आदमी –
बड़ा विचित्र प्राणी!
जब से अस्तित्व में आया साथ में सरहदें लेकर आया, अपने ओढ़ने – बिछाने को। जहाँ-जहाँ भी ठहरा एक सीमा खींच दी आसपास।
नंगा – खुला घूमता था तो सबकुछ बे-हद था। सभ्यता से परिचय पाता गया और बंधनों में लिपटता गया। जकड़ता गया। ऐसा ही एक बंधन है – बँटवारा।
कल्पना कीजिए कि पहली बार यह बात जब इंसानी खोपड़ी में रेंगकर पहुँची होगी तो कैसा महसूस हुआ होगा। एक नए आविष्कार के जैसा!
बँटवारे का मतलब है कि कुछ कर लेना अपने अख़्तियार में। अपने अधिकार में कुछ होना ही दुनिया की सबसे बड़ी फ़ीलिंग है, चाहे वह भौतिक हो या दिमाग़ी – रूहानी।
पेड़ों पर रहते हुए पहले – पहल भोजन बाँटा होगा, फिर डालियाँ बाँटी होगी मनुष्यों ने। फिर चस्का लगा नयी फ़ीलिंग हुई होगी तो पेड़, गुफाएँ खेत-खलिहान और जंगल बाँटे होंगे। और फिर तो जो चीज़ भी आती गयी होंगी इंसानी अख़्तियार में, वह एक न रहा होगा।
पेट और छत के इंतज़ाम पूरे हुए होंगे तो बाहरी दुनिया को हिगराया गया होगा और फिर तो अच्छा – बुरा, स्त्री – पुरूष, काला-गोरा, अमीर – ग़रीब, देव-असुर, धर्मी-विधर्मी, वग़ैरह – वग़ैरह.. अनंत संदर्भ गढ़ दिए गए होंगे।
अब घर से ही शुरू कीजिए – दराज़, रैक, अलमीरा से प्रारंभ होकर कमरा बँट जाता है। उससे बात बढ़ी तो बर्तन – रसोई, घर से बाहर निकल कर धरती और फिर जन्म देने वाले जनक बँट जाते हैं। इस तरह बैठ जाता है सही – सही बँटवारे का सारा गणित। और आ जाती है अख़्तियार में अपना कहने को कुछ।
तो आधिपत्य जमाने का यह जो सुख है हाल के दिनों में उसने सोशल मीडिया को भी लपेटे में ले लिया है। ग़ौर से देखा जाए तो बँटवारा विभाग यहाँ भी मुस्तैदी से मौज़ूद है।
नफ़रत फैलाते राजनीतिक और धार्मिक पोस्ट आज फ़ेसबुक की पहचान है। आपके सोशल सर्कल का दायरा सिमट कर किसी पार्टी, विचारधारा या मज़हब के आसपास आ चुका होगा, अगर आप ग़ौर करें तो। कोई कट्टर हिंदू बनकर मुस्लिमों को गरिया रहा है तो कोई कट्टर मुस्लिम बनकर हिंदुओं को। बीजेपी, कांग्रेस, आप वग़ैरह तो अपना परचम पहले से ही लहरा रहे हैं इधर।
तो क्या सरहदें सभी इंसानों के हिस्से ही आया है? क्या यह बँटवारा विभाग ही मानव की अमूल्य खोज है?
मुझे तो जावेद अख़्तर साहब की इन पंक्तियों को गुनगुनाने के अलावा और कुछ नहीं सूझ रहा –
“पंछी, नदिया, पवन के झोंके
कोई सरहद ना इन्हें रोके
सरहद तो इंसानों के लिए है
क्या पाया हमने और तुमने
इंसा होके..”
बड़ा विचित्र प्राणी!
जब से अस्तित्व में आया साथ में सरहदें लेकर आया, अपने ओढ़ने – बिछाने को। जहाँ-जहाँ भी ठहरा एक सीमा खींच दी आसपास।
नंगा – खुला घूमता था तो सबकुछ बे-हद था। सभ्यता से परिचय पाता गया और बंधनों में लिपटता गया। जकड़ता गया। ऐसा ही एक बंधन है – बँटवारा।
कल्पना कीजिए कि पहली बार यह बात जब इंसानी खोपड़ी में रेंगकर पहुँची होगी तो कैसा महसूस हुआ होगा। एक नए आविष्कार के जैसा!
बँटवारे का मतलब है कि कुछ कर लेना अपने अख़्तियार में। अपने अधिकार में कुछ होना ही दुनिया की सबसे बड़ी फ़ीलिंग है, चाहे वह भौतिक हो या दिमाग़ी – रूहानी।
पेड़ों पर रहते हुए पहले – पहल भोजन बाँटा होगा, फिर डालियाँ बाँटी होगी मनुष्यों ने। फिर चस्का लगा नयी फ़ीलिंग हुई होगी तो पेड़, गुफाएँ खेत-खलिहान और जंगल बाँटे होंगे। और फिर तो जो चीज़ भी आती गयी होंगी इंसानी अख़्तियार में, वह एक न रहा होगा।
पेट और छत के इंतज़ाम पूरे हुए होंगे तो बाहरी दुनिया को हिगराया गया होगा और फिर तो अच्छा – बुरा, स्त्री – पुरूष, काला-गोरा, अमीर – ग़रीब, देव-असुर, धर्मी-विधर्मी, वग़ैरह – वग़ैरह.. अनंत संदर्भ गढ़ दिए गए होंगे।
अब घर से ही शुरू कीजिए – दराज़, रैक, अलमीरा से प्रारंभ होकर कमरा बँट जाता है। उससे बात बढ़ी तो बर्तन – रसोई, घर से बाहर निकल कर धरती और फिर जन्म देने वाले जनक बँट जाते हैं। इस तरह बैठ जाता है सही – सही बँटवारे का सारा गणित। और आ जाती है अख़्तियार में अपना कहने को कुछ।
तो आधिपत्य जमाने का यह जो सुख है हाल के दिनों में उसने सोशल मीडिया को भी लपेटे में ले लिया है। ग़ौर से देखा जाए तो बँटवारा विभाग यहाँ भी मुस्तैदी से मौज़ूद है।
नफ़रत फैलाते राजनीतिक और धार्मिक पोस्ट आज फ़ेसबुक की पहचान है। आपके सोशल सर्कल का दायरा सिमट कर किसी पार्टी, विचारधारा या मज़हब के आसपास आ चुका होगा, अगर आप ग़ौर करें तो। कोई कट्टर हिंदू बनकर मुस्लिमों को गरिया रहा है तो कोई कट्टर मुस्लिम बनकर हिंदुओं को। बीजेपी, कांग्रेस, आप वग़ैरह तो अपना परचम पहले से ही लहरा रहे हैं इधर।
तो क्या सरहदें सभी इंसानों के हिस्से ही आया है? क्या यह बँटवारा विभाग ही मानव की अमूल्य खोज है?
मुझे तो जावेद अख़्तर साहब की इन पंक्तियों को गुनगुनाने के अलावा और कुछ नहीं सूझ रहा –
“पंछी, नदिया, पवन के झोंके
कोई सरहद ना इन्हें रोके
सरहद तो इंसानों के लिए है
क्या पाया हमने और तुमने
इंसा होके..”
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