मंगलवार, 19 जुलाई 2016

शब्द-दर्पण - 2

सड़क पर टहलते हुए अचानक से सुनाई देती है कानों को चीरती हुई किसी इंजन का शोर..स्वच्छ और निर्विरोध सुबह कुछ पल के लिए बिखरने लगता है। मैं निकल पड़ता हूँ थोड़ा और आगे। जहाँ न कोई शोर सुनाई दे न बिखरी हुई सुबह लगे। मैं चाहता हूँ सुकून, जरा ठहरा-सा। अपनी ही दुनिया से छुटकारा चाहिए होता है, सिर्फ कुछ समय के लिए। आँखों को थोड़ी फुर्सत चाहिए होती है नजारों को संचित करने के लिए। एक अहसास चाहिए होता है कि यहाँ सिर्फ मैं हूँ और कुछ लम्हे हैं रूके-से। नजरे दूर-दूर तक जाती हैं और पहाड़ों के बीच ठहर जाती हैं जैसे कि वापस न आना चाहती हों। पहाड़ों को छूकर गुजरती नजरे चाहती हैं कै़द कर लेना खूद में, थोड़ी-सी नर्म – नर्म हरियाली और उसपर परावर्तित होती सुंदर हल्की पीली किरणें। ऐसे में मैं नजरों को वहीं छोड़कर आ जाता हूँ वापस अपने पास। कि मन लगता नहीं यह सोचकर कि इन खुबसूरत नजारों को तुम्हारा साथ मिल जाता तो दृश्य कुछ और ही होता। कितना अच्छा होता कि इन पर्वतों की हरियाली तुम्हारे नर्म – नाजुक चेहरे की रक्तिम आभा लेकर थोड़ी अलग रंगीनियत पैदा करती। पहाडों की तलहटी में खिला एक कमल के जैसा तुम्हारा सुंदर मुखड़ा मैं निहारता रहता अपनी हथेली से सूरज को पीछे धकेलते हुए। कि जरूरी नहीं होता उसका आ धमकना इधर, जबकि पहले ही बहुत उजाला होता इधर हम दोनों की साझी दुनिया का। थोड़ी दूर पर गिरते झरने का जल जब लहराता हुआ निकलता तुम्हारे पैरों की रंगत लेकर तो मैं उनके आइने में तुम्हारा मुस्कुराता चेहरा देखा करता। यह सब सोचते – सोचते न जाने कब मैं बैठ जाता हूँ उसी झरने के किनारे। और पानी में एक चेहरा बनने बिगड़ने लगता है, बिल्कुल तुम्हारे होने जैसा!

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