शनिवार, 27 अगस्त 2016

धनेसरा~एक गांव की कहानी

रौल नम्बर एक??
- उपस्थित श्रीमान!
रौल नम्बर दो??
- प्रजेंट सर!
तीन??
- यस सर!



सत्ताईस??
- प्रजेंट माटसा!
रौल नम्बर सत्ताईस!!?
- प्रजेंट माटसा!
मास्टर साहब ने पहली बार रजिस्टर से इतर नज़र घूमाया। उनकी नज़रों ने एक बार पूरी क्लास का उपरी सर्वेक्षण किया और अंत में बीच वाली कतार की तीसरी बेंच पर जा कर ठहर गई। सिकुड़ा – सिमटा-सा एक लड़का बैठने की अवस्था में पहुँचते-पहुँचते वापस सीधा हो रहा था।
“बड़ी लम्बी छुट्टी लगाया है रे धनेसरा?”
मास्टर साहब ने चश्मा उतारकर टेबल पर रखने से पहले उसे विशेष अंदाज में दो बार आगे और दो बार पीछे झूलाया। मास्टर साहब के विशिष्ट अंदाज़ से सब समझ चुके थे कि धनेसरा लम्बा नपने वाला है आज! अब पूरा क्लास सावधान से विश्राम की मुद्रा में वापस आ गया था। कुछ तुफ़ानी होने वाला है!
मास्टर साहब सधे कदमों से चलते हुए पहुँच चुके थे उसके पास। धनेसरा ने कभी यमराज नहीं देखा था बस दादी की कहानियों में उसका ज़िक्र सुना था। उसे लगता था कि अगर यमराज होंगे तो होंगे बिल्कुल मास्टर साहब के जैसा ही। न उन्नीस, न ही इक्कीस!
मास्टर साहब ने ग़ौर से मुआयना किया – “बीमार तो कहीं से तू दिखता नहीं,… तो का कर रहा था फिर एतना दिन से…”
धनेसरा को समझ में नहीं आया कि वह क्या जबाव दे। जबाव अगर मास्टर साहब के गुस्से में घुसकर उसे पिघलाने के बज़ाय और कठोर कर गया तो फिर उसकी ख़ैर नहीं। उसने सूखते होठों को जीभ फिराकर फिर से गीला किया।
“हल जोत रहा था का रे?”
इस बार मास्टर साहब की आवाज चढ़ी हुई लग रही थी। उनके गुस्से की भठ्ठी धनेसरा की चुप्पी से और धधक उठी थी।
उसे लगा मास्टर साहब तो सब पहले से ही जानते हैं। उसे याद आया कि सुबह ही उसने हीरा-मोती को पईन वाले खेत में छोड़ कर आया था। आज आखिरी जुताई थी और कल रोपाई के साथ इस बार की चिंता भी कम हो जाएगी। अच्छी बारिश के कारण इस बार लगभग सभी खेतों में रोपाई हो गई थी। फसल अच्छी होने के आसार थे। सोचते हुए धनेसरा खूश हो गया।

“अब बोलेगा कुछ कि उतारे तोहर आरती हम?”

मास्टर साहब की उबलती आवाज ने धनेसरा को धान के खेतों से उठाकर वापस क्लासरूम पहुँचा दिया।
उसे हल में जुते हुए बैल याद आ गए। उसे लगा कि बैलों की जगह वह जुता हुआ है और कभी भी उसकी पीठ पर हलवाहे का डंडा पड़ सकता है। उसे अपनी पीठ मुलायम होती महसूस होने लगी। उसका दिल धाँय-धाँय धड़क रहा था। आज तो पिटाई पक्की है। यमराज के चंगुल से भी मुक्त हो सका है भला कोई! उसे दादी की बातें सच लग रही थीं।

वैसे तो मास्टर साहब इतिहास के टीचर थे लेकिन भूतकाल के बेतरतीब बिखरे तारीखों को याद रखने की ज़हमत वह नहीं उठाते थे। वैसे भी attendance और दिन-दुनिया की ताज़ा ख़बरों को update करने के बाद अक्सर पीरियड छोटी ही पड़ जाया करती। जब कभी उन्हें इतिहास का एक टीचर होने की याद आती तो खड़ा कर देते किसी को किताब के साथ। जब तक कोई सन् 1857 की क्रांति के कारणों पर प्रकाश डाल रहा होता उतनी देर तक मास्टर साहब सुबह की छूटी हुई नींद पूरी कर लेते। कभी – कभी गहरी नींद का उनका सफ़र घंटी की टनटनाहट को भी अनसुना कर जाता। तब कोई बहादुर बच्चा जान पर खेलकर उनको जगा देता। वैसे क्लास को इसमें कोई परेशानी भी नहीं थी, बल्कि उनकी किताबों को और एक पीरियड का एक्सट्रा आराम मिल जाता था। इतिहास की किताबें और कॉपियाँ नयी की नयी रह जातीं, सो अलग।
पर हाँ, मास्टर साहब को अनुशासन की लाइन पार करना कतई पसंद नहीं था। धनेसरा को याद था पिछली दफा जब रविन्दर ने इतिहास की तारीखों के साथ छेड़छाड़ करते मास्टर साहब की याद्दाश्त को दुरुस्त करने की कोशिश की थी। ऐसी सेकाई हुए डंडे से कि बेचारा रविन्दर अभी तक अपनी हिम्मत दुरूस्त न कर पाया।
“आज तो गया धनेसरा…”
“हाँ, साले की आज अच्छी मरम्मत होगी…”
“जरूरी भी है बहुत तेज बनता है…” खुसर-फुसर करते अन्य बच्चे बोर हुए जाते थे। मास्टर साहब की गै़रजरूरी ज़िरह लंबी जो खींच रही थी।
जैसे फिल्म शुरू होने के पहले दर्शकों को ‘धुम्रपान-निषेध’ के विज्ञापन में कोई रूचि नहीं होती वैसे ही क्लास के बाकी बच्चों को मास्टर साहब-धनेसरा संवाद में कोई रूचि नहीं थी। उन्हें लग रहा था कि बेकार में मास्टर साहब फिल्म को लंबा खींच रहे हैं। उन्हें तो इंतज़ार था कि कब मास्टर साहब के गुस्से का पारा उबले और डंडे की चोट पर धनेसरा शुरू कर दे नाचना….।
मास्टर साहब की पिटाई से बचाव के जो दो-एक (अघोषित) कारण सार्वजनिक थे, उनमें खेती-किसानी में परिवार की सहायता करने वाले कारण का दूर – दूर तक कोई ज़िक्र नहीं था। वैसे भी खेती-बाड़ी पढ़ लिख चुकने के बाद ही किया जाए तो शोभा देता है-ऐसा मास्टर साहब हमेशा कहते थे।
उसने कनखियों से मास्टर साहब की ओर देखा। दायें हाथ में लिए हुए डंडे को धीरे – धीरे बायें हाथ की हथेली पर बजा रहे थे। उसे लगा अब उसके पीठ और पिछवाड़े पर बजने का समय आ चुका है। यह बात पूरे स्कूल के बच्चों को मालूम थी कि पानी उबलने की सीमा सौ डिग्री सेल्सियस से आगे बढ़ सकती है पर मास्टर साहब के गुस्से का पारा उबल कर बिखरने में पाँच मिनट से ज्यादा लगने की कोई गुंजाइश नहीं होती।
उसने आशापूर्ण बेचैनी में दरवाजे की ओर देखा। आशा की हल्की-सी किरण भी नहीं थी।
उसने आख़िरी बार जोर से थूक गटका और बोलने के लिए शब्दों को गूंथ ही रहा था जबान से कि बाहर एक शोर सुनाई दिया। कुछ बच्चे दौड़ते हुए दरवाजे पर आकर ठहर गए।
“माटसा! आपकी गैय्या…”
मास्टर साहब जैसे सोते से जागे।
“क्या हुआ रे बबुआ! गैय्या को?”
“माटसा! खूंटे के साथ भाग निकली है…”

न चाहते हुए भी सबकी हंसी छूट गई। मास्टर साहब के गुस्से का बैलून फुस्स हो गया था। उनकी गैय्या अगर एक बार खुल गई तो फिर सड़कों के कितने चक्कर लगवाएगी यह स्कूल में सभी को मालूम था। मास्टर साहब के लिए यह किसी आपदा से कम नहीं होता था। इससे पहले कि वह बाहर की ओर दौड़ लगाते (जो कि संभव नहीं था उनके लिए) धनेसरा ने पहली बार बोला – “माटसा! मैं जाता हूँ आप टेंशन मत लीजिए। वैसे भी दूर चली गई होगी आपसे पकड़ में नहीं आएगी।“
“हाँ बेटा! जल्दी जाओ।“
“पर माटसा! हाज़िरी वाली बात… मैं दरअसल…”
“अरे बेटा! कोई बात नहीं, बाद में बता देना…”
धनेसरा ने उड़ती नज़र क्लास के बाकी बच्चों पर डाली और दौड़ लगा दिया।

बरामदे से गुजरते हुए उसने एक दूसरी क्लास में झाँक लिया। सपना बाहर से जाकर अपनी सीट पर अभी बैठ ही रही थी। उसने दूर से ही आवाज दी – “ऐ सपना! आज फिर तेरी गैय्या भाग गई है, जा रहा हूँ पकड़ लाने।“
सपना मास्टर साहब की बेटी थी। वह धीरे-धीरे हँस रही थी। धनेसरा भी हँसते हुए दूर भाग गया। उन दोनों के अलावा कोई नहीं जानता था कि गैय्या हमेशा ऐन मौके पर ही क्यों भाग जाती है!



चित्र : सांकेतिक।



3 टिप्‍पणियां:

  1. शानदार
    ज़बरदस्त
    ज़िंदाबाद
    सरकारी स्कूल और शिक्षक का वास्तविक वर्णन है इसमें
    एक बार फिर से आपने ग़दर मचा दिया है

    जवाब देंहटाएं