शनिवार, 25 जून 2016

अंधेरे का आलोक


**अंधेरे का आलोक**
वह अकेला था इस शहर में। इस दुनिया में भी। एक अनाथालय की दया पर उसका बचपन बीता। पर बुद्धि तीक्ष्ण थी और मेहनत उसका साथी था। सो नौकरी मिलने में परेशानी आयी नहीं। निबंधन कार्यालय के रजिस्ट्रार के पद पर पहली पोस्टिंग मिली और इस तरह वह भी इस शहर की हवा में हिस्सेदार हो गया। दो बड़े कमरों के घर में उसकी जिंदगी अकेली दौड़ रही थी। चीजों की कमी तो खलती नहीं थी, बचपन से अभ्यास जो था, फिर भी उसे महसूस होता कि जिंदगी में कुछ तो कमी थी।

दिन बीतते गए और महीने में बदलने लगे। एक दिन वह फुर्सत के पलों में अपनी बालकनी में बैठा गुम था। चाय की चुस्कियों के अंतराल में उसे कुछ खटका सा हुआ। अनजाना-सा कुछ। रोज तो नहीं लगता था ऐसा। बेचैन होकर उसने इधर-उधर देखा। जल्द ही उसे मालूम पड़ गया कि वह किसी की नज़रों की नोंक पर है। सामने की एक खिड़की से एक नारी शरीर उसे निहार रहा था। सामान्य बात थी। आयी-गयी होने लायक, वह शांत हो गया। 

लेकिन यह सिलसिला रूका नहीं, बल्कि बढ़ता गया। वह जब भी बालकनी में आता स्वयं को उसकी नजरों में बंद पाता। कभी-कभी उसकी मुस्कान भी दिख जाती। धीरे-धीरे वह आदी हो गया। जबतक खिड़की से नारी चेहरा दिख नहीं जाता वह बालकनी से हटता नहीं था। उसने जान लिया था जिंदगी की कमी को। 

एक दिन वह ऐसे ही बालकनी में खड़ा खिड़की को निहार रहा था। आज ज्यादा देर हो रही थी। उसका चैन जा रहा था। तरह-तरह के ख़्याल आने शुरू हो गए थे। प्रेम में इन्तज़ार के लिए कोई जगह नहीं होती। ख़ैर यह इन्तज़ार ज्यादा लंबा नहीं हुआ। थोड़ी देर बाद ही खिड़की खुली और उसकी नजरों का चैन वापस हासिल हुआ। चिरपरिचित चेहरा मुस्कान बिखेरता रौशन हुआ। नजरों की शिकायत दूर हूई तो उसने देखा- नारी – शरीर ने अपने हाथ से काग़ज़ का एक टुकड़ा नीचे की गलीनुमा सड़क पर उछाल दिया था। फिर एक इशारा मिला। मिनटों में वह लगभग दौड़ते हुए जा पहुँचा काग़ज़ी टुकड़े तक। 

क़ायदे से काग़ज़ के उस तुड़े-मुड़े टुकड़े को गली के किसी कोने में पड़ा हुआ होना था। पर उसपर लिखे गए तीन अंग्रेजी के अक्षरों ने उसे किसी के लिए उम्रभर सहेज कर रखने लायक बना दिया था। लिखावट ऐसी कि किसी को समझ में ना आए सिवाय उसके जिसके लिए वह लिखा गया था। 

उसने इधर-उधर नज़र घूमायी। गली के दोनों छोरों पर कोई न था, सिवाय सुनसान के। उसने धड़कनों को थोड़ा धीमा होने दिया। फिर झूककर उठा लिया नेह-निमंत्रण को। धड़कनों का शोर उत्कर्ष पर था फिर से। उसने सर ऊपर किया। उस ओर जिधर से आकर कागज़ का वह टुकड़ा किनारे लगा था। नारी – शरीर मुस्कान भरी नजरों से निहार रहा था। उसने भी मुस्कान बिखेरी। दोनों के रास्ते एक हो रहे थे। नारी – शरीर अब उसके लिए देवता था। प्रेम का देवता। 

अपने कमरे में आकर उसने प्रेम की सिलवटों को सीधा किया। केवल तीन अक्षर थे – आई एल यू। जैसे किसी अनाड़ी ने लिखा हो। तीनों अक्षरों का सम्मिलित तात्पर्य वह समझता था। कौन नहीं समझेगा! 
बेहद कीमती लिखावट थी। उसने संभाल कर रख लिया किसी अमूल्य निधि के जैसा। 

अब वह सातवें आसमान पर था। वापस आने की कोई जल्दी नहीं थी। आना भी नहीं चाहता था, पर आया। प्रेम की जो सौगात मिली थी उसका जवाब भी तो देना था। अठ्ठाईस बरस के बाद उसकी जिंदगी में प्रेम की पहली दस्तक पड़ी थी। भावनाओं का संक्षेपण कठिन था। चार पन्ने में किसी तरह उसने दिल की बात ख़त्म की। भावनाओं में लिपटा उसका प्रेम शब्दों पर सवार होकर पहुंच गया अपनी नयी – नयी मिली मंज़िल पर। उसने खिड़की से देखा सामने की बालकनी पर। उसके देवता ने दामन से लगा रखा था उसके जवाब को। उसकी जिंदगी की दीवार से उदासी की मैली धूल झड़ रही थी। किसी के प्रेम का सुनहरा रंग चढ़ने लगा था।

दो दिनों तक दोनों के शब्दों ने खूब भ्रमण किया। एक दिल से दूसरे दिल तक। तीसरे दिन तयशुदा समय और जगह पर दोनों का सामना हुआ। उसकी प्यारी बातें और मोहक अदा ने आदमी को यह सोचने पर मजबूर कर दिया कि वह इस दुनिया के सबसे खुशक़िस्मत इंसानों में से एक है। देवता की हँसी के अवदात आलोक में उसने पहली बार महसूस किया जिंदगी कितनी सुंदर है। सपने हजारों की संख्या में तैरने लगे थे, आँखों में। स्मित मुस्कान धारण किए उसके प्रेम के देवता ने फिर विदा लिया इस सहमति के साथ कि अब उनके प्रेम को एकांत चाहिए। वह भावविभोर था। यह मिलन तो अब इतिहास बनेगा। 

इस तरह मिलने का सिलसिला आरम्भ हुआ। वह खुश था। प्रेम परिपक्व हो रहा था। एक दिन भावी जीवन के सपने देखने – देखते पता नहीं वह कब आगे बढ़ गया अपनी स्वयं की तय की हुई सीमाओं से। परिणाम- अभिसाररत  कामना में उसे पता भी नहीं चला कि कब बिजली सी कौंधी और उनका प्रेम हमेशा – हमेशा के लिए स्थान पा गया था स्वचालित कैमरे में। प्रेम के देवता की कुटिल हँसी की कालिमा उसके वज़ूद को खाये जाती थी। उसे कुछ सूझता न था। 

प्रेम के देवता ने एक और पुजारी को अपना दास बना लिया था। 

बाद में उसे पता चला कि एक जमीन माफिया के ख़र्चे पर पलने वाली वह एक लड़की थी जिसे उस रजिस्ट्रार की इमानदारी को काटने के लिए औजार बनाया गया था। इमानदारी का लोहा इतनी जल्दी जंग खा जाएगा, उसने सपने में भी नहीं सोचा था। 


4 टिप्‍पणियां:

  1. ‘अंधेरे का आलोक’ कहानी, यथार्थ तथा कल्पना का मिश्रण है। इस छोटी सी कहानी में विशेष बात यह है कि इसमें नायक का कोई नाम नहीं है। ना उस ‘नारी शरीर’ का कोई नाम है, फिर भी कहानी बहुत ही सहजता से बुद्धि में उतर जाती है। अंत में तीक्ष्ण बुद्धि वाले रजिस्ट्रार के साथ भी वही हुआ, जो हजारों-लाखों प्रेमियों के साथ हुआ था - धोखा एवं छल।

    एक-दो त्रुटियां मेरी दृष्टी में आईं -
    1. उसने इधर-उधर नज़र घूमाया (घुमायी)
    2. बेहद कीमती लिखावट थे (थी)

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  2. धन्यवाद एवं आभार आपका निशांत जी! कहानी पसंद आयी यह मेरे लिए अत्यंत हर्ष की बात है। अपनी सजग दृष्टि से आपने फिर यह साबित किया है कि पाठक की तीक्ष्ण नज़र कहानी के लिए कितनी जरूरी है। आशा है कि आप अपनी पैनी नज़र आगे भी रखेंगे। बहरहाल त्रुटियों को सुधार लिया गया है। खेद है कि त्रुटियों को देख नहीं पाया।

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  3. जबरदस्त कहानी ।।।।। कहानी बहुत अच्छी है ।।।

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