गुरुवार, 29 जून 2017

प्यार की उम्र शायद क़रीब आ रही है..

बरसात का मौसम आ चुका है। सारी धरती हरियाली से सजी है और आकाश मेघों से। पेड़- पौधे बौराये से दिखने लगे हैं। पत्तों पर टप-टप गिरती बूँदों के बीच से दिखते पक्षी मस्त जान पड़ते हैं, मानो अपने – अपने घोंसले में सपरिवार वर्षा का आनंद उठा रहे हों। धरती पर नये – नये उगे घास- पात किसी नवयौवना के गालों पर उगे रोएँ से चमकते हैं। कह सकते हैं कि ऋतु-चक्र का सबसे महत्वपूर्ण पड़ाव बरसात हमारे मन में हलचल भरता जा रहा है।

बरसात का मौसम है ही ऐसा मनोहर कि क्या पशु-पक्षी,क्या पेड़ -पौधे, क्या इंसान और क्या धरती, सब मदमस्त हो जाते हैं। और इन सबकी ख़ुशी का कारण आसमान में छाये बादल होते हैं। ये बादल दिखने में जितने भी स्थूल लगे, होते बहुत ही कोमल और हल्के हैं। ऊँचे पर्वतीय इलाक़ों में भ्रमण तो इनके मिलने के बिना पूरा ही नहीं होता। ऐसे ही एक पर्वतीय क्षेत्र में जब हमलोग पहाड़ों से गुज़र रहे थे तो अचानक आँखों के सामने धुँध जैसा छाया और देखते ही देखते हम सब बादलों से बातें कर रहे थे। 

संस्कृत में बादल के बहुत सारे पर्यायवाची शब्द दिए गए हैं जैसे – जलद, नीरद, पयोद, मेघ…आदि… आदि।

महाकवि कालिदास ने तो इन बादलों के साथ संवाद करते हुए यक्ष की पूरी कहानी ही अपने प्रसिद्ध काव्य मेघदूत में लिख डाली है। वे मेघों का परिचय कराते हुए लिखते हैं-
“धूमज्योति सलिलमरुतां सन्निपात: क्व मेघ…”
अर्थात् मेघ जो हैं वे धुआँ, आग, जल और वायु का समूह है। महाकवि की कल्पना कहिए या काव्य की अतिशयोक्ति कि प्राणहीन, संदेश ले जाने में असमर्थ मेघ को ही दूत बनाकर उन्होंने पूरे काव्य की रचना कर दी।

इनके अलावा भी लगभग हर कवि ने बादल या बरसात से संबंधित काव्यों की रचना की है। एक कविता जो बहुत प्रसिद्ध है वह है बाबा नागार्जुन की “बादल को घिरते देखा है”। 
इसमें उन्होंने ‘मेघदूत’ में वर्णित भव्य अलकापुरी और उसके राजा कुबेर पर कटाक्ष करते हुए लिखा है – 
“कहाँ गया धनपति कुबेर वह
कहाँ गयी उसकी वह अलका 
नहीं ठिकाना कालिदास के 
व्योमप्रवाही गंगाजल का…”

बात फ़िल्मों की करें तो बिना बरसात के वह भी पूरी नहीं होती। विरह हो या मिलन /रोमांस, बरसात का होना ज़रूरी है। इसी प्रसंग में एक गाना भी याद आता है – (वैसे गाने तो कितने हैं!) 
“झूम कर पर्वतों पे
घटा छा रही है 
प्यार की उम्र शायद 
क़रीब आ रही है…”

और ग्रामीण जीवन तो पूरी तरह से बादल पर ही आश्रित है। खेतों में हल- बैल के बदले भले ही यांत्रिक हल और ट्रैक्टर आ गए हों, लेकिन मन में मेघों की प्रतीक्षा अभी भी वैसी ही होती है। कि कब बादल बरसें और कब सूख गए नदी- नाले, तालाब,पईन, कुएँ लबालब भर जाएँ। कि कब खेतों के सीने पर किसानों के ख़्वाब अंकुरित हो उठें। कि कब झींगुर और मेढ़क की बोलियों से रात झनझना उठे और कब नवविवाहित जोड़े बादलों के संग बहकर आ मिलें।

सच जीवन कितना झंकृत हो उठता है !
तुम्हारा स्वागत है वर्षा !

मंगलवार, 13 जून 2017

माई डियर डायरी!

आदमी –
बड़ा विचित्र प्राणी!
जब से अस्तित्व में आया साथ में सरहदें लेकर आया, अपने ओढ़ने – बिछाने को। जहाँ-जहाँ भी ठहरा एक सीमा खींच दी आसपास।

नंगा – खुला घूमता था तो सबकुछ बे-हद था। सभ्यता से परिचय पाता गया और बंधनों में लिपटता गया। जकड़ता गया। ऐसा ही एक बंधन है – बँटवारा।

कल्पना कीजिए कि पहली बार यह बात जब इंसानी खोपड़ी में रेंगकर पहुँची होगी तो कैसा महसूस हुआ होगा। एक नए आविष्कार के जैसा!
बँटवारे का मतलब है कि कुछ कर लेना अपने अख़्तियार में। अपने अधिकार में कुछ होना ही दुनिया की सबसे बड़ी फ़ीलिंग है, चाहे वह भौतिक हो या दिमाग़ी – रूहानी।

पेड़ों पर रहते हुए पहले – पहल भोजन बाँटा होगा, फिर डालियाँ बाँटी होगी मनुष्यों ने। फिर चस्का लगा नयी फ़ीलिंग हुई होगी तो पेड़, गुफाएँ खेत-खलिहान और जंगल बाँटे होंगे। और फिर तो जो चीज़ भी आती गयी होंगी इंसानी अख़्तियार में, वह एक न रहा होगा।
पेट और छत के इंतज़ाम पूरे हुए होंगे तो बाहरी दुनिया को हिगराया गया होगा और फिर तो अच्छा – बुरा, स्त्री – पुरूष, काला-गोरा, अमीर – ग़रीब, देव-असुर, धर्मी-विधर्मी, वग़ैरह – वग़ैरह.. अनंत संदर्भ गढ़ दिए गए होंगे।
अब घर से ही शुरू कीजिए – दराज़, रैक, अलमीरा से प्रारंभ होकर कमरा बँट जाता है। उससे बात बढ़ी तो बर्तन – रसोई, घर से बाहर निकल कर धरती और फिर जन्म देने वाले जनक बँट जाते हैं। इस तरह बैठ जाता है सही – सही बँटवारे का सारा गणित। और आ जाती है अख़्तियार में अपना कहने को कुछ।
तो आधिपत्य जमाने का यह जो सुख है हाल के दिनों में उसने सोशल मीडिया को भी लपेटे में ले लिया है। ग़ौर से देखा जाए तो बँटवारा विभाग यहाँ भी मुस्तैदी से मौज़ूद है।

नफ़रत फैलाते राजनीतिक और धार्मिक पोस्ट आज फ़ेसबुक की पहचान है। आपके सोशल सर्कल का दायरा सिमट कर किसी पार्टी, विचारधारा या मज़हब के आसपास आ चुका होगा, अगर आप ग़ौर करें तो। कोई कट्टर हिंदू बनकर मुस्लिमों को गरिया रहा है तो कोई कट्टर मुस्लिम बनकर हिंदुओं को।  बीजेपी, कांग्रेस, आप वग़ैरह तो अपना परचम पहले से ही लहरा रहे हैं इधर।
तो क्या सरहदें सभी इंसानों के हिस्से ही आया है? क्या यह बँटवारा विभाग ही मानव की अमूल्य खोज है?
मुझे तो जावेद अख़्तर साहब की इन पंक्तियों को गुनगुनाने के अलावा और कुछ नहीं सूझ रहा –
“पंछी, नदिया, पवन के झोंके
कोई सरहद ना इन्हें रोके
सरहद तो इंसानों के लिए है
क्या पाया हमने और तुमने
इंसा होके..”