बुधवार, 29 जून 2016

शब्द-दर्पण

कभी लहरों पर हिचकोले खाती तो कभी किनारे की रेत को गले लगाती नाव की तरह। जिंदगी का यही आलम  है। जैसे अनमने भाव से उठते कदम निकल पड़ते हैं कहीं बिना आगे की राह देखे। कि चलो निकलते हैं… आगे देखेंगे किधर जाना है। और वहाँ तक बिना सोचे तो जा ही सकते हैं राह जहाँ तक मुड़ती न हो। जैसे एक लहर उठती है यादों की और पहले से उठी, शांति की ओर जाती पुरानी लहर को भी मिला लेती है कि सतह की हलचल कम न हो।
मैं देखता हूँ अक्सर डाल से टूटकर बिखरी हुईं फूलों की रंगीन बनावट, धरती की सतह पर। फिर सोचता हूँ कि क्या तुम्हारे होने से यह दृश्य दूसरा होता! या कि धरती फिर भी चूम रही होती नियति के मारे पंखुड़ियों को। भले ही सजी लगती भूमि मगर शाखों का दर्द तो तब भी उतना ही रहता।  तो तुम्हारे होने या न होने का फ़र्क उन फूलों की बदकिस्मती पर जरा भी नहीं पड़ता। पर जबकि नजरों के आगे तुम रहती तो यह संवेदना भी कहीं दूर बसी होती। किसी पत्ते की ओट से देखती पर मन अंजान बना रहता।
अब देखो न, तुम्हारी ही रंगत लिए एक और शाम आयी थी आज। झेंप गया था कि क्या कहूँ उसे कि जिसकी रंगत का असर था शाम पर उसने ही उगा कर रखा है कांटे दरो – दीवार और कालीनों पर यहाँ की। फिर भी अरसे से जमी धूल को झांड़ते हुए मैंने दिल का एक कोना बढ़ा दिया उसकी तरफ कि अनचाहे अतिथि के जैसे ही पर थोड़ी आवभगत तो करनी ही पड़ेगी। और फिर अपने होंठों के उजड़े फूलदान में हंसी की एक मुर्झायी डाली रख दी। हल्की-सी खुशबू ने शाम का स्वागत किया अनमने होकर। और इसके पहले कि शाम बेतकल्लुफ होकर पसर जाती मैंने इशारों में जता दिया- शाम! ठहरना है तो ठहरो कि घड़ी अभी आयी नहीं मेरे मदहोश होने की। कि दर्द की प्याली अभी सजनी बाक़ी है रात के सेंटर टेबल पर।

2 टिप्‍पणियां:

  1. बहुत ही सुंदर लिखा है, प्रारंभ में लिखी पंक्तियां विस्मयकारी हैं और इसका अंत तो हृदय को स्पर्श करने वाला है। पहली बार पढ़ने पर थोड़ा उबाऊ सा लगा किन्तु दूसरी बार ध्यान से पढ़ा तो लेखक की लिखी बाते पल्ले पड़ी।

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  2. धन्यवाद आपका निशांत जी! हर्ष हुआ जानकर कि पसंद आयी आपको यह प्रस्तुति।

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