऐसे तमाशे की आदत होती है देखते रहने की। गुस्से का ईंधन खत्म होने तक दोनों पक्षों में से कुछ की नाक टूट चुकी थी, कुछ का सर फूट चुका था और जो बच गए थे वे अपने होश दुरूस्त करने में लगे थे। लाठी-डंडे अपना हुनर दिखा चुके थे, अब उनका बाहर रहना कोई जरूरी नहीं था।। भीड़ भी लगभग चौथाई हो चुकी थी। उस चौथाई के एक अच्छे हिस्से में हलचल हुई और कुछ लोग आगे आए। उनके लिए दोनों पक्षों के घायल एक-समान थे। उनके सहयोग से घायलों ने अस्पताल में जगह पायी और बाकियों ने थाने की राह पकड़ी। अस्पताल का बिल तो कम निकला लेकिन थाने की ‘फीस’ ने दोनों पक्षों के सलामत लोगों के तबीयत भी बिगाड़ दिए। पक्षवार ‘फीस’ इस प्रकार थी-
पाँच हजार – बड़ा बाबू की सलामी के,
एक हजार – मुंशी जी का नजराना
और बाक़ी संतरी आदि के लिए खुशीपूर्वक जो दे दें।
उनके चेहरे के उड़े तोते देखकर एक संतरी को दया आयी और उसने एक सुझाव दिया। नतीजा यह हुआ कि थाने के एक कोने में ही कुछ देर पहले तक एक-दूसरे के खून के प्यासे लोगों ने साथ बैठकर शांतिपूर्ण तरीके से सोचने का फैसला किया। निष्कर्ष निकला कि लड़ाई बहुत खर्चीली होती जा रही है। जब शुरूआती क़ीमत इतनी बैठ रही है तो आगे जाकर जमानत, कोर्ट – कचहरी और तारीख़ो के झमेले इसकी क़ीमत बढ़ाते ही जाएंगे। उनकी समझ से लड़ाई सस्ते में ही ख़त्म करने में सबकी भलाई थी।
अंत में, मुंशी जी की मुट्ठी में हज़ार के दो नोट देकर और बड़ा-सा अहसान-बोध लेकर दोनों पक्षों ने आपसी समझौते की पावती प्राप्त कर ली। सबने इस नेक राय के लिए अच्छे दिल वाले संतरी का शुक्रिया अदा किया और लौट चले। वापसी में सारे लोग इस बात पर एकमत थे कि इतने कम समय और पैसे में  इससे बेहतर समाधान निकलना मुश्किल था।


4 टिप्‍पणियां:

  1. एकदम सटीक कहानी वर्तमान के परिप्रेक्ष में

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  2. इसे मैं सोद्देश्य व्यंग मानूं या प्रासंगिक कहानी?

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  3. इसे आप दोनों रूपों में ले सकते हैं निशांत जी! वैसे भी कोई कहानी पाठक के पास किस रूप में जाए, इस बात का अधिकार पाठक के पास ही रहना चाहिए।

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