बस एक तस्वीर बनकर फ्रेम हो जाने जितनी हस्ती लिए यह ज़िन्दगी जीते-जी हमसे क्या – क्या नहीं करवा जाती. ख़ुद पीछे रहकर हमें दौड़ा देती है आगे. स्टार्टिंग लाईन पर खड़े सीटी बजाते रेफ़री-सा. और हम, बस दौड़ते रहते हैं एक फिनिशिंग लाईन को पार करते हुए अगले राउंड की तरफ़. बस दौड़ते..
उस दौड़ में ज़िन्दगी से टूटकर अलग गिरते क्षणों की झंकार कहीं दब जाती है, हमारे ख़ुद के क़दमों की धमक में. कुछ और पाने की लालसा फ़्लैशलाईट-सी चमकती है मन के सामने. और इसकी चकाचौंध में हम इतने खो जाते हैं कि गुजर रहे खूबसूरत लम्हों का मेडल लेना भी भूल जाते हैं.
कहानियाँ सिर्फ शब्दों का व्यवसाय नहीं बल्कि एहसासों को कागज़ पर उतारने का भी नाम है..और इस तरह जिंदगी को एक अलग नज़रिए से देखने की कोशिश भी..
गुरुवार, 12 जनवरी 2017
दौड़
सदस्यता लें
टिप्पणियाँ भेजें (Atom)
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें