गुरुवार, 12 जनवरी 2017

दौड़

बस एक तस्वीर बनकर फ्रेम हो जाने जितनी हस्ती लिए यह ज़िन्दगी जीते-जी हमसे क्या – क्या नहीं करवा जाती. ख़ुद पीछे रहकर हमें दौड़ा देती है आगे. स्टार्टिंग लाईन पर खड़े सीटी बजाते रेफ़री-सा. और हम, बस दौड़ते रहते हैं एक फिनिशिंग लाईन को पार करते हुए अगले राउंड की तरफ़. बस दौड़ते..
उस दौड़ में ज़िन्दगी से टूटकर अलग गिरते क्षणों की झंकार कहीं दब जाती है, हमारे ख़ुद के क़दमों की धमक में. कुछ और पाने की लालसा फ़्लैशलाईट-सी चमकती है मन के सामने. और इसकी चकाचौंध में हम इतने खो जाते हैं कि गुजर रहे खूबसूरत लम्हों का मेडल लेना भी भूल जाते हैं.

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