गुरुवार, 11 अगस्त 2016

शब्द-दर्पण-4

“ हमारे देखे हुए कुछ सपने ओस की बूंदों जैसे होते हैं
चढ़ती धूप के साथ-साथ अस्तित्व खोते जाते हैं..!”
आप किसी से बहुत प्यार करते हैं। इतना कि अगर उसमें और जिंदगी में से किसी एक को चुनना पड़े तो आप पल भर भी न लें और उसका हाथ थाम लें, जिंदगी की तरफ पीठ किए। और फिर एक दिन वह चला जाए आपको छोड़कर। बिना कुछ कहे, बिना कुछ सुने। कैसा लगेगा.. सोचिए जरा! दुनिया लूटी हुई लगेगी न! कमोबेश एक ही नियति होती है फिर – लूटना-पिटना, रोना-धोना… अंतत: तड़प कर रह जाना! ऑप्शन तो यही होते हैं, अगर आप उसकी याद में तड़पकर चले न जाएँ… किसी और दुनिया में!
             लेकिन, कितना रोइए कि आपको सुकून मिल जाए… कितना चींखिए कि बाहर का शोर ढ़क ले भीतर की शांत भिन्नाहट! कितना छीलिए अपने वज़ूद पर दीवार बनते जा रहे दिल को कि उसपर जमी यादों की हरी काई उतरने लगे!
नहीं दोस्त!
यह सही नहीं है। आप रोओगे उसकी याद में, वह और शिद्दत से याद आएगा- आप फिर रोओगे। आपकी चीख उसको पुकारेगी-वह और दूर होता जाएगा । तात्पर्य यह है कि आप उसे वापस नहीं ला सकते जब तक वह आना न चाहे। तो क्यों न ऐसा किया जाए कि कुछ देर ना रोएँ। कोई बात नहीं अगर हँस न भी पाएँ तो। किसी जख़्म का पहला इलाज़ उसे सुखाना नहीं होता, बल्कि उससे बहते ख़ून को रोकना होता है। तपती धूप में निकल गए मुसाफिर को भी मंजिल से पहले ठहरना पड़ता है कई बार। रास्ते की धूप तो अपरिवर्तित रहती है लेकिन मन तैयार हो जाता है फिर से, उस धूप को सहने के लिए। तो ठहर लीजिए जरा दुनिया की छांव में, उस राह से अलग आगे-आगे जा रहीं हों उसकी यादें जिसपर। वैसे भी, दुनिया में यदि सिर्फ़ एक ही वज़ह होती किसी के जीने के लिए तो फिर बाक़ी सारी चीजें नज़रों में आती ही नहीं। इन आँखों का काम वहीं समाप्त हो जाता जहाँ से वह ओझल हुआ था। धड़कनें उसी राह पर ठहर जातीं बिना पल गंवाए जब किसी ने बिना अलविदा कहे आगे की राह पकड़ ली थी। हमारे शब्द आवाज़ खो देते उस क्षण ही जब उसने अनसुना किया था हमारा पुकारा जाना। किसी का प्यार अमृत बन सकता है जीवन का, मगर अमृत न मिलने की कमी विष से पूरी तो नहीं ही की जा सकती।
        हम जीवन को उस एकमात्र रेलगाड़ी के जैसा नहीं समझ सकते जिस पर सवार न होने की सूरत में यात्री पीछे छूट जाते हैं। हम जीवन को उस विमान के जैसा भी नहीं समझ सकते जो या तो आकाश में उड़ेगा या फिर धरती पर निर्जीव खड़ा रहेगा। इतना निर्जीव कि उसे चार कदम आगे-पीछे करने के लिए भी सहारे की जरूरत पड़ती है।
जीवन तो मौसम है, बदलता जाएगा – धूप को छाँव में, किसी सूने को गाँव में। बस चलते रहिए जब तक रूकने को कहा न जाए!

2 टिप्‍पणियां:

  1. शुरुआत में तथा अंत में लिखी गईं पक्तियां तो लाजबाब है. सम्पूर्ण लेख को पढ़ कर लगा कि लेखन करते समय लेखक ने कल्पना के सागर में बहुत गहरे गोते लगाए होंगे.

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    1. धन्यवाद निशांत! लेखन कल्पना के गहरे में उतरे बिना संभव नहीं हो सकता। आप की टिप्पणी भी बहुत गहरी बात करती है।

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