शनिवार, 11 नवंबर 2017

ये कैसी मज़बूरियों में मिले हैं हम
कि पास होकर भी दूरियों से घिरे हैं हम

हम जिनके प्यार में होते हैं,
कितने कम अक्सर हम उनके पास होते हैं।

ये भी है कि चाहे – अनचाहे हमें दूरियों में जीने की आदत हो जाती है। मज़बूरियों को गले लगाने की आदत हो जाती है।
सप्ताह के कार्यकारी दिनों में उससे घंटे भर की बात भी नहीं हो पाती। कभी उसका रूठना मिस हो जाता है, कभी मनाना, कभी हँसना – खिलखिलाना। देर शाम मेरे आते – आते अगर वह जगी रही तो दरवाज़े पर ही खड़ी होगी। ज़्यादातर दिनों में हद – से ज़्यादा ख़ुशी बिखेरती हुई, कभी, किसी दिन थोड़ी नाराज़गी दर्शाती हुई। दोनों ही परिस्थितियों में वह मेरी जान होती है। और जिस दिन सो गयी तो आकर उसके पास बैठ जाना ही बचता है बस । तब यूँ लगता है मानो ज़िन्दगी दिन भर उथल – पुथल मचा चुकने के बाद किसी शांत नदी के किनारे आ बैठी है।


आज की सुबह नींद आँखों में बहुत बची हुई थी जब उसने मुझे खींचकर जगा दिया। फिर नन्ही – नन्ही कोमल ऊँगलियाँ बालों में फिराती हुई बोली – “पार्क चलोगे!”
नींद खुल गयी।
मैंने अधखुली आँखों से देखने की कोशिश की। पर अधखुली आँखों से देखना, उसे अधूरा देखना होता है। मैंने पूरी आँखों से उसे देखा। उसकी आँखों में वात्सल्य पूरी धार से बह रहा था । मैंने कहा – “चलते हैं!”


बच्चों को ठहराव पसंद नहीं।  वे हमेशा बहते रहना चाहते हैं अपनी पूरी ऊर्जा से। दौड़ना – भागना। झूलना – उछलना और दिख गयीं तो फिर मछलियों की आँखों में देखते रहना। फ़ालतू के कामों के लिए उनके पास कोई समय नहीं होता। वे बड़ों के काम हैं । जैसे ओस से भरे आकाश में बड़े होते सूर्य को देखना। जैसे आबोहवा में रेशमी किरणों का पसरते जाना। जैसे बालों पर फिसलती रश्मियों को फ़ोटो में समेटने की कोशिश करना।
और वो क्रोधित हो जाती है –  “पापा मुझे परेशान ना करो, मुझे मछलियाँ देखनी है, गोल्डन कलर वाली, देखने दो न..”
उसे क्या पता कि समय की रफ़्तार उसे एक दिन झूलों, मछलियों और मस्तियों से निकालकर बड़ी कर देगी, मुझसे दूर खड़ी कर देगी। फिर यह सेल्फ़ी ही तो साथ रहेगी न सोना…!



रविवार, 5 नवंबर 2017



“आरज़ूएँ भी रास्तों जैसी होती हैं
अपने अनगिनत मोड़ों से ज़िंदगी को घूमाती रहती हैं ।”
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कई बार कोशिश करने के बाद भी वह हिम्मत नहीं जुटा पा रहा था । वह नज़रें उठाता , तस्वीर की ओर देखता और वापस नज़रें झुका लेता । दो मिनट सोचता और पहले से बनाया हुआ व्हिस्की का पैग होठों से लगाकर अंदर कर लेता। फिर सिर को सोफ़े की पुश्त से लगाकर आँखें बंद कर लेता । ऐसा वह पिछले आधे घंटे से कर रहा था । इस कोशिश में वह आधा ख़त्म कर चुका था । वह ऐसी कोशिश पिछले रात से ही कर रहा था और देर रात तक करता रहा था । लेकिन, सफल नहीं हो पाया । सुबह जागने के बाद से वह फिर उसी कोशिश को दुहरा रहा था । उसे ज़ल्दी-से निकलना भी था । उसके दोस्त और रति आ भी चुके थे । उसने घूमती आँखों से देखा, नौ बजने ही वाले थे । उसने तस्वीर से झाँकती पिता की ओर फिर से देखा... गिलास हाथ में उठाते हुए उसके हाथ काँप रहे थे ...।  आख़िर पिता से आँख मिलाये भी तो कैसे... !
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कोई बारह साल पहले उसने तय किया था कि टिना के बाद वह और किसी से प्यार नहीं करनेवाला । उसने बताया था, कि ऐसा किसी मोहब्बत के अंधे ज़ुनून में तय नहीं किया गया था । उसे लड़कियों से नफ़रत हो गयी थी...ज़िंदगी बेज़ार बन गयी थी ....या मोहब्बत का दर्द बहुत ज़्यादा था...दिल ऐसा टूटा था कि दोबारा जुड़ना सम्भव ही नहीं था , ऐसा भी नहीं था । बस उसने तय कर लिया था। उसे ऐसे झंझट में फिर से पड़ना पसंद नहीं था, बस । देखा जाए तो दूनिया की इतनी बड़ी विविधताओं में उसके फ़ैसले का एडजस्ट हो जाना कोई बड़ी बात भी नहीं थी । गिने-चुने मित्रों और परिवार वालों के अलावा और किसके कानों पे ज़ूएँ रेंगतीं ! वैसे भी 21वीं शताब्दी का कुछ तो असर होना ही चाहिए था। एक बंदा जो प्यार का मारा हो उसे इतनी तो आज़ादी होनी ही चाहिए कि वो एक जनम कुँवारा रह सके । सबने उसके फ़ैसले को क़ुबूल कर लिया , सिवाय उसके पिता के । पर एक अकेला पिता प्रेम में ठुकराये हुए प्रेमी के सामने कब तक टिकते । वो भी नये ज़माने के ही आदमी थे , जानते थे - पगलाया हुआ हाथी और आवारा आशिक़ क़ाबू में नहीं आते हैं ज़ल्दी । समय के हिसाब से सुधरा तो ठीक वरना भगवान मालिक !
बीच – बीच में पिता अपनी ममता से मज़बूर बेटे को मज़बूर करने की कोशिश करते रहे , लेकिन बेटे ने मज़बूर न होने की ठानी थी , कैसे मानता । नतीज़ा यह हुआ कि पिता खुद उमर के हाथों मज़बूर हो एक दिन दुनिया से उठ गये । हाँ , यह भी जानना होगा कि उसकी माँ तो पहले ही स्वर्गवासी हो गयी थी । कुछ इंसानों में ज़िद वाला कीड़ा ज़्यादा ही हलचल मचाता रहता है । सामने से अगर कोई बोलने वाला , समझाने वाला हो तो और ज़्यादा । उसकी भी कुछ ऐसी स्थिति थी । जब तक पिता समझाते रहे , यार दोस्त मनाते रहे उसने ज़्ररा भी ध्यान नहीं दिया । आख़िर वक़्त भी कब तक इंतज़ार करता । दनादन दस-बारह साल गुज़र गए ।
इन गुज़रते सालों ने उसके जिस्म पर अपने कई निशान छोड़ दिए थे। मसलन, आँखों के नीचे की त्वचा में दिखने लायक सिकुड़न आ चुकी थी , चेहरे पर हल्की छाइयाँ जम गयीं थीं और कभी काले रहे बालों में सफ़ेदी के अनगिन रेशे बहुमत से झाँकने लगे थे । 
सर के बाल तक तो फिर भी ठीक थे , पर जब मूँछों पर सफ़ेदी मिक्स करता हुआ समय उसकी छाती पर भी अपना ब्रश फेरने लगा तो फिर घबराया हुआ वह अपने दिल-दिमाग़ से टिना-प्रकरण के बाद वाली स्थितियों की तह तक जाने की बात पहली बार सोचने लगा । अन्तत: काफ़ी गहन सोच-विचार के बाद उसने  अपनी भीष्म-प्रतिज्ञा की दोबारा समीक्षा करने की सोची । कारण का तो ठीक-ठीक पता नहीं पर शायद ऐसा हुआ होगा कि धीरे –धीरे वक़्त बीतकर जब वर्षों में जमा होने लगा हो , उम्र हाथ से फ़िसलने लगी हो और अकेलेपन की तेज़ गर्मी जब ज़िद की बर्फ भी पिघलाने लगी हो , तो उसने हाथ- पैर मारना शुरु कर दिया होगा । 
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डूबते को तिनके का सहारा । यहाँ तो किनारे पर कितने लोग खड़े थे उसे अपनी तरफ़ हाथ बढ़ा कर खींचने को। यार राज़ी है ब्याह रचाने को, यह बात बिना लाउडस्पीकर के ही गली – मोहल्ले से निकलकर हर तरफ़ फैल गई। साईड हो गये दोस्तों ने फिर से उसकी ज़िंदगी बसाने का ज़िम्मा उठाया । अनुभवी दोस्त थे , दुनिया देखे हुए । आख़िर रास्ता निकाल ही लाये । रास्ता थी रति। 
रति वैसे तो 30 साल की ही थी पर एक प्रॉब्लम की मारी हुई थी । प्रॉब्लम क्या प्यार की ही मारी हुई थी । १४ साल की उम्र में इश्क़ कर बैठी थी । इश्क़ भी ऐरा-गैरा, नत्थू – खैरा वाला नहीं , मरने –मारने वाला , बल्कि यूँ कहिये , सबकुछ छोड- छाड़कर भाग जानेवाला । बाद में 25 साल की रती को जब ट्रेन के नीचे जाते समय संजोग से पकड़ लिया गया तो पता चला वह तीन बच्चों की माँ भी है । जगह दिल्ली थी । आगे पता चला , कि 5 साल पहले उसका प्रेमीपति बिना बताये भाग गया था । तब से वह अपनी मुक्ति का ही इंतज़ार कर रही थी । मुक्ति तो मिली नहीं , पर हाँ कुछ समाजसेवी संस्थाओं की सहायता से वह फिर से अपनी ज़िंदगी को जीने के लिए तैयार हो गयी । 
 दोस्तों ने रति को उसके पास लाने का फ़ैसला किया। आधे घंटे और कैफ़े कॉफ़ी डे की आधी कॉफ़ी ख़त्म होते – होते दोनों ने मुस्कुरा कर बाहर इंतिज़ार कर रहे यारों को सिग्नल दे दिया। जब दोनों ने सहमती दे दी तो दोस्त लोग समझ गये कि दोनों को अकेलेपन से मुक्ति मिल गयी है । तुरन्त ही मंगनी की रस्म पूरी हुई और केक कटिंग सेलिब्रेशन के बाद आज की तिथि तय कर दी गई । यह महीने भर पहले की बात है। 
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उसने पिता की तस्वीर को अपने मोटे शीशे वाले चश्मे के पीछे से देखा । पाँच मिनट तक देखता ही रहा । फिर टेबल पर रखी रती की तस्वीर उठाकर एक नज़र देखा और उठ खड़ा हुआ । दस सेकेंड तक अपनी चढी हुई आंखों को फोकस पर वापस लगाया और बोला – 
    “हाँ , शर्मिंदा हूँ मैं ...पर हँसो मत...बारह साल बाद ही सही पर अकल आयी तो । अब जबकि अकल आ गयी है तो क्या मैं शर्मिंदा होने के डर से , आपसे आंखे मिलाने के डर से बैठा रहूँ यूँ ही । उमर देखी है मेरी , 45 का हो गया हूँ मैं । सारे दोस्त-यार के बच्चे सायकल छोड़कर बाईक पर बैठने लगे हैं ...और मैं हूँ कि ...। अरे टिना भी दो बड़े बच्चों की माँ बन गयी अब, और कितना इंतज़ार करूँ उ..स..का...। 
वह बोलते-बोलते रुक गया । उसे लगा उसकी चोरी पकड़ी गयी । उसके पिता अगर जीवित होते तो इस उम्र में भी उसकी धुनाई किए बिना नहीं छोड़ते ।  दोस्त अगर सुन लेते तो दौड़ा – दौड़ा कर पीटते । कहाँ तो कहा करता था कि शादी न करने के फ़ैसले में टिना का कुछ भी नहीं लेना – देना और साले ने ज़िंदगी के 15 साल उसकी याद ही में काट दिए...। बीमारी उसके दिल में थी और इलाज़ वह ज़िंदगी की कर रहा था और वह भी एक्सपायरी की दवाईयों से !  पगले ने अपने बीमार दिल को ज़रा-सा सम्हालना था और दिमाग़ थोड़ा-सा दौड़ाना था, कब का पता चल जाता उसे कि जिस टिना के इंतज़ार में वह बैठा हुआ है वह न्यूयॉर्क के किसी उपनगर में अपने पति और बच्चों के साथ दस साल पहले ही शिफ़्ट हो गयी है…।
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उसने ज़्यादा देर करना ठीक नहीं समझा । गिलास को मुँह में उड़ेल कर बची हुई कड़वाहट को ख़त्म करने के बाद उसने ज़ल्दी से पिता की तस्वीर को प्रणाम किया और बाथरूम में घुस गया । फ़टाफ़ट तैयार होकर कोर्ट के लिए निकलना जो था । रती अपने बच्चों और उसके दोस्तों के साथ  कोर्ट के बाहर इंतज़ार कर रही थी ऐसे में वह भी देर नहीं करना चाहता था । ख़ुशी अरसे बाद आनेवाली थी, वह पूरी चाहत से उसके गले लगना चाहता था।

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गुरुवार, 29 जून 2017

प्यार की उम्र शायद क़रीब आ रही है..

बरसात का मौसम आ चुका है। सारी धरती हरियाली से सजी है और आकाश मेघों से। पेड़- पौधे बौराये से दिखने लगे हैं। पत्तों पर टप-टप गिरती बूँदों के बीच से दिखते पक्षी मस्त जान पड़ते हैं, मानो अपने – अपने घोंसले में सपरिवार वर्षा का आनंद उठा रहे हों। धरती पर नये – नये उगे घास- पात किसी नवयौवना के गालों पर उगे रोएँ से चमकते हैं। कह सकते हैं कि ऋतु-चक्र का सबसे महत्वपूर्ण पड़ाव बरसात हमारे मन में हलचल भरता जा रहा है।

बरसात का मौसम है ही ऐसा मनोहर कि क्या पशु-पक्षी,क्या पेड़ -पौधे, क्या इंसान और क्या धरती, सब मदमस्त हो जाते हैं। और इन सबकी ख़ुशी का कारण आसमान में छाये बादल होते हैं। ये बादल दिखने में जितने भी स्थूल लगे, होते बहुत ही कोमल और हल्के हैं। ऊँचे पर्वतीय इलाक़ों में भ्रमण तो इनके मिलने के बिना पूरा ही नहीं होता। ऐसे ही एक पर्वतीय क्षेत्र में जब हमलोग पहाड़ों से गुज़र रहे थे तो अचानक आँखों के सामने धुँध जैसा छाया और देखते ही देखते हम सब बादलों से बातें कर रहे थे। 

संस्कृत में बादल के बहुत सारे पर्यायवाची शब्द दिए गए हैं जैसे – जलद, नीरद, पयोद, मेघ…आदि… आदि।

महाकवि कालिदास ने तो इन बादलों के साथ संवाद करते हुए यक्ष की पूरी कहानी ही अपने प्रसिद्ध काव्य मेघदूत में लिख डाली है। वे मेघों का परिचय कराते हुए लिखते हैं-
“धूमज्योति सलिलमरुतां सन्निपात: क्व मेघ…”
अर्थात् मेघ जो हैं वे धुआँ, आग, जल और वायु का समूह है। महाकवि की कल्पना कहिए या काव्य की अतिशयोक्ति कि प्राणहीन, संदेश ले जाने में असमर्थ मेघ को ही दूत बनाकर उन्होंने पूरे काव्य की रचना कर दी।

इनके अलावा भी लगभग हर कवि ने बादल या बरसात से संबंधित काव्यों की रचना की है। एक कविता जो बहुत प्रसिद्ध है वह है बाबा नागार्जुन की “बादल को घिरते देखा है”। 
इसमें उन्होंने ‘मेघदूत’ में वर्णित भव्य अलकापुरी और उसके राजा कुबेर पर कटाक्ष करते हुए लिखा है – 
“कहाँ गया धनपति कुबेर वह
कहाँ गयी उसकी वह अलका 
नहीं ठिकाना कालिदास के 
व्योमप्रवाही गंगाजल का…”

बात फ़िल्मों की करें तो बिना बरसात के वह भी पूरी नहीं होती। विरह हो या मिलन /रोमांस, बरसात का होना ज़रूरी है। इसी प्रसंग में एक गाना भी याद आता है – (वैसे गाने तो कितने हैं!) 
“झूम कर पर्वतों पे
घटा छा रही है 
प्यार की उम्र शायद 
क़रीब आ रही है…”

और ग्रामीण जीवन तो पूरी तरह से बादल पर ही आश्रित है। खेतों में हल- बैल के बदले भले ही यांत्रिक हल और ट्रैक्टर आ गए हों, लेकिन मन में मेघों की प्रतीक्षा अभी भी वैसी ही होती है। कि कब बादल बरसें और कब सूख गए नदी- नाले, तालाब,पईन, कुएँ लबालब भर जाएँ। कि कब खेतों के सीने पर किसानों के ख़्वाब अंकुरित हो उठें। कि कब झींगुर और मेढ़क की बोलियों से रात झनझना उठे और कब नवविवाहित जोड़े बादलों के संग बहकर आ मिलें।

सच जीवन कितना झंकृत हो उठता है !
तुम्हारा स्वागत है वर्षा !

मंगलवार, 13 जून 2017

माई डियर डायरी!

आदमी –
बड़ा विचित्र प्राणी!
जब से अस्तित्व में आया साथ में सरहदें लेकर आया, अपने ओढ़ने – बिछाने को। जहाँ-जहाँ भी ठहरा एक सीमा खींच दी आसपास।

नंगा – खुला घूमता था तो सबकुछ बे-हद था। सभ्यता से परिचय पाता गया और बंधनों में लिपटता गया। जकड़ता गया। ऐसा ही एक बंधन है – बँटवारा।

कल्पना कीजिए कि पहली बार यह बात जब इंसानी खोपड़ी में रेंगकर पहुँची होगी तो कैसा महसूस हुआ होगा। एक नए आविष्कार के जैसा!
बँटवारे का मतलब है कि कुछ कर लेना अपने अख़्तियार में। अपने अधिकार में कुछ होना ही दुनिया की सबसे बड़ी फ़ीलिंग है, चाहे वह भौतिक हो या दिमाग़ी – रूहानी।

पेड़ों पर रहते हुए पहले – पहल भोजन बाँटा होगा, फिर डालियाँ बाँटी होगी मनुष्यों ने। फिर चस्का लगा नयी फ़ीलिंग हुई होगी तो पेड़, गुफाएँ खेत-खलिहान और जंगल बाँटे होंगे। और फिर तो जो चीज़ भी आती गयी होंगी इंसानी अख़्तियार में, वह एक न रहा होगा।
पेट और छत के इंतज़ाम पूरे हुए होंगे तो बाहरी दुनिया को हिगराया गया होगा और फिर तो अच्छा – बुरा, स्त्री – पुरूष, काला-गोरा, अमीर – ग़रीब, देव-असुर, धर्मी-विधर्मी, वग़ैरह – वग़ैरह.. अनंत संदर्भ गढ़ दिए गए होंगे।
अब घर से ही शुरू कीजिए – दराज़, रैक, अलमीरा से प्रारंभ होकर कमरा बँट जाता है। उससे बात बढ़ी तो बर्तन – रसोई, घर से बाहर निकल कर धरती और फिर जन्म देने वाले जनक बँट जाते हैं। इस तरह बैठ जाता है सही – सही बँटवारे का सारा गणित। और आ जाती है अख़्तियार में अपना कहने को कुछ।
तो आधिपत्य जमाने का यह जो सुख है हाल के दिनों में उसने सोशल मीडिया को भी लपेटे में ले लिया है। ग़ौर से देखा जाए तो बँटवारा विभाग यहाँ भी मुस्तैदी से मौज़ूद है।

नफ़रत फैलाते राजनीतिक और धार्मिक पोस्ट आज फ़ेसबुक की पहचान है। आपके सोशल सर्कल का दायरा सिमट कर किसी पार्टी, विचारधारा या मज़हब के आसपास आ चुका होगा, अगर आप ग़ौर करें तो। कोई कट्टर हिंदू बनकर मुस्लिमों को गरिया रहा है तो कोई कट्टर मुस्लिम बनकर हिंदुओं को।  बीजेपी, कांग्रेस, आप वग़ैरह तो अपना परचम पहले से ही लहरा रहे हैं इधर।
तो क्या सरहदें सभी इंसानों के हिस्से ही आया है? क्या यह बँटवारा विभाग ही मानव की अमूल्य खोज है?
मुझे तो जावेद अख़्तर साहब की इन पंक्तियों को गुनगुनाने के अलावा और कुछ नहीं सूझ रहा –
“पंछी, नदिया, पवन के झोंके
कोई सरहद ना इन्हें रोके
सरहद तो इंसानों के लिए है
क्या पाया हमने और तुमने
इंसा होके..”

गुरुवार, 25 मई 2017

माई डियर डायरी

पसीने से नहायी हुई शाम के पास अब अपनी निचुड़न के अलावा कुछ भी नहीं है ऐसा, जिसे वह दिन का दिया हुआ उपहार समझ कर रख सके.

उसने सूरज से माँगी थी ज़रा सी मोहलत, कि वह देखना चाहती थी किसी को उस अगले मोड़ तक ओझल होते हुए. वह इस संतोष के साथ जीना चाहती थी कि उसने आख़िरी लम्हों तक किसी को अपनी नज़रों में रखा था – वादे के मुताबिक़. लेकिन उस बुरे दिन में दोनों ने उसे अनसुना कर दिया.

कुछ बोलना चाहते थे दोनों. पर चुप रहने में भी कुछ बुरा नहीं अगर ढ़ंग से चुप रहा जाए- ऐसा दोनों ने एक साथ सोचा. और फिर दोनों ने एक – दूसरे को अलविदा भी बंद होठों से ही किया. जैसे कि कोई शब्द फिसल न जाए ग़लती से भी..

उसने एक तस्वीर चाहा था. उसे लगता था कि तस्वीरें हमेशा ख़ुशनुमा बनाए रखेगी उसका मिज़ाज. उसे नहीं था पता कि तस्वीरें भी तभी तक प्यारी होती हैं जब तक उसमें प्यार भरने वाला हो मौज़ूद.
और एक दिन बेबसी में सारी तस्वीरें उसने बाहर कर दी सेव की हुई हर फोल्डर से. निर्जीव प्रेम की धूप तस्वीरों की जीवंतता मिटा देती हैं – उसने अपनी डायरी में दर्ज़ किया था किसी अंज़ाने दिन में.



मंगलवार, 23 मई 2017

माय डियर डायरी

आंखों के आगे रौशनी का भारीपन बढ़ता जाता है जबकि रात के गाढ़े अंधेरे एक- एक करके उजले होते जाते हैं. जैसे कि चला आ रहा हो कोई मलिन-सी दीवार को रौशनी से पोतता हुआ. 

सपने जो एक-दूसरे से गड्डमड्ड होते रहे थे सारी रात, अब धीरे-धीरे जागृति के रेत कणों में समा चुके हैं. इधर पलकें अब सह नहीं पातीं रौशनी का बढ़ता दबदबा और नींद की वह दीवार भरभरा कर बिखर जाती है.

‘सुबह भी एक अत्याचार है’- मन थोड़ा और सोना चाहता है.

सामने दीवारों पर धूप लिपती जा रही है. पंखे की गर्म हवा नींद और रात दोनों को बचा पाने में विफल है पर समय के साथ दौड़ता जाता है एक हाँफ़ की तरह. 

एक चिड़ियाँ जो अभी और चाहती थी चहकते रहना पिछली रात, लेकिन बढ़ते अंधेरे के आगे चुप होना पड़ा उसे, अभी तक अपने ठंडे घोंसले में पड़ी है, कि सिमटी हुई आवाज़ों को व्यवस्थित करने में थोड़ा वक़्त तो लगता ही है.

दुनिया में धूप का दख़ल बढ़ता जाता है. कोई तो धीमी कर दो चाल इसकी.

कोई स्वतंत्र नहीं नियमों से.

न चाहते हुए भी मन बिस्तर की देहरी से उतरने लगता है. नल ,दरवाज़े, भागती गाड़ियाँ, दफ़्तर और उनकी बेज़ां मस्तियाँ सब धीरे-धीरे जाग रहे होंगें.

कि ज़िंदगी फिर से कमर कस रही है घुलने-मिलने को इनसे...

एक अंगड़ाई, एक मुस्कान, हौले-हौले फुदकती हुई मुंडेर की चिड़ियाँ, गमले का डोलता हुआ फूल काफ़ी तो नहीं पर हाँ तुम्हारी याद के आसपास इनका बने रहना एक सुकून की तस्दीक तो करता ही है...

कि कुछ तो बचा रहता है दुनिया में किसी के बाद ,

कि कुछ तो बचा रहता है दुनिया में तुम्हारी याद के बाद.

सोमवार, 15 मई 2017

कहानी:मधु(भाग-2)


मड़गाँव स्टेशन आ चुका था।

मैंने खिड़की से बाहर उड़ती-सी निगाह डाली। सुबह अभी अंधेरे में लिपटी हुई थी और प्लेटफ़ॉर्म अपनी वीरानी में। मैं खड़ा हो गया आईने के सामने। आईने में अपनी ही शक्ल देखी तो हँसी छुट गई। शर्ट का कॉलर आधे से मुड़कर शर्ट में घुसा हुआ था, सर के बाल जैसे बया का घोंसला बन गए थे और गाल पर कम्बल के मोटे रेशों के निशान ऐसे फ़िट हो गये थे जैसे गाल न हो कोइ साबुन हो और उसपर कम्बल के रेशे चाभी जैसे गड़े हों । मैंने गहरी नींद लगायी थी और मेरा स्टेशन निकल गया होता अगर नीचे की सीट वाले अंकल ने उठाया न होता।
मैंने ज़ल्दी से दूसरी शर्ट पहनी, बाल ठीक किये और बेसिन में जकर चेहरा धोया। चेहरे की रौनक बदलते-बदलते ट्रेन हिलने लगी और प्लेटफ़ॉर्म पर क़दम रखते-रखते प्लेटफ़ॉर्म बस आठ-दस क़दम-भर बच गया था। मेरे शरीर में झुरझुरी भर गयी।

देखते-देखते ट्रेन अंधेरे में समा गयी, अपने पीछे एक जलती-बुझती लाल बत्ती लटकायी हुई।

मैंने प्लेटफ़ॉर्म में लटकती हुई डिजिटल घड़ी को देखा। चार बजना दिखा रही थी।

और सात बजे तक..! मैंने इधर-उधर देखा, पास ही चाय का स्टॉल था।

आनेवाले समय का इंतज़ार वैसे तो अपने आप में असह्य होती आयी है दुनिया में, पर मुझे इसकी आदत हो गयी थी। अब यह मुझे बेचैन नहीं कर पाती थी। थोड़ी देर बाद मैं टी-स्टॉल पर चाय की चुस्कियों में खोया था।
चाय की चुस्कियाँ में एक ख़ास बात होती है- वो आपको कहे बिना आपके साथ होती है, आपके अभी में, आपके अतीत में और आपके सोचों के साथ भविष्य में, मधु ने मुझे बताया था कभी । चाय की चुस्कियों मे लिपटे अतीत के पल अपने स्वाद के साथ उपस्थित होने लगे थे...मीठे..खट्टे।

मधु से मेरी पहली मुलक़ात बस एक ईतेफ़ाक़ थी, जिसमे मेरा कोई रॉल नहीं था इसलिए उसे दूर जाने से रोकने का कोई वास्ता नहीं था, कोई औचित्य नहीं था, उसे न रोकने का कोई मलाल भी नहीं था। वास्तव में, उसका दूर चला जाना ही मुझे उसके पास जाने का ज़रीया बना ,उसके जाने के बाद का ख़ालीपन ही था जिसने मुझे उसके प्यार से भर दिया था। वैसे ये सब बातें मुझे बाद में समझ में आयी थीं। जब वह चली गयी थी हमेशा के लिए।

वह चली गयी थी। बिना कुछ कहे,बिना कुछ सुने। याद रखने को कुछ नहीं था ख़ास- कुछ था तो बस घंटे के चौथाई हिस्से भर की मुलाक़ात, मील के आधे हिस्से का सफ़र, थोड़ी बातें, थोड़ी हँसी एक-एक नारीयल पानी और एक अलविदा! किसी को याद रखने में होनेवाले ख़र्च के हिसाब से ये बहुत कम हासिल कहे जायेंगे शायद!                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                               
याद!
आदमी का सबसे बड़ा साथी..

ज़िंदगी अगर एक लॉकर है तो यादें उसकी अमानत! और एकांत उसकी चाबी..

पानी की प्रकृति और परिमाण ऐसा नहीं कि समय को थोड़ा ज्यादा खींच सकेथोड़ी देर में बस नारियल रह गए थेपानी खत्म।  मैं अगर मधु का पूर्व परिचित होता तो नि:संदेह मुझे उस से दूर होने का दर्द झेलना पड़ता। कुछ मामलों को छोड़कर बाकी सभी में दूरी तकलीफ़ ही देती है। थोड़ी मुझे भी दे रही थी। मधु की बात मुझे नहीं पता। कुछ बातों का असर आदमी के हिसाब से अलग-अलग होता है। पर उसके बदले मैं होता तो शायद थोड़ा दर्द तो मुझे भी होता। ख़ैर अलग बस्ती के बाशिंदे थेथोड़ी देर में अलग -अलग हो लिए। पर जाने के पहले वाली स्मित मुस्कान मधु ने देना नहीं भूला। मीठी हँसी हँसना उसकी प्रकृति थी। यों हँसमुख स्वभाव वाले थोड़ी देर से भूलाए जाने वाले होते हैं, पर वक़्त से जीत हासिल नहीं कर पातेस्मृति के आँगन में दबना ही होता है उन्हें भी। मधू भी मेरी स्मृतियों से निकल कर समय के अनंत में खो गई

...मुलाक़ात छोटी थी, लम्बी होने से पहले ही ख़त्म हो गयी। मुझे पता भी ना चला और समय के ग्लास में छोटी-सी यह मुलाक़ात इनो के जैसा झाग बनाती हुई घुल गई- शुरुआती हलचल के साथ!

मेरी रुटीन भी इसमे काफ़ी मददगार साबित हुई। मैं सुबह के नौ बजे जो कमरे से निकलता तो वापस आने में रात के नौ बजने से किसी तरह बचा पाता। गुणा-भाग की भाषा में कहें तो मेरी एक बट्टे-दो ज़िन्दगी बैठते या दौड़ते-भागते ही गुजरती। ऑफ़िस के गोल घूमती कुर्सियों पर बैठे-बैठे मेरा बदन कभी-कभार उन्नयन-अवनयन कोणों से घूम भी जाता मगर उस समय भी मेरी आँखें कम्प्यूटर-स्क्रीन पर इस तरह चिपकी रहतीं जैसे वे मेरे बदन का हिस्सा नहीं बल्कि उसी कम्प्यूटर का कोई पार्ट-पुर्ज़ा हो।

फ़्लैट और ऑफ़िस के बाहर मेरी ज़िन्दगी सिर्फ़ दो जगह रुकती थी- फ़्रेशनेस का डोज़ लेने सार्वजनिक उद्यानों में और मनोरंजन या शौपिंग का डीजल लेने किसी मॉल में। अब इस शेड्यूल में यदि मैं मधु और उससे लघु-काल वाली मुलाक़ात को याद रखना तो दूर अपने-आप को भी याद रखना भूल जाता तो दोष न होता मुझ बेचारे का ।


जैसे‌‌‌- जैसे‌‌‌ दिन बीतते गये, वैसे- वैसे मधु की मुलाक़ात का पेड़ भी सूखता गया। पहले उसका सुंदर चेहरा ,दौड़ते-भागते पलों के रगड़ से आड़ी-तिरछी रेखाओं मे बदला, फिर उसकी खनक भरी आवाज़ दुनिया के शोर में डूबकर समय के गर्त में जा बैठी।

...

समय बढ़ता रहा। ज़िन्दगी कमती रही। शहरों के फ़ासले मिटने लगे। मैं आज यहाँ तो कल वहाँ वाली कहावत चरितार्थ करते हुए आख़िर में माटीकुआँ  गया। यह एक छोटा-सा कस्बा थासमुद्र के किनारेपहाड़ियों के नीचे बसा हुआ। इस तक पहुँचने के लिए उन्हीं पहाड़ियों के बीच से गुजरकर आना पड़ता था। उपर से देखने पर यह लहरों के किनारे झूलती किसी विदेशी सैलानी-सी लगती थी-स्वच्छंद और खुली-खुली।

मैंने अब तक केवल नदी के किनारे देखे थे. समुद्र के बारे मे किताबों में ही पढ़ा था यहाँ आकर देखा तो आंखें मानो लिखी हुई सारी बातें भूल गयीं, बस नज़ारों को पढ़े जा रही थीं. मन ने कहा कि अभी तो सब कुछ पढ़ना बाकी ही है, ठहर जा यहीं. बस फ़िर क्या था? माटीकुआँ से ना आगे बढ़ा ना पीछे बस वहीं पर ठिठक गया. तब तक मधु की मुलाक़ात दो साल पीछे जा चुकी थी..या शायद कुछ और ज़्यादा. यह अंदाज़ा मैंने बाद में लगाया था. क्योंकि उस समय तो मधु मेरे अंदाज़े से भी बाहर हो चुकी थी.

ज़िंदगी में यूँ तो हम हर दिन नये लोगों से मिलते रहते हैं- कभी इधर-उधर ,जाने-अंज़ाने तो कभी समय की तय की हुई राहों पर, लेकिन उनमे से कितनी बार ऐसा होता है कि हमें पीछे मुड़कर देखने की ज़रुरत महसूस होती हो..शायद बहुत कम, और जब होती भी होगी तो मन की झिड़की से डरकर मन के किस कोने में बैठी रह जाती होगी, हमें पता भी न चलता होगा... 
माटीकुआँ के पास के ही एक मझोले शहर चित्रपुर में मेरी पोस्टिंग थी- केंद्रीय पर्यटन मंत्रालय के अधीन एक विभाग में. रहने के लिए और सुख- सुविधाओं के नज़रिये से चित्रपुर ही सही जगह थी. अच्छी भी थी- आने-जाने के लिहाज़ से और आधुनिकता के मामले में भी. लेकिन मेरा मन तो माटीकुआँ का होकर ही रह गया था- इसकी खुबसुरती के कारण. तीन तरफ़ से समुद्र और एक तरफ़ से पहाड़, हरियाली के ऊपर और आसमान के नीचे सोयी कोई अनिद्य अप्सरा..

काश! ज़िंदगी चाय के जैसी होती..फीकी-सी हँसी लिए मैंने चाय की प्याली को ऐसी हसरत से देखा मानो प्याली नहीं मधु का चेहरा हो और चाय की जगह पर उसकी छलकती हुई आंखें..! चाय में चीनी कम हो तो कम मीठी, नहीं हो तो नहीं मीठी पर बिना इसके खट्टी तो नहीं हो जाती हमारी चाय! ज़िंदगी की मेमोरी में ईरर-करेक्ट जैसी कोई चीज़ होती तो कैसा होता...न जाने कितनी कहाँनियों का अंज़ाम समय रहते बदल देते हम...कोई कमी रह जाती..कोई ग़लती हो जाती तो ज़िंदगी के चाय मे करेक्शन की चीनी डाल देते और मनचाही मिठास भर देते!

चाय की चुस्कियों में मधु की याद आकार लेकर घुलने लगी। चाय, अब चाय नहीं रह गयी थी..एक बहाना बन चुकी थी। ठंडी होकर कप बनी किसी तरह उंगलियों में फँसी हुई थी। 

चाय ख़त्म कर मैं उसी बेंच पर बैठ गया जिसपर ज़ुदा होने से पहले मैं और मधु आख़िरी बार साथ बैठे थे-चार साल पहले-भरे गले और टूटे हुए दिल के साथ। वह हमारी सिर्फ़ तीसरी मुलाक़ात थी-मुक़्क़मल रूप से दूसरी ही- जो न होती तो ज़्यादा अच्छा होता। किसी से न मिल पाना अफ़सोस देता है पर मिल के बिछड़ जाना दर्द देता है-जानलेवा दर्द!...

वह एक अधूरी-सी दोपहर थी। मन कुछ करना चाह रहा था पर ठीक-ठाक समझा नहीं पा रहा था दिमाग़ को कि करना क्या है। आंखें सोने की ज़िद कर रही थीं तो क़दम कहीं बाहर भटकने को। आंखों पर धूप का चश्मा और सर पर हैट डालकर मैं निकल पड़ा। सूरज मुझ से इम्प्रेस नहीं हो पाया और तन- बदन में जलन बनकर उतरने लगा तो मैं एक पेड़ की छाँव लेकर बैठ गया ।

समुद्र पर गिरती हुई धूप चाहे कितनी भी गर्म क्यों न हो, पानी से गिरते ही शीतल हो जाती है । यही शीतलता सैलानियों को लुभाती है । उन्हें बुलाती हैं ।

करने को कुछ नहीं होना भी एक विषय है चिंता का । शाम को एक विवाह में शामिल होना था । उससे पहले पूरी दोपहर थी बिताने को। शरलॉक होम्स बगल में पड़े थे , लेकिन मन नहीं बन रहा था पढ़ने को। मैंने पेड़ की टेक लगाये आंखें मूँद ली। कानों में किशोर दा गूंज रहे थे।

आप की पूरानी आदत गयी नहीं अभी तक ।

आवाज़ बिल्कुल पास से आयी थी। मैंने आंखें खोल दी। पर होंठों की ज़ुम्बिश पहले हुई-अरे !आप यहाँ !

आप तो बिल्कुल पीछे ही पड़ गयीं- मैंने आश्चर्य से कहा।(बीते  सालों  की अवधि भी पहली मुलाक़ात की धमक को धो नहीं पायी थी।)

ये भी तो हो सकता है कि आप ही आएँ हो मेरे पीछे-पीछे। उसने अपनी मुस्कान बिल्कुल बरकरार रखी थी। बिल्कुल निर्मल ,निश्छल, बेदाग़..

यह क्या महज़ एक इत्तेफ़ाक है कि मुम्बई से इतनी  दूर माटीकुआँ में बरसों बाद आज मधु मेरे सामने खड़ी है!
एक छोटी-सी मुलाक़ात और इतनी ज़बर्दस्त याद कि पहली बार में ही पहचान  गयी। फिर मुझे याद आया कि इसमे कौन सी बड़ी बात है ,मैने भी तो पहचान लिया। मैंने भी कहाँ पुछा कि- आप कौन..? मुआफ़ कीजिए मैंने आपको  पहचाना नहीँ...? आपका नाम... जी! कहिए क्या काम है? 
कुछ भी तो नहीं पुछा मैंने भी। अकचकाया-सा फिर मैंने कहा-

पहले आप अपना नाम बताएँ और इज़ाजत दें कि इस लम्हे को मैं आपकी नज़रोँ से देखने की कोशिश करू जब आप चली भी जाएँ ..

...इससे पहले कि आप बातों में उलझ जाएँ मैं आपकी एक तस्वीर निकाल लूँ।

“पिछली बार  तो  बिल्कूल बेफ़िक्र थे आप ..इस बार ऐसा क्या है जो नाम , पता, तस्वीर सब चाहिए। कम–से-कम पहले इतना तो पूछ लिया होता कि कैसे आयी हो..आ गयी हो तो कैसी हो..यहाँ इस समंदर से पानी क्यों भर रही हो..कुछ नहीँ बस नाम और तस्वीर चाहिए...

मधु ने मुहँ बनाया और मेरा कैमरा चमक उठा.. आंखें मटकाती उसकी तस्वीर छप चुकी थी।

मैंने बहुत बार पुछा पर सिवाय नाम के उसने मुझे कुछ नहीं बताया। कहा से आयी..कैसे आयी..कब आयी..क्यों आयी.. कैसे पहचान गयी और मेरे गले पड़ गयी..।

ख़ैर, बाक़ी सारे प्रश्नों का ज़वाब तो मुझे भी नहीं पता पर इतना तो पता पड़ गया था कि मधु को देखकर एक बार में ही कैसे पहचान गया था मैं। बढ़ी हुई मेरी धड़कनों की रफ़्तार और मन की आंखों में चमचमाते हज़ारों वाट के प्रकाश ने इतना उजाला कर दिया था कि मैं अपनी लरजती हुई सांसों की इबारत को बख़ूबी पढ़ सकता था।
इतने दिनों से मेरे और मेरे दिल के दरम्यान एक राज़ था, एक दरार था..

शायद ये मधु के लिए धीरे-धीरे पनप रहा अंज़ाना-सा प्यार था..। हाय रब्बा! ख़ुद से ही धोखा...!

मैंने मधु की आंखों में चुपके से झांक लिया...पता नहीं मेरे लिये जगह थी या..दिल की इमारत बिक चुकी थी..।          
समंदर के उस किनारे पर सैकड़ों लोगों के बीच कुछ समय पहले तक मैं अकेला था। पता नहीं कितनी देर के लिए पर अपनी भींगी ज़ुल्फ़ों को साथ लिए मधु अब मेरे साथ-साथ चल रही थी। वो तो खुश थी ही, अपनी मौज़ूदगी से मेरा दिन भी ख़ुशगवार बना रही थी।

कुछ देर बाद मधु मेरे साथ मेरे बंगलेनुमा घर के लॉन में बैठी थी।
उसने मेरा नाम नहीं पुछा था बल्कि सीधे मुझे मेरे नाम से पुकारा था-नीर! लोग ऐसा क्यों कहते हैं कि सपने सच 
नहीं होते...

उसके प्रश्न को मैं अभी समझ भी नहीं पाया था कि उसने फिर कहा- आज इतने दिनों के बाद ही सही पर हम साथ बैठे हैं..तुम्हारे मन की नहीं जानती फिर भी इतना तो मालुम है कि अब हम अज़नबी भी नही हैं..क्या ये किसी सपने से कम है..।

नहीं मधु डियर ये डेस्टिनी (नियति) का संकेत है।– मैं कहते-कहते रुक गया था।

बिल्कूल सही कहा.. मैं हँसा..दरअसल यह सपना नहीं हक़ीक़त है मधु लेकिन ऐसा सुयोग बार बार नहीं बनता..लेकिन तुम्हें मेरा नाम कैसे...
ओह्हो बाबा..! तुम तो नाम के पीछे ही पड़ गए..क्या इसके बिना तुम्हारा खाना नहीं पचेगा।
 इस बार दोनों हस पड़े। मुझे पक्का यक़ीं हो रहा था कुछ शरारत होनेवाली है।

मधु अपनी सहेलियों के साथ पास के ही होटल में रुकी थी। पर मेरी ज़िद पर हमारे खाने का प्रोग्राम मेरे ही घर पर बन गया। पर उस समय टेबल पर मेरे और मधु के अलावा कोई नहीं था, क्योंकि उसके दोस्त अभी भी बीच से वपस नहीं आए थे। खाते‌-खाते मधु अचानक रुक गयी- मैने पानी का ग्लास उसकी तरफ़ बढ़ाया, तो बदले में उसने ऐसी मुस्कान से देखा जिसमें सामान्य जैसा तो कुछ भी नहीं था। और आंखें- यक़ीन करिए...जैसे मधुता से छलकने ही वाली थी। मुझे बहुत कुछ दिख रहा था, या यूँ कहें कि मधु मुझे दिखाना चाह रही थी।

अपनी-अपनी जगह पर हम दोनों बह रहे थे, सिर्फ़ निर्जीव वस्तुएँ और वे लम्हें ठहरे हुए थे। हम प्यार में थे। एक दुसरे के सुनसान में थे। इस कायनात की हर धरती-आसमान में थे। दरवाज़े-खिड़कियाँ तो सही सलामत थे , हाँ हम दोनों ज़रूर घुम रहे थे पिछले दो-तीन घंटों के बदलते हर शै के साथ...।

नीर! सच पुछों तो मुझे भी नही पता कि कब हमारी छोटी-सी मुलाक़ात एक नये सपने की ज़रूरत बन गयी। कभी-कभी ख़याल तो आता था तुम्हारा, पर कब तुम ख़यालों से दिल मे और दिल से सपनों और बेचैनियों मे जा पहुँचे,कह नहीं सकती... मेरे बालों में उंगलियाँ फेरती मधु न जाने कितने क़िस्से सुना चुकी थी.. पर उसे सुन कौन रहा था। सुनायी तो मुझे सिर्फ़ वह झंकार दे रही थी जो मधु की मौज़ूदगी से सारे जहाँ में बिखर रही थी। मुझे तो आज को पहले जीना था कल की बात कभी और सुन लेंगे।

आदमी कितना मुर्ख है..दुनिया भर की बातें जानने की कोशिश करता है..पर अपने दिल की एक बात सही से नहीं समझ सकता। और इस तरह ज़िंदगी को खिंचता रहता है। जितनी कोशिशें मधु ने मुझे खोजने में करी थी, अगर मैं भी उतना करता तो ये घड़ियाँ इतनी देर से न आतीं..

और इस तरह अनज़ान-सी एक मुलाक़ात प्रगाढ़ प्रेम मे जाकर बदल गयी।

मधु हिमाचल से थी..मुम्बई वो मेडिकल की पढ़ाई के लिये आयी थी। माटीकुआँ वह उसकी ख़ुबसूरती के लिये नही आयी थी बल्कि मेरे लिए आयी थी । मुझे खोजते हुए । हाऊ स्मार्ट यार ! माटीकुआँ ने भी उसे निराश नहीं किया था, बल्कि मुझसे मिला कर उसका दिल जीत लिया था।

अभी शादी की ज़ल्दी नहीं थी उसे । उसकी खुशी के लिए मैंने भी सीने पर बड़ा-सा पत्थर रख लिया। तय हुआ की बीच-बीच में मिलते रहेंगे। तब सन 2008 ख़त्म होने के कग़ार पर था। धीरे - धीरे 2009 भी निकल गया और 2010 का साल आने को हुआ। हमने तय किया इसबार छुट्टियाँ गोआ में मनाया जाए ।
नियत समय पर मधु अपने तीन दोस्तों- स्मिता, माधुरी और प्रभात और मैं अपने दो दोस्तों प्रतिभा और सर्वेश के साथ गोआ मे जा मिले। प्रतिभा और सर्वेश मंगेतर थे और जल्द ही शादी करने वाले थे। पाँच दिनों तक हम सब ने गोआ का कोना-कोना छन मार। बीच ,पानी, नावें, मछलियाँ , सड़कें ,ऐतिहासिक चर्चें और डांस-क्लब...कुछ भी नहीं छुटा था। सोना कब और जागना क्या वाली कहावत सही हो गयी थी। जहाँ भी रहें, जिस हालत में भी रहें सभी ने ख़ूब मस्ती की। पाँच दिन कैसे बीत गये  पता भी न चला और फिर आख़िरी रात भी आ गयी। फ़िज़ा में मस्ती के साथ-साथ एक उदासी भी आ मिली थी।

सुबह दस बजे तक सबको निकल जाना था। सो, पैकिंग करने के बाद सभी लोग बीच पर आख़िरी बार ज़मा हो गये । गोआ की शामें बहुत ही मादक होती हैं। उधर तड़पती लहरें किनारे तक आने से पहले ही रेत पर झुकी हुई शाम के सांवलेपन मे गुम जाती है, इधर किनारे पर बजते ड़ीजे का शोर शाम की बदहबासी को नशे की पुड़िया थमा जाती है... जैसे-जैसे शाम डगमगाती है एक सुकून फैलते जाता है गोआ की बीचों पर।

वह शाम भी कुछ वैसी ही थी । हर तरफ़ देशी-विदेशी सैलानी... उन्मुक्त जोड़ियाँ...कुछ के हाथों में नयी रचायी हुई मेहंदी तो कुछ में नयी सुहाग की चुड़ियाँ...हाथों में हाथ डाले...ज़िंदगी को देखते-समझते ,जीते हुए ...। यहाँ दूसरे को देखने की फुर्सत उसी को है जो या तो अकेला है या आवारा मन का..। हाथों में हाथ डाले मैं और मधु भी  टहलते हुए काफ़ी आगे आ गये थे, जब सर्वेश का फ़ोन आया था। सभी लोग हमारा इंतेज़ार कर रहे थे।

मुझे या मधु को शराब पीने की न तो आदत थी, न ही शौक़। हमने सिरे से मना कर दिया था जब प्रभात और सर्वेश ने पीने की ज़िद की। दोनों ने हमारे पीछे पूरी महफ़िल सजा रखी थी । एक ने कहा-और कौन-सा हमलोग रोज़-रोज़ एक साथ मिलेंगे.. तो दूसरे ने कहा-और कौन सा तुम अकेले पीयोगे.. तो अगले ने पूरा किया-और अगर ज़हर ही है तो कौन सा तुमलोग अकेले चखोगे..सब साथ-साथ चलेंगे अब तो..

एक तो गोआ का मौसम और दूसरे सारे लोगों की ज़िद ने लेकिन हमारी एक न चलने दी और अंतत: दो-दो पैग के क़रार पर हमे मुक्ति मिली। दौर शुरु हुआ। इसे पहली बार की कमज़ोरी कहें या दोस्तों की बेईमानी नशा भारी पड़ रहा था। मैंने तो ज़ज़्ब कर लिया पर मधु सम्भाल न पायी।  इसके पहले की तमाशा बनता मैं उसे बीच से लेकर चल पड़ा होटल  की ओर। होटल बीच के बिल्कूल पास था, अत: ज़्यादा परेशानी की बात नहीं थी। सारे दोस्त बीच पर ही रूक गये।

शायद वोदके और बीयर का सामुहिक असर था, चलते –चलते मधु मेरे कंधे पर झुल सी रही थी।
इतने दिनों में भी मैं और मधु कभी इतने क़रीब नही आये थे।

उस दिन मुझे पहली बार पता चला कि आदमी के शरीर में, आदमी के ही रूप में एक जानवर हमेशा रहता है, चाहे अपने न्यूनतम में ही सही। विपरीत लिंग का असर कहें या नशे का बह्काव , मैंने वहाँ तक सोच लिया जहाँ तक सोचने की पहले न तो ज़रूरत आयी थी और न ही विचार आया था। मधु के साथ मैं मन से पहले जुड़ा था ,तन मिलने के बहुत पहले.. आज या कल हम दोनों एक होने वाले थे ये भी तय था। मधु तन की भूखी थी ऐसा कभी लगा भी नहीं था...मगर फिर भी जो नहीं सोचा था वही करने की ग़लती मैं कर बैठा।

यह एक बिडम्बना है कि आदमी अपनी ख़ुद की भावनओं से भी अंज़ान बना रहता है, वैसी भावनाएँ जो उसके आज और कल को नियंत्रित करनेवाली होती हैं,लेकिन जानने का दावा सारी दुनिया को करता है। मदमाती शाम , ख़ुबसूरत मधु का साथ और मदहोश करता नशा। मैंने अपने पर से अख़्तियार खो दिया। पर लड़कियाँ चाहे जितनी भी बेसुध क्यों न हो बात जब अस्मिता पर आये तो उनकी ऐंद्रिय शक्तियाँ जाग ही जाती हैं । मधु ने अपनी कोशिशों और सख़्ती से न केवल मुझे रोक दिया बल्कि मेरा पाशविक रूप सारे दोस्तों पर भी ज़ाहिर कर दिया। उसी समय।

शाम ख़त्म हो गयी थी। पार्टी भी।

सभी लोग जमा थे। मुझे सर झुकाये और मधु को पागलपन की हद तक रोते देखते हुए सभी का नशा शाम के साथ ही काफूर हो चुका था। माहौल भारी और रात बैरी लग रही थी। मुझसे तो कुछ बोला भी नहीं जा रहा था पर प्रभात,सर्वेश और बाक़ियों ने अनगिनत बार माफ़ी मांगी होगी। लेकिन उसे उनसे क्या शिकायत होती! ग़लती तो मेरी थी और ट्रौमा में मधु । और उसका इलाज़ समय के अलावा किसी के पास नहीं था। मैंने सबसे अपना होकर भी उसे सबसे बड़ा दुख दिया था। एक आधी रूह ने दूसरी आधी रूह का क़त्ल किया था। इसका अफ़सोस मेरे से ज़्यादा मधु को था। उसकी आंखों में धीरे-धीरे दुख के साथ नफ़रत भी उतर आयी थी। मधु का प्यार अगर मेरे लिए समुंदर की गहराई थी तो ,वो अब किनारे की रेत मे बदल गयी थी जिसपर जाकर समुन्दर को सुखना हीं पड़ता है। उस रेत पर न तो लहरें टिकतीं हैं देर तक और ना ही घरौंदे। हम दोनों ख़त्म हो गये थे अपनी ही प्यारी दुनिया में...।

अगले दिन के लिये कुछ भी नही बचा था। न तो मुस्कान भरे चेहरे, न विदा होती आंखें..न उनमें उफनता प्यार..दुआ सलाम की कौन कहें। दिल टुकड़ों में लिये,लव सिले हुए-प्यार की अंतिम बारात निकलने वाली थी। इससे पहले की मधु बीती हुई बात हो जाती उस ट्रेन के जाते ही ,मैंने एक आख़िरी कोशिश की-मधु! मैने ग़लती की है , पाप किया है...जो चाहे सज़ा दो पर ऐसे मत जाओ। क्योंकि इस बोझ के साथ मैं ज़िंदा तो रह जाउंगा पर जी नही पाऊँगा...। प्रत्युतर में मधु के वे चंद लफ़्ज़ किसी गहरी खाई से आती सुनाई दी थी..बिना किसी उत्तेजना के..बुझी आँखों से देखती हुई मधु ने कहा था...अब मेरे वश में कुछ नहीं है डियर...मुझे भी नहीं पता कि मैं क्या करूँ...और शायद तुम्हें भी फिर से सोचने की ज़रूरत हो। अब हमारे बीच क्या बचा है क्या नहीं या कुछ बचा भी है कि नहीं ये सिर्फ़ आनेवाला वक़्त बता पायेगा। अगर फिर भी तुम्हें यक़ीन है तो चार साल के बाद यहीं मिलना। अगर मैं तुमसे प्यार कर पाऊँगी तो ये चार साल मेरे लिए सज़ा बन जायेंगे पर उसके बाद मैं यहीं रहुँगी...इंतेज़ार करूँगी...तुम्हारा!

पिछले दस घंटे में मधु के ये पहली और आख़िरी शब्द थे। अपनी गुँजती हुई आवाज़ को मेरी रूह के हवाले कर वह निकल गयी थी। पीछे मैं टुकड़ा- टुकड़ा बिखर रहा था। लम्हा-लम्हा छूट रहा था तन्हाईयों में, बेचैनियों में , विरानियों में..बिना किसी सहारे के...।

वो दिन और आज का दिन..चार सालो तक जीते जी मरने की सज़ा काटने के बाद आ पहुचा हुँ अपना फ़ैसला सुनने... यह फ़ैसला चाहे जो भी हो, लेकिन आज भी मुझे इस बात का दुख ज़्यादा है कि मेरी ग़लती की सज़ा मधु को भी भुगतनी पड़ी। (...क्रमश)