मंगलवार, 26 जुलाई 2016

रेनबो

कभी शाम का मतलब होता था किताबों के अधखुले पन्नों को माँ की डाँट के सामने कर हल्के से निकल लेने का समय। बेचारे पन्ने कातर नजरों से देखते रह जाते थे और हम निकल लेते सूरज को अलविदा कहने। सूरज मेरे अलविदा कहे तक पश्चिम में लटका ही रहता इतनी  भी  नहीं छनती थी हमारी। बात बस इतनी होती कि पश्चिम की  नदी उतरने से पहले उसकी गुलाबी किरणें जब शहर की सबसे ऊँची और खुबसूरत मकान की छत पर ठहरती तो किसी नयनाभिराम चेहरे की पानी से टकराकर इंद्रधनुष बन छा जाती। फिर तो क्या उत्तर, क्या दक्षिण सभी दिशाएँ सतरंगी ही दिखती जाती। यह इंद्रधनुष तब तक बना रहता जब तक हम वहाँ से गुजरते हुए अपनी मुस्कान को उसकी छत पर छोड़कर निकल नहीं लेते। पीठ पीछे सूरज बड़ा सा थम्स-अप करते हुए ओझल हो जाता। ऊँची छत की मुंडेर लाँघती बदले में जब उसकी हँसी आँखों से टकराती तो किक खाये फूटबॉल की भाँति मन ऊँचा ही उठता चला जाता। उसके बाद तो खेलने की शक्ति बिना ‘बूस्ट’ पीये ही इतनी बढ़ जाती कि फूटबॉल पीछे छूटी रहती और मैं गोलपोस्ट के अंदर। जब साथियों की सहनशक्ति बिना हवा के टायर जैसी पिचक कर जमीन चाटने लगती तो दांत किटकिटाते एक साथ बढ़ते मेरी तरफ। उनकी नज़रों की बेपनाह मोहब्बत को अधूरा छोड़कर भागना ही ज्यादा उचित लगता उस समय। वैसे उनके गुस्से की धीमी होती आँच को दूर से देखने का भी अलग मजा होता था। फिर दबे पांव शामिल भी हो जाता कुछ ज्यादा भले दोस्तों की सिफारिश पर। खेल ख़त्म होता तो सिलसिला शुरू हो जाता चटपटी बातों का। फिर तो  धूल-धूसरित शाम जब तक अंधेरे की काजल से सज नहीं जाती क्या मजाल कि घर वापस लौटने का ख्याल भी पास फटके। घर लौटते नीम अंधेरे में भी उस ऊँचे मकान की छत पर किसी का मेरे लिए इंतजार बड़ी शिद्दत से अपनी रौशनी बिखेर रहा होता था। फिर एक-दूसरे की तृप्त मुस्कान लौटाते हुए हम दोनों की शाम ख़त्म हो जाती।

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