बरसात का मौसम आ चुका है। सारी धरती हरियाली से सजी है और आकाश मेघों से। पेड़- पौधे बौराये से दिखने लगे हैं। पत्तों पर टप-टप गिरती बूँदों के बीच से दिखते पक्षी मस्त जान पड़ते हैं, मानो अपने – अपने घोंसले में सपरिवार वर्षा का आनंद उठा रहे हों। धरती पर नये – नये उगे घास- पात किसी नवयौवना के गालों पर उगे रोएँ से चमकते हैं। कह सकते हैं कि ऋतु-चक्र का सबसे महत्वपूर्ण पड़ाव बरसात हमारे मन में हलचल भरता जा रहा है।
बरसात का मौसम है ही ऐसा मनोहर कि क्या पशु-पक्षी,क्या पेड़ -पौधे, क्या इंसान और क्या धरती, सब मदमस्त हो जाते हैं। और इन सबकी ख़ुशी का कारण आसमान में छाये बादल होते हैं। ये बादल दिखने में जितने भी स्थूल लगे, होते बहुत ही कोमल और हल्के हैं। ऊँचे पर्वतीय इलाक़ों में भ्रमण तो इनके मिलने के बिना पूरा ही नहीं होता। ऐसे ही एक पर्वतीय क्षेत्र में जब हमलोग पहाड़ों से गुज़र रहे थे तो अचानक आँखों के सामने धुँध जैसा छाया और देखते ही देखते हम सब बादलों से बातें कर रहे थे।
संस्कृत में बादल के बहुत सारे पर्यायवाची शब्द दिए गए हैं जैसे – जलद, नीरद, पयोद, मेघ…आदि… आदि।
महाकवि कालिदास ने तो इन बादलों के साथ संवाद करते हुए यक्ष की पूरी कहानी ही अपने प्रसिद्ध काव्य मेघदूत में लिख डाली है। वे मेघों का परिचय कराते हुए लिखते हैं-
“धूमज्योति सलिलमरुतां सन्निपात: क्व मेघ…”
अर्थात् मेघ जो हैं वे धुआँ, आग, जल और वायु का समूह है। महाकवि की कल्पना कहिए या काव्य की अतिशयोक्ति कि प्राणहीन, संदेश ले जाने में असमर्थ मेघ को ही दूत बनाकर उन्होंने पूरे काव्य की रचना कर दी।
इनके अलावा भी लगभग हर कवि ने बादल या बरसात से संबंधित काव्यों की रचना की है। एक कविता जो बहुत प्रसिद्ध है वह है बाबा नागार्जुन की “बादल को घिरते देखा है”।
इसमें उन्होंने ‘मेघदूत’ में वर्णित भव्य अलकापुरी और उसके राजा कुबेर पर कटाक्ष करते हुए लिखा है –
“कहाँ गया धनपति कुबेर वह
कहाँ गयी उसकी वह अलका
नहीं ठिकाना कालिदास के
व्योमप्रवाही गंगाजल का…”
बात फ़िल्मों की करें तो बिना बरसात के वह भी पूरी नहीं होती। विरह हो या मिलन /रोमांस, बरसात का होना ज़रूरी है। इसी प्रसंग में एक गाना भी याद आता है – (वैसे गाने तो कितने हैं!)
“झूम कर पर्वतों पे
घटा छा रही है
प्यार की उम्र शायद
क़रीब आ रही है…”
और ग्रामीण जीवन तो पूरी तरह से बादल पर ही आश्रित है। खेतों में हल- बैल के बदले भले ही यांत्रिक हल और ट्रैक्टर आ गए हों, लेकिन मन में मेघों की प्रतीक्षा अभी भी वैसी ही होती है। कि कब बादल बरसें और कब सूख गए नदी- नाले, तालाब,पईन, कुएँ लबालब भर जाएँ। कि कब खेतों के सीने पर किसानों के ख़्वाब अंकुरित हो उठें। कि कब झींगुर और मेढ़क की बोलियों से रात झनझना उठे और कब नवविवाहित जोड़े बादलों के संग बहकर आ मिलें।
सच जीवन कितना झंकृत हो उठता है !
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