शनिवार, 30 जुलाई 2016

शब्द-दर्पण - 3

समय के पास एक कंधा होता है इंतजार का। कभी इस कंधे पर कुछ देर सर रख लेता है मन कि अहसासों को थोड़ा आराम मिल जाए । जैसे एक झपकी का फासला कभी-कभी दिलो-दिमाग को फिर से सोचने लायक बना देता है। इधर ढ़लती रात-सी बेचैनी विलीन हो जाना चाहती है उजली सुबह-सी सुखद अहसासों में। उधर परिंदों के पंखों पर सवार होकर रात निकल जाना चाहती है दूर कहीं चुपचाप यह सोचकर कि सवेरा थाम लेगा उसकी स्याह सायों को। जबकि रात को चाहिए होता है साथ अंधेरों का। मगर यह देखकर कि परिंदों ने बसाया हुआ है सपनों का आशियाना, बस मुस्करा देती है रात। वैसे भी रात बनी है सपनों को सम्हालने के लिए, तोड़ कैसे दे।
 दूर कहीं बिजली की एक नन्ही चमक छिटकती है अपने प्रकाश - दल से और अंधेरों को जगाती हुई बिल्कुल पास आ जाती है। जैसे चाहती हो चूमना रात की उदासी को। पर रौशनी की एक हल्की लकीर खींचते हुए खो जाती है उसी अंधेरे में कहीं। थोड़ी देर के लिए अंधेरों में चलती तन्हाई रौशन हो जाती है। और फिर से सबकुछ पहले जैसा हो जाता है - शांत।
मगर गहराती हुई शांति कभी डरावनी भी हो जाती है, ऐसे में अंधेरे को ओढ़कर मन ढ़क लेता है खुद को और यादों की ड्योढ़ी में रात चुपचाप ताकती रहती है किसी अलसाये प्रहरी – सा। पास किसी पेड़ के पत्ते हवा के छेड़ने से मचल उठते हैं और वीरान खामोशी मौका पाकर जरा खाँस लेती है किसी मरीज के जैसा। रात के दरवाजे पर दस्तक सी होती सुनाई पड़ती है और इधर करवट बदलता हुआ मन डर के घोंसले से बाहर देखता है झांककर तारों की ओर जैसे नाप रहा हो लंबाई रात की। वैसे भी अब तक तन्हाइयों ने काफी लंबा सफर तय कर लिया होता है। बस जरूरत होती है भागती नींद के किसी टुकड़े को खिड़की से खींचकर ख़ुद में समेट लेने की जबतक कि रात की नमी पिघलकर सुबह की रौशनी से चमकने न लगे।
-_-_-_-_-_-_*****_-_-_-_-_-_-_-

मंगलवार, 26 जुलाई 2016

रेनबो

कभी शाम का मतलब होता था किताबों के अधखुले पन्नों को माँ की डाँट के सामने कर हल्के से निकल लेने का समय। बेचारे पन्ने कातर नजरों से देखते रह जाते थे और हम निकल लेते सूरज को अलविदा कहने। सूरज मेरे अलविदा कहे तक पश्चिम में लटका ही रहता इतनी  भी  नहीं छनती थी हमारी। बात बस इतनी होती कि पश्चिम की  नदी उतरने से पहले उसकी गुलाबी किरणें जब शहर की सबसे ऊँची और खुबसूरत मकान की छत पर ठहरती तो किसी नयनाभिराम चेहरे की पानी से टकराकर इंद्रधनुष बन छा जाती। फिर तो क्या उत्तर, क्या दक्षिण सभी दिशाएँ सतरंगी ही दिखती जाती। यह इंद्रधनुष तब तक बना रहता जब तक हम वहाँ से गुजरते हुए अपनी मुस्कान को उसकी छत पर छोड़कर निकल नहीं लेते। पीठ पीछे सूरज बड़ा सा थम्स-अप करते हुए ओझल हो जाता। ऊँची छत की मुंडेर लाँघती बदले में जब उसकी हँसी आँखों से टकराती तो किक खाये फूटबॉल की भाँति मन ऊँचा ही उठता चला जाता। उसके बाद तो खेलने की शक्ति बिना ‘बूस्ट’ पीये ही इतनी बढ़ जाती कि फूटबॉल पीछे छूटी रहती और मैं गोलपोस्ट के अंदर। जब साथियों की सहनशक्ति बिना हवा के टायर जैसी पिचक कर जमीन चाटने लगती तो दांत किटकिटाते एक साथ बढ़ते मेरी तरफ। उनकी नज़रों की बेपनाह मोहब्बत को अधूरा छोड़कर भागना ही ज्यादा उचित लगता उस समय। वैसे उनके गुस्से की धीमी होती आँच को दूर से देखने का भी अलग मजा होता था। फिर दबे पांव शामिल भी हो जाता कुछ ज्यादा भले दोस्तों की सिफारिश पर। खेल ख़त्म होता तो सिलसिला शुरू हो जाता चटपटी बातों का। फिर तो  धूल-धूसरित शाम जब तक अंधेरे की काजल से सज नहीं जाती क्या मजाल कि घर वापस लौटने का ख्याल भी पास फटके। घर लौटते नीम अंधेरे में भी उस ऊँचे मकान की छत पर किसी का मेरे लिए इंतजार बड़ी शिद्दत से अपनी रौशनी बिखेर रहा होता था। फिर एक-दूसरे की तृप्त मुस्कान लौटाते हुए हम दोनों की शाम ख़त्म हो जाती।

शनिवार, 23 जुलाई 2016

शार्टकट समाधान

छोटी-सी बात से शुरू हुआ विवाद झगड़े की शक्ल लेकर खून-खराबे तक पहुंच चुका था। सैकड़ों की भीड़ भी जुट गई थी मगर बीच – बचाव करना उनमें से किसी को नहीं आता था । भीड़ को ऐसे तमाशे की आदत होती है देखते रहने की। गुस्से का ईंधन खत्म होने तक दोनों पक्षों में से कुछ की नाक टूट चुकी थी, कुछ का सर फूट चुका था और जो बच गए थे वे अपने होश दुरूस्त करने में लगे थे। लाठी-डंडे अपना हुनर दिखा चुके थे, अब उनका बाहर रहना कोई जरूरी नहीं था।। भीड़ भी लगभग चौथाई हो चुकी थी। उस चौथाई के एक अच्छे हिस्से में हलचल हुई और कुछ लोग आगे आए। उनके लिए दोनों पक्षों के घायल एक-समान थे। उनके सहयोग से घायलों ने अस्पताल में जगह पायी और बाकियों ने थाने की राह पकड़ी। अस्पताल का बिल तो कम निकला लेकिन थाने की ‘फीस’ ने दोनों पक्षों के सलामत लोगों के तबीयत भी बिगाड़ दिए। पक्षवार ‘फीस’ इस प्रकार थी-
पाँच हजार – बड़ा बाबू की सलामी के,
एक हजार – मुंशी जी का नजराना
और बाक़ी संतरी आदि के लिए खुशीपूर्वक जो दे दें।
उनके चेहरे के उड़े तोते देखकर एक संतरी को दया आयी और उसने एक सुझाव दिया। नतीजा यह हुआ कि थाने के एक कोने में ही कुछ देर पहले तक एक-दूसरे के खून के प्यासे लोगों ने साथ बैठकर शांतिपूर्ण तरीके से सोचने का फैसला किया। निष्कर्ष निकला कि लड़ाई बहुत खर्चीली होती जा रही है। जब शुरूआती क़ीमत इतनी बैठ रही है तो आगे जाकर जमानत, कोर्ट – कचहरी और तारीख़ो के झमेले इसकी क़ीमत बढ़ाते ही जाएंगे। उनकी समझ से लड़ाई सस्ते में ही ख़त्म करने में सबकी भलाई थी।
अंत में, मुंशी जी की मुट्ठी में हज़ार के दो नोट देकर और बड़ा-सा अहसान-बोध लेकर दोनों पक्षों ने आपसी समझौते की पावती प्राप्त कर ली। सबने इस नेक राय के लिए अच्छे दिल वाले संतरी का शुक्रिया अदा किया और लौट चले। वापसी में सारे लोग इस बात पर एकमत थे कि इतने कम समय और पैसे में  इससे बेहतर समाधान निकलना मुश्किल था।


मंगलवार, 19 जुलाई 2016

शब्द-दर्पण - 2

सड़क पर टहलते हुए अचानक से सुनाई देती है कानों को चीरती हुई किसी इंजन का शोर..स्वच्छ और निर्विरोध सुबह कुछ पल के लिए बिखरने लगता है। मैं निकल पड़ता हूँ थोड़ा और आगे। जहाँ न कोई शोर सुनाई दे न बिखरी हुई सुबह लगे। मैं चाहता हूँ सुकून, जरा ठहरा-सा। अपनी ही दुनिया से छुटकारा चाहिए होता है, सिर्फ कुछ समय के लिए। आँखों को थोड़ी फुर्सत चाहिए होती है नजारों को संचित करने के लिए। एक अहसास चाहिए होता है कि यहाँ सिर्फ मैं हूँ और कुछ लम्हे हैं रूके-से। नजरे दूर-दूर तक जाती हैं और पहाड़ों के बीच ठहर जाती हैं जैसे कि वापस न आना चाहती हों। पहाड़ों को छूकर गुजरती नजरे चाहती हैं कै़द कर लेना खूद में, थोड़ी-सी नर्म – नर्म हरियाली और उसपर परावर्तित होती सुंदर हल्की पीली किरणें। ऐसे में मैं नजरों को वहीं छोड़कर आ जाता हूँ वापस अपने पास। कि मन लगता नहीं यह सोचकर कि इन खुबसूरत नजारों को तुम्हारा साथ मिल जाता तो दृश्य कुछ और ही होता। कितना अच्छा होता कि इन पर्वतों की हरियाली तुम्हारे नर्म – नाजुक चेहरे की रक्तिम आभा लेकर थोड़ी अलग रंगीनियत पैदा करती। पहाडों की तलहटी में खिला एक कमल के जैसा तुम्हारा सुंदर मुखड़ा मैं निहारता रहता अपनी हथेली से सूरज को पीछे धकेलते हुए। कि जरूरी नहीं होता उसका आ धमकना इधर, जबकि पहले ही बहुत उजाला होता इधर हम दोनों की साझी दुनिया का। थोड़ी दूर पर गिरते झरने का जल जब लहराता हुआ निकलता तुम्हारे पैरों की रंगत लेकर तो मैं उनके आइने में तुम्हारा मुस्कुराता चेहरा देखा करता। यह सब सोचते – सोचते न जाने कब मैं बैठ जाता हूँ उसी झरने के किनारे। और पानी में एक चेहरा बनने बिगड़ने लगता है, बिल्कुल तुम्हारे होने जैसा!

शनिवार, 16 जुलाई 2016

ज़रा-सी दोस्ती

एक अच्छे राँग नम्बर से शुरू हुई दोस्ती थी। धीरे-धीरे बढ़ती गई। बातें भी, दोस्ती भी। जब वह ज्यादा खुश होती तो कहती –“ बाबू! यू आर माय बेस्ट फ्रेंड!”और मैं घबरा कर पूछ बैठता – “सच में?”
मैं भी किसी का बेस्ट फ्रेंड हो सकता हूँ – सुनकर संतोष होता। ऐसा इसलिए कि मेरे हिसाब से बेस्ट फ्रेंड वाली खूबियाँ मुझमें नहीं के बराबर थीं। फिर मुझे लगता कि कहीं यह अति-उत्साह में कही जाने वाली बात तो नहीं? मैं तस्दीक करता-“यार! कभी भूल तो नहीं जाओगे!”
और वह कहती-“नहीं डियर! तुम्हारे जैसा सच्चा फ्रेंड कहाँ मिलेगा? आय विल बी विथ यू… फॉरएवर.. एण्ड एवर..!
कभी वह मेरे बारे में पुछती तो मैं कहता – न तो ज्यादा स्मार्ट, न ही गुड लूकिंग हूँ…
बीच में बोल पड़ती वह-“सो व्हाट बाबू? यू हैव ए स्वीट हर्ट इनसाइड यू। प्लीज रीमेन विथ मी, ऑलवेज.. एण्ड डोन्ट एवर डेयर फॉरगेट मी or आय विल किल यू..!”
“मैं कभी रिश्ते नहीं तोड़ता डियर.. चाहे वह फ्रेंडशिप ही क्यों न हो”-हंसते हुए मैं कहता.. अमूमन बात यहीं पर खत्म हो जाती। फिर उसने जिद की मिलने की। पर मैं नहीं चाहता था मिलना। एक डर था कि कहीं वह मुझसे दूर न हो जाए। उसकी दोस्ती मुझे प्यारी थी। पर उसकी जिद के आगे मेरी एक न चली। मेरा डर सही निकला और उसकी बातें झूठीं। धीरे-धीरे वह मुझसे दूर हो गई।
मैं उस समय भी सही था जब उसकी अपनापन वाली बातों से डरता था। आज भी सही हूँ जब याद करता हूँ उसकी कही बात – “डोन्ट एवर डेयर टू फॉरगेट मी or आय विल किल यू।“
“आय स्टिल डोन्ट डेयर टू फॉरगेट यू डियर फ्रेंड.. बट व्हाट अबाउट यू।“-अगर कभी मिलना हुआ दोबारा तो जरूर पूछूँगा।




चित्र : desicomment.com से साभार

रविवार, 10 जुलाई 2016

प्रेम उधार रहा

                       *प्रेम उधार रहा*

याद नहीं कब रश्मि मुझे अच्छी लगने लगी थी। बहुत जोर देने पर भी नहीं। शायद आहिस्ता-आहिस्ता शामिल हुए थी रश्मि मेरे विचारों की सीमा में। जैसे बसंत आता है पतझड़ की सीमा में शनै:-शनै:। जैसे नींद का आना होता है धीरे-धीरे आधी रात के बाद। जैसे हरियाली आती है हौले-हौले दो चार बरसातों के पीछे।

शुरूआत शायद उसकी निश्छल मुस्कान से हुई होगी। मोतियों- से सजे उसके दाँत ज्यादातर होंठों के पर्दे में ही रहते थे। मगर जब अनावृत होते तो अपने आसपास की दुनिया आलोकित कर जाते। इसी चमक में शायद दिखी होगी पहली रोशनी प्यार की। या शायद उसकी पतली काली भवों के बीच शोभित उस बिंदी ने सुझाया होगा मुझे रास्ता प्रेम का। उस छोटी-सी बिंदी से उसके सुंदर चेहरे की आभा और निखर जाती थी। मानो निर्मल आकाश में चंद्रमा! और यह भी हो सकता है कि हिरणी–सी बड़ी–बड़ी बिना काजल के ही काली आँखों की चंचलता ने खींचा हो ध्यान मेरे अंतर का।

खैर स्पष्ट रूप से तो मुझे भी नहीं पता कि वह कौन सी झंकार थी रश्मि के व्यक्तित्व की जिसकी धुन पर नाचने लगा था मेरा मन। पर रश्मि से मेरी पहली मुलाकात मेरी यादों के दस्तावेजों में साफ-साफ अंकित थी ।

तब पहली बार मैंने महसूस किया था उसका होना। कहने को तो वह अपनी सहेलियों के साथ थी। लेकिन मेरी नजरों में वह अकेली ही आयी थी। हंसी – ठिठोली करती लड़कियों की टोली में वह किसी प्रतिमा सी दिखती थी। सफ़ेद सलवार और आसमानी कुर्ते में सिमटी उसकी लंबी सुडौल देह झलक रही थी। उसपर गुलाबी रंग की बिंदी भवों के बीचों-बीच। मैंने कनखियों से देखा-अप्रतिम थी वह। कहाँ थी आज वाली मेरी आँखें अब तक। और कहाँ थी यह रूप की लहराती डाल।

“दर्पण देखते स्वयं पर अभिमान तो जरूर होता होगा..”-मेरे मन ने अंदाजे से कहा।

कुछ दूर के फासले में चलता मेरा मन कदमों से आगे निकल गया था। उसकी ओर।
उसे पूरी नजर से देखने को, उसकी आवाज सुनने को, उसका नाम पूछने को मन छिटक रहा था, मेरी सोच से आगे निकल कर। नजर हटती नहीं थी उसकी लम्बी लहराती लटों से। मन हवा पर सवार होकर उलझना चाहता था उसके बालों में। उसकी नज़ाकत भरी चाल से निर्जीव सड़क को जीवित होते देख सकता था मैं।

उस समय लग रहा था कि रास्ता ज़रा और लम्बा हो जाता। पर ऐसा हुआ नहीं। रश्मि आगे बढ़ गयी थी और मैं अपने गांव की ओर मुड़ गया था। पर जाने से पहले उसका एक बार पलटकर देखना भी सौ मन्नतें पूरी होने की खुशी के बराबर था। मैंने देखा था, मेरी ओर देखती उसकी आँखें मुस्कान भर रही थीं उसके चेहरे पर। मैं पूछना चाहता था उससे-“क्या तुम भी..!”
पर उसके सखा-सहेलियों के सामने हिम्मत जवाब दे गई। वह चली गई थी मेरे सीने को खाली करके जो अब हल्का महसूस कर रहा था और उड़ना चाहता था, बादलों से ऊपर..! चाहता था पल भर को नीचे आना प्यार की हवा में सांस लेने और फिर वापस खो जाना किसी अकेले अनंत में।
मन कर रहा था कि उसके कदम चूम लूँ, पर वह तो जा चुकी थी। सिर्फ उसके कदमों के निशान थे। मैंने आगे-पीछे देखा, लोग –बाग जरा दूर थे। मैं झूका और छू लिया उन कदमों की छाप को जो रश्मि के गुजरने से बने थे। कुछ देर के बाद ये निशान अपने अस्तित्व खो देने वाले थे।

रश्मि की तरफ झूकते दिल के पलड़े को बैलेंस करने की कोशिशें जब नाक़ाम साबित हुईं तो बात दिमाग के संज्ञान में लायी गयी। दिमाग की भवें उठीं-“नहीं!”
“क्यों?”-दिल के अपने सवाल थे। जायज़ था पूछना भी।“क्या वह अच्छी नहीं!”
“ऐसी बात नहीं..”
“क्या वह भली नहीं!”
“ऐसी बात नहीं..”
“क्या वह मेरे प्यार के काबिल नहीं!”
“ऐसा मैंने कब कहा..”
“क्या मैं उसके काबिल नहीं!”
“यह बात भी नहीं, दोस्त!”
“तो फिर..”- दिल ने बेचैन हो कर पूछा।
कुछ देर सोचने के बाद दिमाग ने कहा – “अभी अपने पढ़ने-लिखने के दिन हैं दोस्त, इसी पर ध्यान देना होगा।“
“लेकिन दिल तो उधर लगा रहता है रश्मि की ओर, अकेले तुमसे हो पाएगी पढ़ाई?”-मैंने दिमाग को अपनी शंका से अवगत कराया।
दिमाग परेशान दिखा। बिना दिल के लगे अकेले दिमाग के लिए पढ़ाई मुश्किल थी।
उसने दिल को समझाया – “देखो दोस्त! खाली प्यार-व्यार से दुनिया नहीं बनती, उसका भी वक्त आएगा।“
“पर तब तक वह दूर चली जाएगी, उसे पढ़ने में ज्यादा मन नहीं लगता, बता रहा था मेरा दोस्त अभिनव।“-दिल की अपनी चिंता थी।
“अच्छा! उसकी बड़ी चिंता हो रही है, पर उनका क्या जो तुम्हारे सहारे सुनहरे भविष्य के सपने देख रहे हैं?”- दिमाग ने दिल की कमजोर नस दबा दी थी।

***

घर की तंगहाली के बीच मेरी किताबें ऐसे चमकती थीं जैसे बादलों से भरी रात में दूर चमकती बिजली की कौंध। अंधेरा मिटने के लिए दिन का निकलना आवश्यक होता है। मेरे घर की तंगी और गरीबी मिटाने के लिए मेरा अपने पैरों पर खड़ा होना ही काफ़ी नहीं था। जरूरत थी इस रेस में दौड़कर आगे निकलने की। मुझसे छोटी दो बहनों का भविष्य भी मुझसे बंधा था, यह बात मुझे आठ-दस बरस का होते-होते अच्छी तरह समझा दिया गया था। मन कभी भूलना भी चाहता तो मस्तिष्क अपनी डुगडुगी बजा देता और मन वापस खो जाता किताबों की दुनिया में।

उस दिन मन और मस्तिष्क ने एक-दूसरे से बात न की। मन जहाँ रश्मि की सोच में डूब-उतर रहा था वहीं मस्तिष्क में भी हलचल मची थी कि आख़िर रश्मि का चित्र इतनी जल्दी मन के फ्रेम में तैयार कैसे हो गया। इसने तो कभी प्रेम की कूची को देखा भी नहीं था। उसे गुस्सा भी आ रहा था। आख़िर मन ने उसके साथ छल किया। मन की अपनी उलझन थी। क्यों उसे ही झेलना पड़ता है भावनाओं का दर्द। क्यों उसी के हिस्से में आता है अकेले होने की तड़प।

मेरे मित्र अभिनव ने बताया था उसका नाम –“ रश्मि! अपने पड़ोसी गांव की है। क्या बात है जनाब परेशान से दिखते हैं!”-उसने बात की तह तक पहुंचने की कोशिश की।
मैंने गाते हुए से कहा था –
“साथी रे साथी..
याद तुम्हारी..
कहाँ से है आती..
और कहाँ को है जाती..
सुखी डाली मन की..
जाए झूलाती..!”
“बस.. बस.. बस.. जनाब सब समझ गया” - अभिनव ने कहकहा लगाया।
“यार मुझे उससे मिलना है..”
“तो मिल लेना..ऐसी भी क्या जल्दी है!”
“फिर से गीत सुनाऊँ क्या?”
“नहीं भाई! तू रहने दे, मैं समझ गया तुम्हारी बेताबी।“
“यार! जल्दी ही तो है, पूरी दुनिया खाली दिखती है उसको देखने के बाद। अब उससे मिलकर ही पूरी हो सकेगी। चाहे एक बार ही सही।“

अभिनव किताबों के अलावा दुनिया की ज्यादातर चीजों की ख़बर रखता था। वह मेरी स्थिति से भी अवगत था और उसके सामने आनेवाली मुश्किलों से भी। जिस देश में प्यार को छूआछूत समझा जाता हो, जहाँ लोग इसे बीमारी समझकर इससे डरते नहीं बल्कि भागते हों वहाँ दो प्रेमियों को एक जगह लाना कितनी टेढ़ी खीर थी यह अभिनव को भली-भाँति मालूम था। और यहाँ तो बात गांवों की थी जहाँ ऐसे मामले बातों से नहीं, गोली – बंदूकों से निपटाए जाते थे । उसने समझाते हुए कहा – “नहीं आयुष! तेरी खाली दिखने वाली दुनिया पूरी तरह भरी हुई है – लोगों की चौकस निगाहों से, बातों में अर्थ नहीं अनर्थ ढूँढ़ते कानों से। मिलना तो दूर अगर किसी ने सुन भी लिया तो तूफान आ जाएगा। जानता नहीं उसके दबंग बाप को तू।“

अभिनव के शब्दों ने मेरी बेचैनी और बढ़ा दी थी।

अधीर होते हुए मैंने कहा – "यार अभिनव! यह बता कि हमारे क्लास-टीचर कम दबंग हैं क्या? फिर भी मैं हर बार तुम्हें नकल करवा कर पास करवाता हूँ न?"
असर में आने लगा था अभिनव मेरी बातों की गम्भीरता से।
"परिक्षाएँ फिर से आयी हैं सर पर। ऐसे में तू पास न हो तो दुख तो मुझे भी होगा न..तू समझता क्यों नहीं भाई !"

बात अभिनव के समझ में आ गई थी। उसे पता था कि मैं ऐसी बीमारी से पीड़ित हूँ जिसका इलाज रश्मि की एक झलक से ही हो सकती है। मरता क्या न करता! अभिनव के लिए अपनी परीक्षा पास करना जरूरी था और मेरे लिए रश्मि से जल्द ही मिलना। अभिनव की प्रतिभा पर मुझे पूरा भरोसा था। इस भरोसे को तोड़ने का जोखिम वह नहीं ले सकता था, लिया भी नहीं।

अगली बार जब वह मिला तो चहकता हुआ मिला।
“रश्मि को भी तुम्हारा ही इंतज़ार था। आज से तीसरे दिन रविवार को उसे बाज़ार से थोड़ा पहले सड़क के बगल के बगीचे में मिलना। वह अपनी एक सहेली के साथ वहीं आएगी।“
दिमाग ने फिर चेताया था- “वहाँ तो काफी लोग आते-जाते होंगे, बदनामी होगी।“
“लोगों की तो आदत है दूसरों की ओर झांकने की, उनकी परवाह क्यों करना!”-मन ने प्रत्युत्तर में कहा था।
“पर इन बातों में उलझने की जरूरत ही क्या है? कहीं बात फैल गई तो…!”-दिमाग का डर उभर आया था।
“कभी किताबों की दुनिया से बाहर आते तब तो समझते कि प्यार भी कोई शै है!”-मन ने मजाक उड़ाया था।

दिमाग ने बहस करना उचित नहीं समझा। उसे वास्तविकता की समझ थी। वह जानता था कि उसपर सबकी आशाएँ टिकी थीं। सच था कि मेरे जीवन में पढ़ाई के अलावा किसी और बात के लिए सोचने की गुंजाइश ही कहा थी।
“मन तो कोमल है, इस घड़ी बावला हुआ जाता है। विद्रोह की संभावना है” – दिमाग चुप हो गया था।

***

रविवार का इंतज़ार करना मेरे लिए अब तक का सबसे मुश्किल काम साबित हो रहा था। मचलते मन ने हलचल मचा रखी थी। जैसे लहरों के उन्माद में सागर के किनारे भी अशांत होते हैं वैसे ही मन के उन्माद में मैं अशांत महसूस करता था।
ख़ैर, आते-आते रविवार भी आ गया। नाराज़ दिमाग़ को घर पर ही बिठा कर मैं मुदित मन के साथ निकल पड़ा एक अहसास को जीने के लिए। दिल के रास्ते में धड़कनों का तेजी से आना-जाना हो रहा था। किसी की आँखों में अपने-आप को देखने वाला था मैं। मन मेरा भागा जा रहा था उसी रास्ते की तरफ़ रश्मि जिधर आने वाली थी।
मैं बार-बार पीछे छूट जाता था। मन देखता कभी पलटकर, मुस्कुरा देता और फिर भागने लगता।
रश्मि के बारे में सोचता मैं भी चला जा रहा था। देखा- गंतव्य से थोड़ा पहले मन रूक गया था, पेड़ की टेक लगाए।
“थक गए क्या?”-मैंने पूछा।
“हाँ”-संक्षिप्त उत्तर दिया उसने।
“ठीक है, थोड़ा रूक जाते हैं, फिर चलेंगे। वैसे भी अब पहुंचने वाले हैं..”
“नहीं! अब हम नहीं जा रहे।“
“क्यों? रश्मि नहीं आ रही क्या?”- निराश होने लगा था मैं।
“वह तो आयी हुई है, देखो दिखती है यहीं से..”-मन विह्वल होकर बोला था।
“फिर क्या हुआ? क्यों परेशान करते हो बेचारी को? इंतजार कष्ट देता है, नहीं जानते! कहीं तू भी तो नहीं डर रहा उसके दबंग बाप से, दुनिया की बातों से? “
“जानता हूँ, लेकिन मिलने के बाद बिछड़ने का दर्द ज्यादा कष्टप्रद होता है और मैं नहीं डरता किसी के भी आप-बाप से..”-मन ने तुनक कर जवाब दिया। “एक बार मेरी बात का जवाब दे दो आयुष, फिर मैं तुम्हारे साथ रहूँगा।
“बिछड़ने की बात कहाँ से आ गई मिलने के पहले ही?”-मन के इस रवैये से मुझे चिढ़ होने लगी थी।
“तो क्या रश्मि के साथ जिंदगी बीता पाएंगे हम..” – मन के इस सवाल ने मेरे होंठ सील दिए थे।
थोड़ी देर शांति रही, फिर सोचपूर्ण भाव से मैंने कहा – “शायद नहीं।“
“शायद क्या, बिल्कुल नहीं आयुष! उम्मीदों के बोझ से दबी अपनी जिंदगी से क्या दे पाएंगे हम रश्मि को, इंतज़ार के सिवा। उसके सपनों, उसकी आशाओं को हम कुछ दिनों, कुछ महीनों तक अपने नाम पर ठहरा तो सकते हैं, परन्तु उसे मंजिल कभी नहीं दे पाएंगे आयुष! जरा सोचो!” मन आज मस्तिष्क की आवाज में बोल रहा था –“ वह बेचारी इंतज़ार के सिवा कुछ नहीं पाएगी हमसे। वर्षों के लिए बिछड़ने की तड़प देने से कहीं बेहतर है कुछ पलों, कुछ दिनों का इंतजार।“

मन ने गहरा मंथन किया था। मुझे भी नहीं बताया था। पर इस वक्त मन का यह रूप मुझे तड़पा रहा था। विचलित-सा मैं बोल उठा- “लेकिन रश्मि भी प्यार करती है मुझसे, उसे कितना बुरा लगेगा?”
“इसीलिए तो..”-मन ने खुद को काठ बना लिया था, - “जो तुम्हें प्यार करती है उसे जीवन भर तड़पने के लिए छोड़ना ठीक नहीं आयुष। वह पगली कुछ घंटे, कुछ दिन तुम्हारी राह देखेगी आते-जाते फिर यह समझ कर कि तुम उसे प्यार नहीं करते थे भूल जाएगी। बस बात ख़त्म। बहुत होगा तो तुम्हें मनचला समझ कर थोड़े दिन कोसेगी। पर बाक़ी जिंदगी तो चैन से गुजारेगी। किसी और के प्यार को स्वीकार करेगी।“

“और मेरा क्या होगा?”-मैंने पूछा।
“तुम खाली हाथ नहीं जा रहे आयुष। वह देखो रश्मि बार-बार इधर ही देखती है तुम्हारी राह। तुम जानते हो कि वह तुम्हें प्यार करती है। तुम अधुरे कहाँ रहे। तुम्हारा प्यार पूरा हो गया आयुष।“

बात सही थी। रश्मि की जिंदगी चैन से बीते और उसके सपने सजते रहें, इसके लिए मेरा उससे दूर रहना ही बेहतर था। वैसे भी मुझ गरीब के पास उसके प्यार की दौलत तो थी ही। मेरे जीवन का खर्च आराम से पूरा हो जाना था इससे।

दिल का काम भी पूरा हो चुका था। उसमें रश्मि के प्यार की खुशबू बस गयी थी।
रश्मि को अपने दिल के गहरे में छुपा कर मैं वापस मुड़ गया था। भारी हो चुके मन ने आँखों के रास्ते कुछ आँसू निकाल दिए ताकि वापसी की राह आसानी से कट सके।




चित्र desibucket.com से साभार.






रविवार, 3 जुलाई 2016

पलाश के फूल

*पलाश के फूल *

शाम का समय समुद्री तट की जवानी का समय होता है। लहरों की पागल कर देने वाली चाल और उनकी ताल पर नाचते लोगों के मन। इनके बीच जहाँ – तहाँ पलाश के फूल जैसे दूर से ही दृष्टिगोचर होती जोड़ियाँ। रोहन के लिए यह समझ पाना मुश्किल होता था कि इतने लोगों की भीड़ और बेचैन लहरों के शोर में आखिर ये प्रेमी जोड़े इतना एकाग्र कैसे रह लेते हैं।
हमेशा की तरह टहलते हुए वह भीड़ भाड़ से अलग चट्टानों की संगत में बैठा था। इनके बीच बैठना उसे सुकून देता था। अनंत से चलकर लहरें आतीं और उन शिला-खंडों को चूमती हुई वापस लौट जातीं। सदियों से चलता यह सिलसिला रोहन को अनुभूति से भर जाता। लहरों और शिलाओं का यह प्रणय-प्रलाप उसके मन को बहुत भाता था।

दो निर्जीव आयामों का यह सजीव कलह अक्सर वह अकेला ही देखा करता। उस दिन भी वह खोया था लहरों के खेल में। आँखें दुनिया के उस ठुकराये हुए सुनसान का लुत्फ उठा रही थीं। अचानक से आँखों ने संशय को महसूस किया। दिमागी राडार में भी कुछ संकेत मिले। स्व-निर्देशित सी पुतलियाँ एक निश्चित दिशा में मुड़ गईं। आँखों ने थोड़ी दूरी पर एक आकृति के उभरने का संकेत दिया। और फिर पानी से एक आवाज आयी.. असामान्य-सी। कुछ गिरने की। उत्सुकतावश बढ़ गया आवाज की दिशा में। पास जाने से उसने जो देखा वह काफी था उसके होश उड़ाने को।
पानी की गहराई में एक धुंधली-सी आकृति डूबती उभरती थी।
किसी की जान खतरे में है।
रोहन विचलित हो उठा। पानी के जोड़ – घटाव में उलझने का समय भी नहीं था न ही आसपास कोई मनुष्य जिसे वह बुलाता मदद को। जल के लहराते शोर में उसकी आवाज का वहाँ तक जाना नामुमकिन था जहाँ लोग लहरों का उत्सव देखते खड़े थे। “कोई डूब रहा है.. “-वह जैसे सोते से जागा।
“नहीं, उसे बचाना ही होगा। “
उसने पानी में छलांग लगा दिया।

उसने अपने गांव की नदी में तैरना सीखा था कुछ साल पहले। परन्तु नदी और समुद्र के पानी में भी फ़र्क होता है और दोनों की परिस्थितियों में भी। समुद्र की कोई थाह नहीं होती न ही इसकी लहरों का कोई भरोसा। उसकी नसों में सिहरन सी दौड़ गयी। उसने डर को काबू में किया और लहरों के क्रोध से खुद को बचाते हुए आगे बढ़ता गया। कुछ उसकी किस्मत अच्छी थी और कुछ समन्दर का मिज़ाज़। किनारे की तरफ आती बड़ी – सी एक लहर ने डूबने और बचाने वाले की बीच की दूरी कम कर दी। रोहन के हौसले को उम्मीद मिली। उसने पूरा जोर लगा दिया। वह जानता था कि वक्त बहुत कम है और अगर वह चूका तो उसे बचाना असंभव हो जाएगा।
वह एक लड़की जान पड़ती थी। शुक्र था कि वह होश में थी। रोहन ने अपनी उखड़ती सांसों को किसी तरह थामे रखा। किनारा थोड़ा दूर सही मगर मकसद तो मिल गया था। एक जिंदगी का सवाल था। उसने अपना धैर्य नहीं खोया। एक हाथ से लड़की को खींचते और दूसरे से लहरों को काटते वह किनारे पर पहुँच ही गया। पानी का प्रभाव कहें या कुछ और लड़की को उल्टी हुई और वह बेजान सी लेट गयी।

थोड़ी देर बाद उसने आँखें खोली। उसे विश्वास नहीं हुआ कि वह जीवित है जबकि कुछेक मिनटों पहले वह मौत की सेज पर सोने चली थी। उसने फिर से आँखें बंद कर ली।
जान तो रोहन की भी निकली जा रही थी। आज तक उसने पानी का ऐसा रूप नहीं देखा था।
थोड़ा समय बीता और उसने आँखे खोली। रोहन की तरफ नजर गयी फिर झूक गयी। शर्मिंदगी से भरा चेहरा उठाया न जा रहा था। कुछेक बोलना चाह रही थी पर शब्द ठहर से गए थे भीतर ही कहीं। रोहन से उसकी हालत छुपी न रह सकी। उसने लड़की जो कि बीस के आसपास की होगी के सिर पर हाथ रखा स्नेह से-“ क्या मैं इस सुन्दर से चेहरे का नाम जान सकता हूँ? और हाँ तुम्हें यह बताने की जरूरत नहीं कि तुमने ऐसा क्यों किया। दुनिया को अलविदा कोई शौक से नहीं करना चाहता यह मैं जानता हूँ। वैसे मेरा नाम रोहन है।
“सोनम.. “
उसकी आवाज में जैसे खनक थी।
“बहुत प्यारा नाम है”। रोहन ने मुस्करा कर कहा।
“मसखरी न करो, बस नाम ही तो है, इसमें प्यारा क्या है! “वैसे भी लड़कियों की कौन सी बात गलत लगती है जो नाम गलत लगेगा। “

अरे यार, अजीब लड़की हो! जरा चैन तो ले लो। अभी-अभी लहरों से छूटकर आयी हो। कुछ शुक्रिया तो करती जाओ। उनका ही, मेरा न भी करो तो कोई बात नहीं। वैसे सच कहा तुमने सोनम कोई नाम है भला! नाम होना चाहिए था – सोनमती, फूलमती या पारवती…रोहन ने मुँह बनाते हुए कहा।

रोहन को मुँह बनाते देखकर उसकी हँसी छूट गयी।
हँसी के पीछे एक पतली-सी लकीर भी खींच गयी थी, दुख और बेबसी की। रोहन ने देखा – उसकी आँखों के किनारे एक जोड़ी धारा बह चली थी।
क्या वजह हो सकती है – रोहन ने सोचा।
प्रत्यक्ष में सोनम से कहा – चाहो तो जोर से रो लो, ऐसा कि आंसूओं से समन्दर का पानी भी मीठा होता जाए।
आँसू मीठे नहीं होते।
सबके कहाँ होते हैं पर तुम्हारी बात जरा अलग है।
सोनम मुस्कुराने पर मजबूर हो गयी थी।

रोहन की बातें अजनबीपन के दायरे से बाहर की थीं। एक तो अपनी जान पर खेलकर उसने सोनम की जान बचायी ऊपर से ऐसी प्यारी बातें, किसका मन नहीं फिर पिघलेगा। वैसे भी अच्छे लोगों का साथ दुख कम कर जाता है, अगर खत्म न भी करे तो। “यह सच है रोहन कि कुछ देर पहले मैंने अपनी तरफ से दुनिया को अलविदा कह दिया था। इस सुनसान का सहारा मैंने यही सोच कर लिया था। पता नहीं ऐसा क्यों हुआ कि जब जिंदगी खत्म लग रही थी तो मन में पहला खयाल यही आया कि मुझे ऐसा नहीं करना चाहिए था। यह मन की पुकार थी या कुछ और, लेकिन इस अंधेरे में भी अगर जीवन का उजाला मैं देख पा रही हूँ तो सिर्फ़ तुम्हारी वज़ह से। यह अहसान ताउम्र रहेगा मुझपर। हर पुजा में तुम्हारी जिंदगी के लिए मन्नतें करूँगी।“

 रोहन देख रहा था। डबडबायी आँखें ज्यादा नहीं बोल पाएँगी अब। सोनम अब कुछ सामान्य दीख रही थी।

उसने कहा – “सोनम! मैंने वही किया जो एक आदमी ऐसी सिचुएशन में करता है। तुम्हारे हिस्से में अभी जीना बाकी लिखा है। तुम्हें यह हक़ नहीं होना चाहिए कि इसे नुकसान पहुंचाओ। वैसे बातों से तुम खुद समझदार हो। बुरा मत मानना, तुम्हारी मनोदशा अभी ठीक नहीं है। मेरे परिचय के एक डॉक्टर हैं तुम्हें एक बार उनसे मिल लेना चाहिए।“
इसकी जरूरत नहीं है रोहन.. मैं बिल्कुल ठीक हूँ। वह एक आवेश था जिसमें मैंने ऐसा कदम उठाया बाक़ी नथिंग इज सीरियस.. मेरा विश्वास करो।

उसने बताया कि वह अपनी एक सहेली के साथ रहती है पेइंग-गेस्ट में। शहर के एक प्रतिष्ठित कॉलेज से एम. बी. ए  कर रही है। रोहन ने आग्रह कर उसे उसके पी. जी. तक छोड़ दिया। न तो सोनम ने न ही रोहन ने इस घटना के बारे में उसकी सहेली, प्रेरणा को कुछ बताया।

महानगर की व्यस्तता इसकी प्रकृति पर गहरा असर डालती है। यहाँ लोग मिलते हैं, कुछ कदम चलते हैं, आगे बढ़ जाते हैं। बहुत कम मुलाकातें अपनापन के रिश्तों तक पहुंच पाते हैं। प्रारंभ के कुछ दिनों तक रोहन उसका हाल – चाल पूछ लेता था। मगर सोनम ने अपनी तरफ से कभी कॉल नहीं किया था। व्यस्त दिनचर्या में रोहन भी इस बात को भूल ही चुका था। उधर सोनम ने भी कभी रोहन की ख़बर नहीं ली। हाँ, उस बीच पर उसका आना-जाना लगा रहता था।

इस घटना को दो साल हो चुके थे।
एक दिन वह टेलीविजन के सामने बैठा चैनलों के मकड़जाल में खोया था। कोई भी चैनल पर नजर टिक नहीं पाती थी। “ये चैनल भी आजकल बोर करने लगे हैं.. “ वह भुनभुना उठा। वह टेलीविजन बंद करने ही जा रहा था कि अचानक एक समाचार चैनल पर उसकी नज़र ठहर गयी। तस्वीरों में एक युवती विक्षिप्तावस्था में दिख रही थी। पुलिसकर्मियों से हाथापाई करती उस युवती पर नजर पड़ी तो सहसा चौंक पड़ा रोहन।
सोनम..!
एक डॉक्टर होने के नाते उसे समझते देर नहीं लगी कि सोनम गहरे अवसाद से पीड़ित थी। वह समझ सकता था कि क्यों कभी सोनम ने उससे संपर्क नहीं की। उससे और इंतजार न हो सका।
रास्ते भर सोनम का प्यारा चेहरा उसे याद आ रहा था। उसकी बातें ताज़ी हो रही थी। उसे स्वयं पर गुस्सा भी आ रहा था कि एक मनोचिकित्सक होने के बाद भी उसने सोनम को जाने दिया अवसाद के घने जंगल में भटकने के लिए। पर वह कर भी क्या सकता था। एक अंजान सी लड़की को वह जोर जबरदस्ती रोक भी तो नहीं सकता था। उसे अफसोस हुआ कि क्यों नहीं उसने बीच में कोई ख़बर ली।
पर वह उसकी कौन थी जो ख़बर लेता।
दोस्त! – नहीं।
परिचित! – नहीं।
रिश्ते में भी नहीं। फिर किस हैसियत से वह जाता उससे मिलने। जबकि उसे कुछ पता भी तो नहीं था। उसके बारे में, उसकी  जिंदगी के बारे में।
तो अब क्या हुआ? आज भी तो वही बातें हैं, वहीं परिस्थितियाँ हैं – उसने सोचा।
नहीं आज उसे मेरी जरूरत है, एक दोस्त के रूप में भी एक डॉक्टर के रूप में तो ख़ैर है ही।

पुलिस स्टेशन में जब उसने गाड़ी रोकी तो परिसर मीडियाकर्मियों से खचाखच भरा था। उसने मन ही मन उनका धन्यवाद किया। चाहे बाजार के हिस्से के लिए ही सही इन ख़बरों को चलाने का कुछ मकसद तो पूरा हो ही जाता है।
उसने पुलिस को अपना परिचय दिया। संक्षेप में उसने दो साल पहले का वह वाक्या भी बता दिया। पुलिस के अनुसार मदहोशी की हालत में रेलवे स्टेशन से उसे लाया गया था। उसे निकटवर्ती अस्पताल में अभी भर्ती कराया गया था।
उसने सोनम के होश में आने का इन्तज़ार नहीं किया। सारी कागज़ी कार्रवाई वह पहले ही पूरी कर चुका था।

कुछ देर बाद सोनम ने आँखे खोली तो अपने को एक अस्पताल के कमरे में पाकर चौंक गयी। कमरे के वातावरण और उसके रखरखाव से वह समझ गयी कि वह कोई प्राइवेट अस्पताल के कमरे में है। थोड़ी देर में दरवाजा खुला और रोहन ने कमरे में प्रवेश किया।
अ. रे.. ! रो.. ह.. न.. तु.. म.. बड़ी मुश्किल से वह बोल पायी।
हाँ मैं! शुक्र है कि तुमने पहचाना।
सोनम ने नज़रें झूका ली।
“और यह सब क्या है सोनम? तुमसे पहली बार मिला था तो मुझे तुमपर दया आयी थी पर इस बार मुझे गुस्सा आता है.. “
“एक प्रतिष्ठित कॉलेज की स्टूडेंट और देखने में सुलझी हुई लड़की की ऐसी हरकत.. सोचने में भी शर्म आती है.. “
सर!!
पीछे से नर्स की आवाज आयी।
क्या है? – भन्नाते हुए कहा रोहन ने।
सर, सी इज सीक नाओ.. सी निड्स योर सिम्पथी सर!
आय एम सॉरी.. मैं.. कुछ पल के लिए मैं भूल ही गया था।
उसने स्वयं को नियंत्रित किया।

सोनम से मुखातिब होते हुए उसने कहा – माफ़ करना सोनम, मैं जरा ज्यादा बोल गया। पर एक डॉक्टर के नाते इस बार मुझे सारी बात सुननी है तुम्हारे मुँह से। तभी मैं तुम्हारी मदद कर पाऊँगा। और हाँ, इस बार मेरी मर्ज़ी चलेगी।
उसने सारी रिपोर्ट्स चेक की, ब्लड में अल्कोहल और कुछ ड्रग्स की मात्रा थी।
उसने नर्स को जरूरी हिदायत दी। सोनम को उसके घर का पता और फोन नंबर देने को बोलकर वह चला गया।

कमरे में सिर्फ़ नर्स और सोनम थे। नर्स ने मुस्कराते हुए कहा – इनकी बातों का बुरा मत मानना, गुस्से में पता नहीं क्या – क्या बोल दिया.. वैसे दिल के बहुत अच्छे हैं।
नहीं सिस्टर ऐसे लोग दुनिया में बहुत कम हैं जो दूसरों की परवाह करते हैं। इनका मुझपर पहले से ही बहुत अहसान है। पता नहीं हर बार इनको ही तकलीफ देने मैं कहाँ से आ जाती हूँ।
उसने पर्ची पर अपने घर का पता और फोन नंबर लिखकर बढ़ा दिया।

दो दिनों बाद सोनम की हालत काफी हद तक अच्छी हो गयी थी। रोहन ने उसके घरवालों को फोन कर दिया था। पर अभी तक कोई नहीं आया था। उसे अकेले छोड़ना भी सही नहीं होता। कुछ सोचते हुए उसने सोनम से कहा – “जब तक तुम्हारे घरवाले नहीं आ जाते, तुम कुछ दिन मेरे घर में ही रूक जाओ.. तुम्हारी तबीयत भी तब तक ठीक हो जाएगी और मन भी लगा रहेगा। घर में मेरी माँ है उसे भी अच्छा लगेगा तुमसे बात करके।
सोनम को रोना आ रहा था। रोहन का अहसान उससे उठाया नहीं जा रहा था। मगर मज़बूरी थी, कहाँ जाती। और फिर इस बार उसमें हिम्मत नहीं हुई मना करने की।

रास्ते में रोहन के आग्रह पर उसने बताना शुरु किया…
वह एक संपन्न परिवार की इकलौती बेटी थी। घर में सुख सुविधाओं की कोई कमी नहीं थी। सब कुछ हंसी खुशी चल रहा था कि किस्मत की नजर लग गयी। एक दिन उसके पिता काम के सिलसिले में बाहर गए तो फिर उनका मृत शरीर ही वापस आया। दिल के दौरे से उनकी असमय मौत हो गई। तब वह बारह साल की थी। घर में विपत्तियों का पहाड़ टूट पड़ा था। हर समय मंडराने वाले रिश्तेदारों और परिचितों ने धीरे-धीरे आँखें फेर ली। यहाँ तक कि उसके रिश्ते के एक चाचा ने जमीन – जायदाद के लिए पापा के कुछ दुश्मनों से मिल कर षड्यंत्र करना भी शुरू कर दिया था। 

रोहन हतप्रभ होकर सुन रहा था। सोनम का दर्द उसे गहरे तक झकझोर रहा था। 

सोनम बोलती रही-"पापा के प्रभाव से शुरू-शुरू में तो गांव के अच्छे लोगों ने हमारी मदद की, लेकिन सब को अपना हित पहले देखना होता है- दूसरों के लिए कोई कब तक लड़ेगा। उनकी ज्यादतियों से उबकर माँ ने मुझे बाहर पढ़ने भेज दिया।"

"पता है रोहन! यह दुनिया उतनी बुरी नहीं है जितना इसमें रहने वाले कुछ लोग इसे बना देते हैं। पार्क में, बाज़ार में, बस स्टैंड में या रेलवे स्टेशन में, लोगों का हुजूम मिल जाता है। एक निकल जाए तो चार और आ जाते हैं उस रिक्तता को भरने। पर एक आदमी के चले जाने के बाद जो खालीपन उसके बाद जिंदगी में आता है उसे भरने के लिए कोई क्यों नहीं आ पाता? आना तो दूर लोग उसे और बढ़ा देते हैं।"
अचानक से शांति छा गई थी। ड्राइविंग सीट पर बैठे रोहन को कुछ समझ में नहीं आ रहा था कि वह क्या कहें। सोनम की बात शत-प्रतिशत सही थी। वह भी खामोश हो गया।

"खैर, समय ज़ख्म देता है तो दवा भी दे जाता है," - सोनम ने कहना शुरू किया।
"मैंने अपने पढ़ाई पर ध्यान लगा दिया। मेहनत रंग लाई और एक दिन मेरा चयन देश के जाने माने बिजनेस कॉलेज में हो गया। लेकिन मेरा पढ़ाई में अव्वल आना भी उन्हें अखरने लगा। वे मेरी शादी किसी कम पढ़े-लिखे से करवाने का दबाव देने लगे और नहीं करने पर भयानक अंजाम भुगतने की धमकी भी। माँ ने मना कर दिया। बदले की आग में उन्होंने हमारी फसलें बर्बाद कर दी। उनके डर से कोई हमारे खेतों में फसल लगाने को तैयार नहीं होता। तरह-तरह के अफवाह फैलाना शुरू कर दिया मेरे और माँ के बारे में। मेरी तस्वीर को अश्लील तस्वीरों में मिलाकर लोगों में फैला दिया.."सोनम का दर्द उभर आया था.. रोते – रोते कहा उसने-कोई कितना सहे रोहन.. धैर्य ने साथ छोड़ दिया था। कोई अपना था नहीं जिससे बाँट लेता अपना दर्द। और फिर एक अकेली लड़की का दर्द उसकी कमजोर नस भी होती है। इसी अवसाद में मैंने पिछली बार जान देने की कोशिश की थी।

रोहन का चेहरा पश्चाताप से भर उठा। पता नहीं वह क्या – क्या समझ रहा था सोनम के बारे में। आज उसके मन में सोनम के लिए बेइंतहा इज्जत जमा होती जा रही थी।
सॉरी सोनम..! पता नहीं मैंने क्या – क्या कह दिया तुम्हे, बिना तुम्हे जाने हुए।
इसमें तुम्हारी कोई गलती नहीं रोहन। इस स्थिति में जो भी होता यही समझता।

"पता है रोहन.. उस दिन के बाद मैंने सोच लिया था कि चाहे जो हो मैं हारूँगी नहीं। कोई भी विपरीत स्थिति में मैं सोचती तुम्हारे बारे में। कोई दूसरे के लिए अपना जीवन दांव पर लगा देता है और मैं स्वयं का जीवन भी नहीं संभाल सकती।"

"एक बार फिर मेरी जिंदगी वापस पटरी पर लौट आयी थी।
एक महीना पहले की बात होगी जब एम. . बी. ए का फाइनल एक्जाम होने वाला था। पढ़ाई का प्रेशर भी ज्यादा हो चला था। सर भारी-भारी सा रहता और आँखों में भी तकलीफ होनी शुरू हो गई थी।
एक दिन प्रेरणा ने एक दवा लाकर दी। मैंने खाया तो थोड़ा आराम मिला। सर भी हल्का रहने लगा। नींद भी कम आती। मैं खुश थी कि परीक्षा की तैयारी अच्छे से हो रही है। मेरा ध्यान अपने पर कम पढा़ई में ज्यादा थी। खैर परीक्षा समाप्त हुई। मैं खुश थी। पर ज्यादा दिनों तक नहीं रह पायी। एक दिन अचानक बेचैनी सी होने लगी। ऐसा लगता था जैसे शरीर अकड़ जाएगा। लगता था कुछ छूट रहा है। कुछ चाहिए पर पता नहीं क्या था वह। फिर पता नहीं प्रेरणा ने कौन सी दवा दी कि सब शांत हो गया। फिर तो हर दिन मैं यह दवा लेने लगी।"

"तीन दिन पहले जब मैंने प्रेरणा से वही दवा मांगी तो वह कहने लगी कि दवा ख़त्म हो गई है। उसने बताया कि वह दवा एक ख़ास दुकान पर ही मिलती है क्योंकि आयुर्वेदिक जड़ी-बूटियों से बनकर वहीं तैयार होती है। मरती क्या न करती मैं तैयार हो गयी। वहाँ जाने से पहले प्रेरणा ने मुझे कुछ खाने को दिया यह कह कर कि इससे कुछ राहत मिलेगी। जिस दुकान पर मैं गयी थी दवा के असर से मुझे ठीक-ठाक याद नहीं पर कोई बेसमेंट जैसी जगह थी। वहीं उन्होंने मुझे एक दवा दी पीने को। दवा ने पता नहीं कैसी असर दिखाई कि चक्कर- सा आने लगा। मैंने प्रेरणा को बुलाया पर वो उधर नहीं थी, उसके बदले दो आदमी आये जिनसे शराब की बू आ रही थी। मैंने थोड़ा संयमित किया खुद को, हालाँकि यह बहुत मुश्किल था। मैंने देखा वहाँ एक आदमी कैमरे के साथ खड़ा था। मेरा तो ख़ून सूख चुका था। मुझे वह क्षण मृत्यु से भी बदतर लग रहा था। अचानक मैंने अपने में एक ताक़त महसूस किया – चाहे जो हो जाए मुझे जीते-जी नहीं मरना। मैंने जमीन पर पड़ी एक कठोर चीज उठाई और उनमें से एक के सर पर दे मारी। उन्हें मेरे इस प्रतिकार की आशा नहीं थी। अचानक हुए हमले से वे जब तक संभलते तब तक मैं बेसमेंट की ओर दौड़ लगा चुकी थी। फिर मैंने मुड़कर नहीं देखा जिधर राह देखी, भागती गई। जब आँख खुली तो तुम्हारे पास पायी अपने-आप को।"

"ओ माय गॉड… इतना सब हो गया और मुझे कुछ भी पता नहीं! काश! कि तुम एक बार भी मुझे बता देती।" - रोहन तड़प उठा था।

"रोहन! मैं तुम्हें अपनी मुसीबत नहीं देना चाहती थी। तुम्हारी अपनी दुनिया है, अपने लोग हैं, किस मुँह से कहती। "

" क्या अपनी दुनिया में एक सच्चे दोस्त की कोई जगह नहीं होती सोनम? मैं तो इस भ्रम में तुमसे बेफ़िक्र रहा कि तुम जहाँ भी थे, खुश थे। एक बार तो आजमाया होता। "
" रोहन.. ऐसे अफसोस न करो.. प्लीज… मैं पहले ही शर्मिन्दा हूँ। तुमने पहले ही मुझपर कितने उपकार किए हैं। आगे से ऐसी गलती फिर न करूँगी।"
रोहन ने देखा सोनम की आँखों में सच्चाई के आँसू झिलमिल हो रहे थे।
रोहन मन- ही- मन सोच रहा था – सोनम यह आँसू अब सिर्फ़ तुम्हारे नहीं रहे, इसमें मेरी भी आभा मिल गयी है अब।
सोनम की तरफ़ देखते रोहन की आँखों में सपनों के दो सफ़ेद हंस तैरने लगे थे।
पुलिस तहकीकात में पता चला कि प्रेरणा को सोनम के चाचा ने पैसों का लालच देकर सोनम को ड्रग्स का आदी बनाने के लिए राजी किया था। जिससे वह सोनम की जायदाद पर कब्जा कर सके। उसकी मंशा तो पूरी न हो सकी। बदले में दोनों जेल पहुँच गए।
रोहन का समुद्र – तट का पसंदीदा जगह अब सुनसान नहीं रहा। वहाँ अब सोनम भी रहती है शाम के साथ-साथ। पलाश के फूलों जैसे दूर से दिख जाने वाले प्रेमी – जोड़ो में एक नाम और जुड़ गया था।
रोहन और सोनम का।