शनिवार, 31 दिसंबर 2016

मधु

हवा धूल से भर गयी थी। सांस लेना भी मुश्किल हो रहा था। लेकिन मेरा मन नहीं हो रहा था कि वहाँ से हिलूँ भी। किताबों के बीच मैं पूरी तन्मयता से बैठा था। समय की रफ़्तार में घिसटती ज्यादातर किताबें भी जैसे छीलकर पीली पड़ गई थीं। पर कुछ किताबें जस की तस बची हुई थीं। वही पन्ने, वही समाचार पत्रों वाली ज़िल्द। जैसे वक़्त ने उनसे दूरी बना ली हो। मैं हर किताब को उठाता,उसकी धूल झाड़ता, प्रारंभ से अंत तक उसके पन्ने पलटता और फिर वापस रख देता दूसरी तरफ़। नाश्ते के लिए सुबह से माँ ने दस बार आवाज़ लगा दी होगी। मैं हर बार ‘पाँच मिनट माँ’ कहता और वापस खो जाता। इस तरह तीन घंटे बीत चुके थे और अब किसी भी समय माँ का क्रोध कॉफ़ी के जैसा उबल सकता था जो काफी हो सकता था पूरे दिन की सेहत ख़राब करने को। उठने का वाज़िब विचार बन ही रहा था कि नज़र पुराने किताब की उस ज़िल्द से उलझ गई जिसपर एक नाम लिखा था – मधु। दरअसल गलती उस ज़िल्द की नहीं थी, बल्कि वह नाम ही ऐसा था जिसमें उलझकर मेरी दुनिया कभी उल्टी घूमने लगी थी। और अब इस समय मैं अपने आप को उल्टा घूमते हुए देख रहा था। उस किताब के पन्नों में दबी एक तस्वीर भी थी। मुस्कुराती हुई। वैसे तो उस समय के हिसाब से यह लाखों की थी पर अब इसका मोल सिर्फ एक याद भर रह गया था…
एक्सक्यूज़ मी!
मुझे लगा जैसे सपने में किसी ने पुकारा हो।
सुनिए प्लीज़!
ओह! माफ़ करना, मैं शायद नींद में था।
आप अपना फ़ोन देंगे? मुझे एक मिसकॉल करने के लिए..
मिसकॉल नहीं, पूरी बात कर लो आप… मैंने अपना फ़ोन बढ़ा दिया।
अबतक मेरी नींद जा चुकी थी। वैसे मुझे नींद बहुत कम ही आती है और बैठे-बैठे मैं कभी सोया होऊँ, ऐसा याद भी नहीं। मैं अक्सर सोचता था कि लोग कैसे सो लेते हैं बैठे-बैठे। वैसे अच्छा लगता है ऐसी नींद में होना। बिल्कुल हल्की नींद, जैसे बदन पर किसी प्योर सिल्क का कपड़ा। आपने पहना होगा तो समझ सकते हैं कितनी हल्की होती है। वज़न में जितनी हल्की, रखरखाव में उतनी ही भारी। तुरंत में क्रिच टूट जाती है, ठीक जैसे मेरी नींद टूट गई अभी।
सुबह की धूप अब अपनी किशोरावस्था में आकर आँखों में चुभने लगी थी। मींचती आँखों से वह दिख रही थी फ़ोन पर बातें करते हुए। थोड़ी परेशान-सी। सुबह के साथ उसकी कौन सी परेशानी शुरू हो गयी थी!
वैसे परेशानियों का कोई शेड्यूल नहीं होता। जब चाहेंगी तब आएँगी। बिल्कुल यादों की जैसी। न कोई मौसम, न कोई साधन। जब चाहे, जैसे चाहे आ सकती हैं। मैंने नज़रें हटा ली उसपर से। बेवज़ह ज़्यादा देर किसी की तरफ़ देखना ठीक नहीं। ख़ासकर जब उसे पता भी न हो। घास पर ओस की कुछ बूंदें अभी भी बाक़ी थीं। उतनी ही जितनी शायद क़दमों के नीचे आने से बच गई थीं। कुरकुरी धूप उसके चेहरे पर फैलकर चमक रही थी, मैंने फिर देखा उसकी तरफ़। अब वह रिलैक्स नज़र आ रही थी।
जिज्ञासा को आप दबा नहीं सकते, टाल सकते हैं। मैं भी टाल ही रहा था। पर न चाहते हुए भी भूल जाता और टल गई जिज्ञासा फिर आ खड़ी हो जाती। सवाल को टालने की कोशिश करना भी दरअसल उसे याद रखने की वज़ह बन जाती है। वैसे वे लोग कम बेचैन रहते हैं जो सवाल को भूलते जाते हैं। मेरे सामने अब वह सवाल बन टहल रही थी।
थैंक्यू वेरी मच! यूँ हैव सेव्ड माय डे।
जानकर खुशी हुई कि आपकी प्रॉब्लम सॉल्व हो गई। पर आख़िर हुआ क्या था? इफ़ यू डोन्ट माइंड…
मेरा फ़ोन गुम गया था.. पहली बार हँसी थी वह,… साइलेंट में रख दिया था घर में कहीं जबकि मुझे लगा कि मैं साथ लायी थी… बेकार में आपकी नींद भी ख़राब की।
अंजान ही सही पर किसी की हँसी की वज़ह बनना गुडफ़िल तो करा ही जाता है।
बेकार में ख़राब नहीं की मोहतरमा… बदले में आपने हँसी भी खर्च की है… देखिए पत्तों पर मुर्झाते ओस को…आपकी नज़ाकत ने फिर से नयी चमक दी है इन्हें...
अच्छा जी! मतलब आप बातें भी बनाते हैं!
नहीं जी! मैं तो बस सच्चाई सुनाता हूँ।
… और सच्चाई सुनाने की तैयारी में पार्क में सो जाते हैं। वह खिलखिला उठी।
हा.. हा.. हा… दरअसल सुबह-सुबह दूब पर चलते हुए मैंने पार्क के कितने फेरे लगा दिए थे मुझे पता ही नहीं चला। जब थक कर बैठा तो आँख लग गई, ग़लती यहाँ की हवा में थी जिसने थोड़ी तसल्ली बख़्श दी।
वैसे सुबह-सुबह घास पर चलना सुक़ून देता है.. मैंने जूत्ते पहनते हुए कहा.. आप भी आज़मा सकती हैं।
जरूर! परसो से ट्राई करूँगी।
कल को बाईपास करने की कोई ख़ास वज़ह?
जी, कल मैं घर जा रही हूँ तो परसों..
ओह! समझा।
चलो आप से मिलकर खुशी हुई। और अपने फ़ोन को मेरा हल्लो बोलना… हँसते हुए कहा मैंने।
जरूर बोल दूँगी, अगर आप मेरे साथ नारियल पानी पीने तक चलोगे।
वह बेतकल्लुफ़ नहीं होना चाहता था। वह मुड़ना चाह रहा था यहीं से बिना किसी औपचारिकता के। क्या हो जाएगा.. नारियल पानी के बिना ही अपने रास्ते निकल चलें। जैसे कुछ देर पहले थे, अंजान – अजनबी फिर वही रह जाएंगे। बीच के लम्हों को एक नारियल पानी कितना तान पाएगा। हर बात की कोई न कोई हद तो होती ही है। परन्तु उसकी आँखें बेहद बातूनी थीं। रोक रही थीं न कहने से।… (क्रमशः)


चित्र :सांकेतिक 

शुक्रवार, 7 अक्तूबर 2016

पागल दिल

मैंने कहा –
दिल तो पागल है!
उसने सहमति में सिर हिलाया-हाँ!
मैंने आगे कहा – दिल दीवाना है!
इग्नोर करना चाहा उसने इस दफ़ा – हम्म!
मैंने बहकते हुए आगे कहा –
“पहली-पहली बार मिलाता है यही..
सीने में फिर आग जलाता है…”
---हाँ जिसमें जिंदगी जलती जाती है फिर चटकती लकड़ी – सी, खुशियों का धुँआ छोड़ते या ग़मों की राख बिछाते- उसने अपनी हैट उठाई और आगे बढ़ गया।
दिल तो पागल है
दिल दीवाना है… मैंने गाना जारी रखा।


शनिवार, 27 अगस्त 2016

धनेसरा~एक गांव की कहानी

रौल नम्बर एक??
- उपस्थित श्रीमान!
रौल नम्बर दो??
- प्रजेंट सर!
तीन??
- यस सर!



सत्ताईस??
- प्रजेंट माटसा!
रौल नम्बर सत्ताईस!!?
- प्रजेंट माटसा!
मास्टर साहब ने पहली बार रजिस्टर से इतर नज़र घूमाया। उनकी नज़रों ने एक बार पूरी क्लास का उपरी सर्वेक्षण किया और अंत में बीच वाली कतार की तीसरी बेंच पर जा कर ठहर गई। सिकुड़ा – सिमटा-सा एक लड़का बैठने की अवस्था में पहुँचते-पहुँचते वापस सीधा हो रहा था।
“बड़ी लम्बी छुट्टी लगाया है रे धनेसरा?”
मास्टर साहब ने चश्मा उतारकर टेबल पर रखने से पहले उसे विशेष अंदाज में दो बार आगे और दो बार पीछे झूलाया। मास्टर साहब के विशिष्ट अंदाज़ से सब समझ चुके थे कि धनेसरा लम्बा नपने वाला है आज! अब पूरा क्लास सावधान से विश्राम की मुद्रा में वापस आ गया था। कुछ तुफ़ानी होने वाला है!
मास्टर साहब सधे कदमों से चलते हुए पहुँच चुके थे उसके पास। धनेसरा ने कभी यमराज नहीं देखा था बस दादी की कहानियों में उसका ज़िक्र सुना था। उसे लगता था कि अगर यमराज होंगे तो होंगे बिल्कुल मास्टर साहब के जैसा ही। न उन्नीस, न ही इक्कीस!
मास्टर साहब ने ग़ौर से मुआयना किया – “बीमार तो कहीं से तू दिखता नहीं,… तो का कर रहा था फिर एतना दिन से…”
धनेसरा को समझ में नहीं आया कि वह क्या जबाव दे। जबाव अगर मास्टर साहब के गुस्से में घुसकर उसे पिघलाने के बज़ाय और कठोर कर गया तो फिर उसकी ख़ैर नहीं। उसने सूखते होठों को जीभ फिराकर फिर से गीला किया।
“हल जोत रहा था का रे?”
इस बार मास्टर साहब की आवाज चढ़ी हुई लग रही थी। उनके गुस्से की भठ्ठी धनेसरा की चुप्पी से और धधक उठी थी।
उसे लगा मास्टर साहब तो सब पहले से ही जानते हैं। उसे याद आया कि सुबह ही उसने हीरा-मोती को पईन वाले खेत में छोड़ कर आया था। आज आखिरी जुताई थी और कल रोपाई के साथ इस बार की चिंता भी कम हो जाएगी। अच्छी बारिश के कारण इस बार लगभग सभी खेतों में रोपाई हो गई थी। फसल अच्छी होने के आसार थे। सोचते हुए धनेसरा खूश हो गया।

“अब बोलेगा कुछ कि उतारे तोहर आरती हम?”

मास्टर साहब की उबलती आवाज ने धनेसरा को धान के खेतों से उठाकर वापस क्लासरूम पहुँचा दिया।
उसे हल में जुते हुए बैल याद आ गए। उसे लगा कि बैलों की जगह वह जुता हुआ है और कभी भी उसकी पीठ पर हलवाहे का डंडा पड़ सकता है। उसे अपनी पीठ मुलायम होती महसूस होने लगी। उसका दिल धाँय-धाँय धड़क रहा था। आज तो पिटाई पक्की है। यमराज के चंगुल से भी मुक्त हो सका है भला कोई! उसे दादी की बातें सच लग रही थीं।

वैसे तो मास्टर साहब इतिहास के टीचर थे लेकिन भूतकाल के बेतरतीब बिखरे तारीखों को याद रखने की ज़हमत वह नहीं उठाते थे। वैसे भी attendance और दिन-दुनिया की ताज़ा ख़बरों को update करने के बाद अक्सर पीरियड छोटी ही पड़ जाया करती। जब कभी उन्हें इतिहास का एक टीचर होने की याद आती तो खड़ा कर देते किसी को किताब के साथ। जब तक कोई सन् 1857 की क्रांति के कारणों पर प्रकाश डाल रहा होता उतनी देर तक मास्टर साहब सुबह की छूटी हुई नींद पूरी कर लेते। कभी – कभी गहरी नींद का उनका सफ़र घंटी की टनटनाहट को भी अनसुना कर जाता। तब कोई बहादुर बच्चा जान पर खेलकर उनको जगा देता। वैसे क्लास को इसमें कोई परेशानी भी नहीं थी, बल्कि उनकी किताबों को और एक पीरियड का एक्सट्रा आराम मिल जाता था। इतिहास की किताबें और कॉपियाँ नयी की नयी रह जातीं, सो अलग।
पर हाँ, मास्टर साहब को अनुशासन की लाइन पार करना कतई पसंद नहीं था। धनेसरा को याद था पिछली दफा जब रविन्दर ने इतिहास की तारीखों के साथ छेड़छाड़ करते मास्टर साहब की याद्दाश्त को दुरुस्त करने की कोशिश की थी। ऐसी सेकाई हुए डंडे से कि बेचारा रविन्दर अभी तक अपनी हिम्मत दुरूस्त न कर पाया।
“आज तो गया धनेसरा…”
“हाँ, साले की आज अच्छी मरम्मत होगी…”
“जरूरी भी है बहुत तेज बनता है…” खुसर-फुसर करते अन्य बच्चे बोर हुए जाते थे। मास्टर साहब की गै़रजरूरी ज़िरह लंबी जो खींच रही थी।
जैसे फिल्म शुरू होने के पहले दर्शकों को ‘धुम्रपान-निषेध’ के विज्ञापन में कोई रूचि नहीं होती वैसे ही क्लास के बाकी बच्चों को मास्टर साहब-धनेसरा संवाद में कोई रूचि नहीं थी। उन्हें लग रहा था कि बेकार में मास्टर साहब फिल्म को लंबा खींच रहे हैं। उन्हें तो इंतज़ार था कि कब मास्टर साहब के गुस्से का पारा उबले और डंडे की चोट पर धनेसरा शुरू कर दे नाचना….।
मास्टर साहब की पिटाई से बचाव के जो दो-एक (अघोषित) कारण सार्वजनिक थे, उनमें खेती-किसानी में परिवार की सहायता करने वाले कारण का दूर – दूर तक कोई ज़िक्र नहीं था। वैसे भी खेती-बाड़ी पढ़ लिख चुकने के बाद ही किया जाए तो शोभा देता है-ऐसा मास्टर साहब हमेशा कहते थे।
उसने कनखियों से मास्टर साहब की ओर देखा। दायें हाथ में लिए हुए डंडे को धीरे – धीरे बायें हाथ की हथेली पर बजा रहे थे। उसे लगा अब उसके पीठ और पिछवाड़े पर बजने का समय आ चुका है। यह बात पूरे स्कूल के बच्चों को मालूम थी कि पानी उबलने की सीमा सौ डिग्री सेल्सियस से आगे बढ़ सकती है पर मास्टर साहब के गुस्से का पारा उबल कर बिखरने में पाँच मिनट से ज्यादा लगने की कोई गुंजाइश नहीं होती।
उसने आशापूर्ण बेचैनी में दरवाजे की ओर देखा। आशा की हल्की-सी किरण भी नहीं थी।
उसने आख़िरी बार जोर से थूक गटका और बोलने के लिए शब्दों को गूंथ ही रहा था जबान से कि बाहर एक शोर सुनाई दिया। कुछ बच्चे दौड़ते हुए दरवाजे पर आकर ठहर गए।
“माटसा! आपकी गैय्या…”
मास्टर साहब जैसे सोते से जागे।
“क्या हुआ रे बबुआ! गैय्या को?”
“माटसा! खूंटे के साथ भाग निकली है…”

न चाहते हुए भी सबकी हंसी छूट गई। मास्टर साहब के गुस्से का बैलून फुस्स हो गया था। उनकी गैय्या अगर एक बार खुल गई तो फिर सड़कों के कितने चक्कर लगवाएगी यह स्कूल में सभी को मालूम था। मास्टर साहब के लिए यह किसी आपदा से कम नहीं होता था। इससे पहले कि वह बाहर की ओर दौड़ लगाते (जो कि संभव नहीं था उनके लिए) धनेसरा ने पहली बार बोला – “माटसा! मैं जाता हूँ आप टेंशन मत लीजिए। वैसे भी दूर चली गई होगी आपसे पकड़ में नहीं आएगी।“
“हाँ बेटा! जल्दी जाओ।“
“पर माटसा! हाज़िरी वाली बात… मैं दरअसल…”
“अरे बेटा! कोई बात नहीं, बाद में बता देना…”
धनेसरा ने उड़ती नज़र क्लास के बाकी बच्चों पर डाली और दौड़ लगा दिया।

बरामदे से गुजरते हुए उसने एक दूसरी क्लास में झाँक लिया। सपना बाहर से जाकर अपनी सीट पर अभी बैठ ही रही थी। उसने दूर से ही आवाज दी – “ऐ सपना! आज फिर तेरी गैय्या भाग गई है, जा रहा हूँ पकड़ लाने।“
सपना मास्टर साहब की बेटी थी। वह धीरे-धीरे हँस रही थी। धनेसरा भी हँसते हुए दूर भाग गया। उन दोनों के अलावा कोई नहीं जानता था कि गैय्या हमेशा ऐन मौके पर ही क्यों भाग जाती है!



चित्र : सांकेतिक।



सोमवार, 22 अगस्त 2016

दूर तक पसरी हरी-हरी ज़मीन, पहाड़ों के बीच सुस्ताती हुई एकाग्र धूप,  हौले-हौले से झूमती घास में लिपटी हुई घनघोर शांति और बीच-बीच में घाटियों के परिवेश में शामिल हो गए सफ़ेद बगूलों का दल, जैसे आँखों के सामने की हरी सतह पर whitener लगा दिया हो किसी ने। यहाँ पर बैठना और बातें करना स्वयं से, ऑफिस से लिए गए अवकाश के जैसा होता है। कभी – कभी हमें स्वयं से भी अवकाश लेने की जरूरत होती है जब हम भूल जाएँ ख़ुद को। जब हम भूल जाएँ कि आज फिर निकालना है पैसे एटीएम से, कि सब्जियाँ आज महँगी हैं कल से, कि Donald Trump आगे निकल रहे हैं कि…., कि ‘रूस्तम’ का कलेक्शन ज्यादा है कि ‘मोहनजोदाड़ो’ का और कि यहाँ पर कितनी देर बैठना है वापस जाने से पहले!
पता नहीं कितनी बातें हम याद किए घूमते रहते हैं। बढ़ी हुई यादों का बोझ नीचे रखकर देख लेना अच्छा होता है कभी दूसरी ओर जब हम देखते रहना चाहते हैं बारिश को फिसलते हुए आँखों के सामने से। बस यह याद रखना होता है कि उन बूंदों को गिनते जाना है यह जानते हुए भी कि ऐसा करना संभव नहीं। और सुनते रहना है छतरी पर बनने वाली उस आवाज का शोर जो बूंदों के उसपर टपकने से बन रहा है। क्योंकि कभी – कभी वह करना भी अच्छा लगता है जिसका कोई लाभ नहीं, कभी – कभी वह सुनना भी अच्छा लगता है जिसका कोई अर्थ नहीं…

गुरुवार, 18 अगस्त 2016

राखी के साइड इफेक्ट

उन दिनों रक्षाबंधन का त्योहार हमारे जैसे कुछ लड़कों के लिए किसी आतंक से कम नहीं हुआ करता था। राखी का नाम सुनते ही उनके चेहरे का रंग फीका पड़ जाता। राखी लेकर बढ़ती लड़कियाँ जो साल के बाकी दिन ऐश्वर्या और दीपिका दिखतीं थीं आज गेटअप बदलकर पुराने फिल्मों की टुनटुन बनी जाती थीं। लड़कियों के आगे कलाइयाँ बढ़ाते उनकी निरीह आँखें जिबह होने जा रहे बकरों से उधार ली हुईं लगती थीं। राखी उनके कोमल अरमानों की बल्ब का फ्युज़ उड़ा जातीं और कुंवारे जीवन की शाम तेजी से ढ़लती हुई अंधेरी रात बन कर रह जाती। जाने कितने लड़कों का अरमान राखी के धागे से लटककर दम तोड़ देते थे।

 फ़र्ज कीजिए कि आप ने मन-ही-मन किसी को मन में बसा रखा हो। पूरे शिद्दत से आप इंतजार कर रहे हो उस दिन का जब आप अपनी हिम्मत बटोरकर उसके सामने अपने प्यार का इज़हार कर सके। पर बीच में ही रक्षाबंधन नामक वह दिन आ जाए और सामनेवाली की राखी आपकी कलाइयों पर ‘चींटियाँ कलाईयाँ’ करते हुए बंध जाए…. एक ऐसे ही बेचारे दोस्त की करूणापूर्ण कहानी मुझे याद आ रही है जब उसकी उमंगों की डोली राखी के धागे से लटककर उलट गयी थी…

... अपनी उमर में कॉलेज के वैसे लड़के किसी स्वतंत्रता सेनानी से कम नहीं होते जो किसी एक लड़की पर कॉन्सेन्ट्रेट करके बाक़ी लड़कियों की तरफ देखना भी गुनाह समझे।फिर कॉलेज जाने का इतना बड़ा ऑफर मिस करने का साहस कोई बिरले ही करते हैं। आख़िर सिर्फ एक लड़की के लिए शहीद होने के लिए जिगरा भी तो चाहिए। प्रियांश भी उसी नस्ल का लड़का था। न जाने कौन-से कीड़े की डंक का असर था कि अमिता नाम के अक्षरों के अलावा कुछ पहचान ही नहीं पाता था। पता नहीं उसे क्या – क्या अच्छा लगता। अमिता की ऑखें… अमिता की जुल्फें… अमिता की चाल….अमिता का चेहरा… अमिता की अदा… वह जब तक अमिता की ज्यूग्राफी खत्म कर रहा होता, उतनी देर में लड़कियों की पूरी दुनिया हमारे सामने से गुजर जाती। वैसे भी हमें तो हमारे पास से गुजरती हर लड़की अच्छी ही लगती, बिना भेदभाव के सब पर निगाह चली जाती थी। कॉलेज की भारी-भरकम फ़ीस वसूल करना है, यह बात भी अच्छी तरह से याद रहती।

ख़ैर, प्यार के शहीदों की दुनिया ही अलग होती है। अमिता नाम की माला जपते प्रियांश दूसरी लड़कियों की तरफ़ देखना भी गंवारा नहीं करता। लड़कियाँ भी तिरछी नजरों से उसी की तरफ़ देखते हुए निकलती। शायद उसकी तरफ़ से ख़तरा नहीं था, यह भाँप गयी थीं। क्योंकि, सुंदर तो हम भी कुछ कम न थे, अपने तरीके से ऋतिक रोशन बने फिरते थे लेकिन साले की बात ही कुछ और थी। वह कॉलेज की पहली पीरियड मिस कर सकता था लेकिन अमिता का आना – जाना कदापि नहीं। अमिता भी निकलते हुए एक – आधी नजर देख लेती, प्रियांश का दिन बन जाता। चार महीने में बात सिर्फ इतनी ही बढ़ी थी उनकी। नाम भी हमारा ही दिया हुआ था – ‘अमिता’। 

इस बीच हमारी दोस्ती सात-आठ से हो चुकी थी और उनमें से आधी के साथ सिनेमा, घूमना-फिरना भी हो चुका था। यह अलग बात है कि इस चक्कर में महीने के बीस दिन हम कंगाल से बने फिरते थे। इस दरम्यान हमारी सारी रहीसी Pause Mode पर शिफ्ट हो जाती। महँगे सिगरेट की जगह पनामा और जरूरत होने पर बीड़ी से भी नाता जोड़ लेते,  Movie देखने की आदत वही होती (First Day – First show वाली), बस बैठने की जगह बदल जाती- BC /DC से रियर स्टॉल। यह सब Adjustment सिर्फ लड़कों के ग्रुप में होती, लड़कियों के साथ होने से फिर से ब्रांडेड रहीसी वापस चढ़ जाती थी जिसकी फंडिग दोस्तों से लिए गए उधार से होती थी। दोस्तों की यह क्रेडिट-सेवा सिर्फ ऐसे मौकों के लिए ही उपलब्ध थीं।

ऐसा नहीं था कि हमने प्रियांश को अपनी ग्रुप में लाने के लिए कोई कम मेहनत की। पर पता नहीं कौन सा भेजा लेकर पैदा हुआ था कि हमारी सारी खूबियों में कोई न कोई कमी निकाल देता। सिगरेट को नशा कहकर टाल देता, बीयर को कड़वी समझकर और सिनेमा को टाइमपास बताकर। अब किस्मत कौन बदल सकता है! जो लिखा है वही भोगता न।
देखते-देखते वह दिन भी आ गया जिसका इंतज़ार हर भाई-बहन को तो होता है पर किसी लड़के को नहीं। इस दिन बिना कंफर्म रिश्ते वाले जोड़े छुट्टी लेकर अलग रहना ही उचित समझते हैं। लड़के तो विशेष सतर्कता बरतते हैं इस दिन। पता नहीं काली बिल्ली के जैसी कौन-सी लड़की मिल जाए राखी लिए और एक रिश्ता फ्रेंडशिप से प्रेम- शिप बनने के पहले ही दूसरी राह मुड़ जाए! खैर, हमने तो पहले ही आपस में एक-दूसरे की बहन होने का फ़र्ज निभा लिया। अब सूनी कलाई लेकर बाहर निकलने में रिस्क कितना होता है यह तो आपलोग जानते ही हैं। पर इत्ती-सी बात प्रियांश को समझ नहीं आयी। अमिता को देखने की ललक में रिस्क – फैक्टर ही भूल गया। रक्षाबंधन के दिन सूने हाथ दूर से ही चमकने लगते हैं और न देखने वाले भी एक बार देख लेते हैं जिज्ञासावश। छूट्टी का दिन था। लड़कियाँ झुंड के झुंड घूम रहीं थीं अपने-अपने हॉस्टल से निकलकर। उनमें से कुछ आकर खड़ी हो गईं प्रियांश के सर पर। आनेवाले ख़तरे से अनजान वह टकटकी लगाए हुए था अमिता के हॉस्टल की तरफ से आनेवाले रास्ते पर। उनमें से एक ने उसका ध्यान खींचने के लिए कहा – “भैया….!  लगता है आपके लिए राखी नहीं आयी है।“ प्रियांश इस अचानक हुए हमले के लिए कतई तैयार नहीं था। सामने लड़कियों का ग्रुप खड़ा था। सबके हाथ रंग – बिरंगी राखियों से लैस थे। उसे लग रहा था कि वह एक मेमना है जो अपने झुंड से बिछड़कर शेरनियों के इलाके में आ गया है। वह क्या करे – सोच ही रहा था कि एक – एक करते हुए छ: राखियाँ उसकी कलाइयों से बंध चुके थे। “आज के दिन कोई बिना राखी बंधवाए रहता है क्या?”-अमिता ने उसके हाथ पर आख़िरी राखी बांधते हुए कहा।

लुटा-पिटा प्रियांश उसके बाद हमारी मंडली का मानद् सदस्य बन चुका था। उसे अफ़सोस सिर्फ़ इस बात का था कि हमारी मंडली की पाठशाला अगर वह समय से ज्वाइन कर लेता तो जीवन की सबसे भयंकर दुर्घटना से बच जाता।



सोमवार, 15 अगस्त 2016

हम जब आज़ादी की बातें करते हैं तो अनायास हमें अंग्रेजी दासता याद दिला दी जाती है और उससे बचकर निकल आने का जश्न हम मना लेते हैं हमारे स्वतंत्रता सेनानियों, क्रांतिकारियों, समाजसेवियों की तस्वीरें सामने रखकर। बगैर यह सोचे कि क्या आज़ादी हमें उसी रूप में मिली जिसकी हमें ख्वाहिश और ज़रूरत थी।
आख़िर हमें आज़ादी चाहिए किससे थी। उसके मायने क्या थे। शासन तो पहले भी था, अब भी है और उम्मीद है आगे भी रहेगा। और शासन वहीं होता है जहाँ शासित हों। फिर आज़ादी का क्या मतलब!
क्या सरकारों ने कभी जानने की कोशिश की है कि जनता क्या चाहती है, बात चाहे अंग्रेजों की करें या चुनी हुई सरकारों की। लोकतंत्र की जिस नींव पर देश खड़ा है क्या उसके लिए कोई जनमत-संग्रह भी हुआ है? क्या लोकतंत्र पूरी तरह से लोकतंत्र हो पाया है आज भी या सिर्फ शासन करने की एक और कुत्सित प्रणाली बनकर रह गया है। पर-शासन से (कथित)स्व-शासन तक पहुँच पाना ही अगर आज़ादी है तो फिर ठीक है। हम कुछ नहीं कहते। लेकिन उनका क्या जिन्हें आज़ादी क्या है-यह समझने की फुर्सत भी नहीं मिल पायी है। जिनकी सुबहें कच्ची छतों से टपकती बरसातें चुरा ले जाती हैं और शामें बज़बज़ाती नलियों- गलियों और गालियों में छिप जाती हैं।
शासकों की आज़ादी तो बढ़कर युवा हो चली है पर शासितों की आज़ादी अभी भी अछूत बनकर चौखट के बाहर ही खड़ी है। कुछ सवाल ख़ुद से भी होने चाहिए। मसलन क्या हम अपनी आजा़दी को पहचान पाए हैं? क्या हम अपनी आज़ादी को संभालने लायक भी हो पाए हैं? कहीं हम अपरिपक्व आज़ादी लेकर ही तो नहीं इतरा रहे हैं? क्या आज भी हम जोड़ पाए हैं अपने आपको अपना कहने वाले इस देश से?
मुझे तो नहीं लगता ऐसा।
जिनको लगता हो, उनको बधाई! मुझे तो मेरी आस्था आज भी जुड़ी दिखती है-अपने आप से, अपने धर्म से, अपने स्वार्थ से, अपने विकास से, अपने अहं से। देश तो अभी भी इंतज़ार कर रहा है, इस अपनी-सी आज़ादी से आगे निकलकर उसकी ओर देखे जाने का। वैसे इतने धर्मों-पर्वों के बीच एक और पर्व आ गया है – आज़ादी का, तो मना लेते हैं। चाहे मनाने भर के लिए ही सही!

गुरुवार, 11 अगस्त 2016

शब्द-दर्पण-4

“ हमारे देखे हुए कुछ सपने ओस की बूंदों जैसे होते हैं
चढ़ती धूप के साथ-साथ अस्तित्व खोते जाते हैं..!”
आप किसी से बहुत प्यार करते हैं। इतना कि अगर उसमें और जिंदगी में से किसी एक को चुनना पड़े तो आप पल भर भी न लें और उसका हाथ थाम लें, जिंदगी की तरफ पीठ किए। और फिर एक दिन वह चला जाए आपको छोड़कर। बिना कुछ कहे, बिना कुछ सुने। कैसा लगेगा.. सोचिए जरा! दुनिया लूटी हुई लगेगी न! कमोबेश एक ही नियति होती है फिर – लूटना-पिटना, रोना-धोना… अंतत: तड़प कर रह जाना! ऑप्शन तो यही होते हैं, अगर आप उसकी याद में तड़पकर चले न जाएँ… किसी और दुनिया में!
             लेकिन, कितना रोइए कि आपको सुकून मिल जाए… कितना चींखिए कि बाहर का शोर ढ़क ले भीतर की शांत भिन्नाहट! कितना छीलिए अपने वज़ूद पर दीवार बनते जा रहे दिल को कि उसपर जमी यादों की हरी काई उतरने लगे!
नहीं दोस्त!
यह सही नहीं है। आप रोओगे उसकी याद में, वह और शिद्दत से याद आएगा- आप फिर रोओगे। आपकी चीख उसको पुकारेगी-वह और दूर होता जाएगा । तात्पर्य यह है कि आप उसे वापस नहीं ला सकते जब तक वह आना न चाहे। तो क्यों न ऐसा किया जाए कि कुछ देर ना रोएँ। कोई बात नहीं अगर हँस न भी पाएँ तो। किसी जख़्म का पहला इलाज़ उसे सुखाना नहीं होता, बल्कि उससे बहते ख़ून को रोकना होता है। तपती धूप में निकल गए मुसाफिर को भी मंजिल से पहले ठहरना पड़ता है कई बार। रास्ते की धूप तो अपरिवर्तित रहती है लेकिन मन तैयार हो जाता है फिर से, उस धूप को सहने के लिए। तो ठहर लीजिए जरा दुनिया की छांव में, उस राह से अलग आगे-आगे जा रहीं हों उसकी यादें जिसपर। वैसे भी, दुनिया में यदि सिर्फ़ एक ही वज़ह होती किसी के जीने के लिए तो फिर बाक़ी सारी चीजें नज़रों में आती ही नहीं। इन आँखों का काम वहीं समाप्त हो जाता जहाँ से वह ओझल हुआ था। धड़कनें उसी राह पर ठहर जातीं बिना पल गंवाए जब किसी ने बिना अलविदा कहे आगे की राह पकड़ ली थी। हमारे शब्द आवाज़ खो देते उस क्षण ही जब उसने अनसुना किया था हमारा पुकारा जाना। किसी का प्यार अमृत बन सकता है जीवन का, मगर अमृत न मिलने की कमी विष से पूरी तो नहीं ही की जा सकती।
        हम जीवन को उस एकमात्र रेलगाड़ी के जैसा नहीं समझ सकते जिस पर सवार न होने की सूरत में यात्री पीछे छूट जाते हैं। हम जीवन को उस विमान के जैसा भी नहीं समझ सकते जो या तो आकाश में उड़ेगा या फिर धरती पर निर्जीव खड़ा रहेगा। इतना निर्जीव कि उसे चार कदम आगे-पीछे करने के लिए भी सहारे की जरूरत पड़ती है।
जीवन तो मौसम है, बदलता जाएगा – धूप को छाँव में, किसी सूने को गाँव में। बस चलते रहिए जब तक रूकने को कहा न जाए!

रविवार, 7 अगस्त 2016

झूठा


सुनो! फिर कब आओगे?
कभी नहीं।
क्यों?
मैं नहीं चाहता तुमसे मिलना।
क्यों?
हर बात बताई नहीं जाती।
कभी नहीं? उसने जैसे सुना ही नहीं।
नहीं।
क्यों? तुम्हें बताना होगा। उसने ज़िद की।
डरता हूँ, कहीं तुमसे प्यार न हो जाए।
इसमें डरने की क्या बात है?
डरता हूँ कहीं तुम्हें भी न हो जाए।
हाँ तो इसमें भी डरने की क्या बात है?
लड़के ने आश्चर्य से उसकी ओर देखा। यह इतना आसान नहीं है यार!
मुझे मालूम है।
तुम्हें डर नहीं लगता।
किस बात का?
लोगों से?
इसमें डरने की क्या बात है? गलत क्या है इसमें?
सोच लो। कहीं पीछे तो नहीं हट जाओगी।
सोच लिया। लेकिन मैं गरीब हूँ। कुछ नहीं है मेरे पास साथ लाने के लिए।
अरे! तुम तो मुझे शर्मिन्दा कर रही हो। तुम ही तो मेरी दौलत हो। मुझे बस तुम्हारा प्यार ही तो चाहिए।
लेकिन लोगों की बातें… मुझे मालूम है, लोगों को बहु कम, उसके साथ आयी हुई बेज़ान चीजें ज्यादा पसंद आती हैं। उनकी भी सुननी पड़ेंगी, जानते हो न।
तुम यह सब सोचना छोड़ो, मैं सब संभाल लूंगा।
दोनों ने जाने से पहले एक-दूसरे को गले लगाया और मुस्करा कर एक-दूसरे से विदा लिया।
समय को पंख लग गए थे। उनका प्रेम भी निकल चला था उन पंखों पर सवार होकर।
यह अलग बात है कि चाहे जहाँ भी ले जाएं ये पंख उड़ते हुए, आसमान के साथ – साथ जमीन भी चलती रहती है सदा। यह ज़मीन कभी समतल होती है तो कभी उबड़-खाबड़, कभी मखमली होती है, तो कभी कांटों भरी। कब, कौन सी धरती पर उतर कर ठहरना है यह आसमान में विचरण करते पक्षी ही तय करते हैं।
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चौदह महीने बाद।
गाजे-बाजे के साथ बारात निकल रही थी। दुल्हे के कीमती शूट-बूट देखनेवालों की आँखें चौड़ी कर रहे थे। उसने इधर-उधर देखा। लोगों के चेहरे पर कौतूहल के भाव थे। लड़के की आँखों में गर्वीली चमक थी और होठों के आसपास के क्षेत्र हल्की मुस्कान से भींगे थे। खुशियाँ बेइंतहा थी।
उधर मोहल्ले के दूसरे छोर पर एक लड़की वादों की पोटली खोले बैठी थी। सारे वादे संक्रमित हो सड़ रहे थे। तेज बदबू फैल गई थी। उसका मन कर रहा था कि दुपट्टा अपनी नाक पर रख ले, लेकिन उसने ऐसा किया नहीं। उसने ऐसी दुर्गंध पहले कभी नहीं महसूस किया था। उसे समझ नहीं आ रहा था कि इस बुरी गंध को कैसे ख़त्म किया जाए। कीचड़ होता तो धो भी देती, राख होती तो बहा देती सामने नदी के पानी में, दर्द भी होता तो घोल कर पी जाती आँसूओं में। उसे याद आया कि उसे दर्द नहीं हो रहा था। आँसू भी नहीं आ रहे थे। उसे कुछ अच्छा नहीं लगा। वह उठी और जाकर खड़ी हो गई बारात के सामने। दुल्हे ने नज़रें उठाने की कोशिश की लेकिन पलकों पर कुछ रखा हुआ-सा लग रहा था,  उसका भार भी कुछ ज्यादा था, उठा नहीं सका।
लड़की ने इशारे से बैंड-बाजे को बंद कराया। लड़के से कहा – “तुम्हारे लिए एक तोहफा लायी हूँ। “
असमंजस की स्थिति में लड़का सामने आया। कुछ समझ में आता उससे पहले ही चटाक की आवाज करता लड़की का हाथ चल चुका था।
लड़की ने महसूस किया कि लोगों ने अपने नाक-भौं सिकोड़ रखे थे। वह संतुष्ट हो गई। बुरी गंध को वह ठीक जगह ले आयी थी। अब धीरे-धीरे दर्द भी जीवित होने लगा था अंदर कहीं। उसे लगा अब वह बेहतर महसूस कर रही थी।
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शनिवार, 30 जुलाई 2016

शब्द-दर्पण - 3

समय के पास एक कंधा होता है इंतजार का। कभी इस कंधे पर कुछ देर सर रख लेता है मन कि अहसासों को थोड़ा आराम मिल जाए । जैसे एक झपकी का फासला कभी-कभी दिलो-दिमाग को फिर से सोचने लायक बना देता है। इधर ढ़लती रात-सी बेचैनी विलीन हो जाना चाहती है उजली सुबह-सी सुखद अहसासों में। उधर परिंदों के पंखों पर सवार होकर रात निकल जाना चाहती है दूर कहीं चुपचाप यह सोचकर कि सवेरा थाम लेगा उसकी स्याह सायों को। जबकि रात को चाहिए होता है साथ अंधेरों का। मगर यह देखकर कि परिंदों ने बसाया हुआ है सपनों का आशियाना, बस मुस्करा देती है रात। वैसे भी रात बनी है सपनों को सम्हालने के लिए, तोड़ कैसे दे।
 दूर कहीं बिजली की एक नन्ही चमक छिटकती है अपने प्रकाश - दल से और अंधेरों को जगाती हुई बिल्कुल पास आ जाती है। जैसे चाहती हो चूमना रात की उदासी को। पर रौशनी की एक हल्की लकीर खींचते हुए खो जाती है उसी अंधेरे में कहीं। थोड़ी देर के लिए अंधेरों में चलती तन्हाई रौशन हो जाती है। और फिर से सबकुछ पहले जैसा हो जाता है - शांत।
मगर गहराती हुई शांति कभी डरावनी भी हो जाती है, ऐसे में अंधेरे को ओढ़कर मन ढ़क लेता है खुद को और यादों की ड्योढ़ी में रात चुपचाप ताकती रहती है किसी अलसाये प्रहरी – सा। पास किसी पेड़ के पत्ते हवा के छेड़ने से मचल उठते हैं और वीरान खामोशी मौका पाकर जरा खाँस लेती है किसी मरीज के जैसा। रात के दरवाजे पर दस्तक सी होती सुनाई पड़ती है और इधर करवट बदलता हुआ मन डर के घोंसले से बाहर देखता है झांककर तारों की ओर जैसे नाप रहा हो लंबाई रात की। वैसे भी अब तक तन्हाइयों ने काफी लंबा सफर तय कर लिया होता है। बस जरूरत होती है भागती नींद के किसी टुकड़े को खिड़की से खींचकर ख़ुद में समेट लेने की जबतक कि रात की नमी पिघलकर सुबह की रौशनी से चमकने न लगे।
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मंगलवार, 26 जुलाई 2016

रेनबो

कभी शाम का मतलब होता था किताबों के अधखुले पन्नों को माँ की डाँट के सामने कर हल्के से निकल लेने का समय। बेचारे पन्ने कातर नजरों से देखते रह जाते थे और हम निकल लेते सूरज को अलविदा कहने। सूरज मेरे अलविदा कहे तक पश्चिम में लटका ही रहता इतनी  भी  नहीं छनती थी हमारी। बात बस इतनी होती कि पश्चिम की  नदी उतरने से पहले उसकी गुलाबी किरणें जब शहर की सबसे ऊँची और खुबसूरत मकान की छत पर ठहरती तो किसी नयनाभिराम चेहरे की पानी से टकराकर इंद्रधनुष बन छा जाती। फिर तो क्या उत्तर, क्या दक्षिण सभी दिशाएँ सतरंगी ही दिखती जाती। यह इंद्रधनुष तब तक बना रहता जब तक हम वहाँ से गुजरते हुए अपनी मुस्कान को उसकी छत पर छोड़कर निकल नहीं लेते। पीठ पीछे सूरज बड़ा सा थम्स-अप करते हुए ओझल हो जाता। ऊँची छत की मुंडेर लाँघती बदले में जब उसकी हँसी आँखों से टकराती तो किक खाये फूटबॉल की भाँति मन ऊँचा ही उठता चला जाता। उसके बाद तो खेलने की शक्ति बिना ‘बूस्ट’ पीये ही इतनी बढ़ जाती कि फूटबॉल पीछे छूटी रहती और मैं गोलपोस्ट के अंदर। जब साथियों की सहनशक्ति बिना हवा के टायर जैसी पिचक कर जमीन चाटने लगती तो दांत किटकिटाते एक साथ बढ़ते मेरी तरफ। उनकी नज़रों की बेपनाह मोहब्बत को अधूरा छोड़कर भागना ही ज्यादा उचित लगता उस समय। वैसे उनके गुस्से की धीमी होती आँच को दूर से देखने का भी अलग मजा होता था। फिर दबे पांव शामिल भी हो जाता कुछ ज्यादा भले दोस्तों की सिफारिश पर। खेल ख़त्म होता तो सिलसिला शुरू हो जाता चटपटी बातों का। फिर तो  धूल-धूसरित शाम जब तक अंधेरे की काजल से सज नहीं जाती क्या मजाल कि घर वापस लौटने का ख्याल भी पास फटके। घर लौटते नीम अंधेरे में भी उस ऊँचे मकान की छत पर किसी का मेरे लिए इंतजार बड़ी शिद्दत से अपनी रौशनी बिखेर रहा होता था। फिर एक-दूसरे की तृप्त मुस्कान लौटाते हुए हम दोनों की शाम ख़त्म हो जाती।

शनिवार, 23 जुलाई 2016

शार्टकट समाधान

छोटी-सी बात से शुरू हुआ विवाद झगड़े की शक्ल लेकर खून-खराबे तक पहुंच चुका था। सैकड़ों की भीड़ भी जुट गई थी मगर बीच – बचाव करना उनमें से किसी को नहीं आता था । भीड़ को ऐसे तमाशे की आदत होती है देखते रहने की। गुस्से का ईंधन खत्म होने तक दोनों पक्षों में से कुछ की नाक टूट चुकी थी, कुछ का सर फूट चुका था और जो बच गए थे वे अपने होश दुरूस्त करने में लगे थे। लाठी-डंडे अपना हुनर दिखा चुके थे, अब उनका बाहर रहना कोई जरूरी नहीं था।। भीड़ भी लगभग चौथाई हो चुकी थी। उस चौथाई के एक अच्छे हिस्से में हलचल हुई और कुछ लोग आगे आए। उनके लिए दोनों पक्षों के घायल एक-समान थे। उनके सहयोग से घायलों ने अस्पताल में जगह पायी और बाकियों ने थाने की राह पकड़ी। अस्पताल का बिल तो कम निकला लेकिन थाने की ‘फीस’ ने दोनों पक्षों के सलामत लोगों के तबीयत भी बिगाड़ दिए। पक्षवार ‘फीस’ इस प्रकार थी-
पाँच हजार – बड़ा बाबू की सलामी के,
एक हजार – मुंशी जी का नजराना
और बाक़ी संतरी आदि के लिए खुशीपूर्वक जो दे दें।
उनके चेहरे के उड़े तोते देखकर एक संतरी को दया आयी और उसने एक सुझाव दिया। नतीजा यह हुआ कि थाने के एक कोने में ही कुछ देर पहले तक एक-दूसरे के खून के प्यासे लोगों ने साथ बैठकर शांतिपूर्ण तरीके से सोचने का फैसला किया। निष्कर्ष निकला कि लड़ाई बहुत खर्चीली होती जा रही है। जब शुरूआती क़ीमत इतनी बैठ रही है तो आगे जाकर जमानत, कोर्ट – कचहरी और तारीख़ो के झमेले इसकी क़ीमत बढ़ाते ही जाएंगे। उनकी समझ से लड़ाई सस्ते में ही ख़त्म करने में सबकी भलाई थी।
अंत में, मुंशी जी की मुट्ठी में हज़ार के दो नोट देकर और बड़ा-सा अहसान-बोध लेकर दोनों पक्षों ने आपसी समझौते की पावती प्राप्त कर ली। सबने इस नेक राय के लिए अच्छे दिल वाले संतरी का शुक्रिया अदा किया और लौट चले। वापसी में सारे लोग इस बात पर एकमत थे कि इतने कम समय और पैसे में  इससे बेहतर समाधान निकलना मुश्किल था।


मंगलवार, 19 जुलाई 2016

शब्द-दर्पण - 2

सड़क पर टहलते हुए अचानक से सुनाई देती है कानों को चीरती हुई किसी इंजन का शोर..स्वच्छ और निर्विरोध सुबह कुछ पल के लिए बिखरने लगता है। मैं निकल पड़ता हूँ थोड़ा और आगे। जहाँ न कोई शोर सुनाई दे न बिखरी हुई सुबह लगे। मैं चाहता हूँ सुकून, जरा ठहरा-सा। अपनी ही दुनिया से छुटकारा चाहिए होता है, सिर्फ कुछ समय के लिए। आँखों को थोड़ी फुर्सत चाहिए होती है नजारों को संचित करने के लिए। एक अहसास चाहिए होता है कि यहाँ सिर्फ मैं हूँ और कुछ लम्हे हैं रूके-से। नजरे दूर-दूर तक जाती हैं और पहाड़ों के बीच ठहर जाती हैं जैसे कि वापस न आना चाहती हों। पहाड़ों को छूकर गुजरती नजरे चाहती हैं कै़द कर लेना खूद में, थोड़ी-सी नर्म – नर्म हरियाली और उसपर परावर्तित होती सुंदर हल्की पीली किरणें। ऐसे में मैं नजरों को वहीं छोड़कर आ जाता हूँ वापस अपने पास। कि मन लगता नहीं यह सोचकर कि इन खुबसूरत नजारों को तुम्हारा साथ मिल जाता तो दृश्य कुछ और ही होता। कितना अच्छा होता कि इन पर्वतों की हरियाली तुम्हारे नर्म – नाजुक चेहरे की रक्तिम आभा लेकर थोड़ी अलग रंगीनियत पैदा करती। पहाडों की तलहटी में खिला एक कमल के जैसा तुम्हारा सुंदर मुखड़ा मैं निहारता रहता अपनी हथेली से सूरज को पीछे धकेलते हुए। कि जरूरी नहीं होता उसका आ धमकना इधर, जबकि पहले ही बहुत उजाला होता इधर हम दोनों की साझी दुनिया का। थोड़ी दूर पर गिरते झरने का जल जब लहराता हुआ निकलता तुम्हारे पैरों की रंगत लेकर तो मैं उनके आइने में तुम्हारा मुस्कुराता चेहरा देखा करता। यह सब सोचते – सोचते न जाने कब मैं बैठ जाता हूँ उसी झरने के किनारे। और पानी में एक चेहरा बनने बिगड़ने लगता है, बिल्कुल तुम्हारे होने जैसा!

शनिवार, 16 जुलाई 2016

ज़रा-सी दोस्ती

एक अच्छे राँग नम्बर से शुरू हुई दोस्ती थी। धीरे-धीरे बढ़ती गई। बातें भी, दोस्ती भी। जब वह ज्यादा खुश होती तो कहती –“ बाबू! यू आर माय बेस्ट फ्रेंड!”और मैं घबरा कर पूछ बैठता – “सच में?”
मैं भी किसी का बेस्ट फ्रेंड हो सकता हूँ – सुनकर संतोष होता। ऐसा इसलिए कि मेरे हिसाब से बेस्ट फ्रेंड वाली खूबियाँ मुझमें नहीं के बराबर थीं। फिर मुझे लगता कि कहीं यह अति-उत्साह में कही जाने वाली बात तो नहीं? मैं तस्दीक करता-“यार! कभी भूल तो नहीं जाओगे!”
और वह कहती-“नहीं डियर! तुम्हारे जैसा सच्चा फ्रेंड कहाँ मिलेगा? आय विल बी विथ यू… फॉरएवर.. एण्ड एवर..!
कभी वह मेरे बारे में पुछती तो मैं कहता – न तो ज्यादा स्मार्ट, न ही गुड लूकिंग हूँ…
बीच में बोल पड़ती वह-“सो व्हाट बाबू? यू हैव ए स्वीट हर्ट इनसाइड यू। प्लीज रीमेन विथ मी, ऑलवेज.. एण्ड डोन्ट एवर डेयर फॉरगेट मी or आय विल किल यू..!”
“मैं कभी रिश्ते नहीं तोड़ता डियर.. चाहे वह फ्रेंडशिप ही क्यों न हो”-हंसते हुए मैं कहता.. अमूमन बात यहीं पर खत्म हो जाती। फिर उसने जिद की मिलने की। पर मैं नहीं चाहता था मिलना। एक डर था कि कहीं वह मुझसे दूर न हो जाए। उसकी दोस्ती मुझे प्यारी थी। पर उसकी जिद के आगे मेरी एक न चली। मेरा डर सही निकला और उसकी बातें झूठीं। धीरे-धीरे वह मुझसे दूर हो गई।
मैं उस समय भी सही था जब उसकी अपनापन वाली बातों से डरता था। आज भी सही हूँ जब याद करता हूँ उसकी कही बात – “डोन्ट एवर डेयर टू फॉरगेट मी or आय विल किल यू।“
“आय स्टिल डोन्ट डेयर टू फॉरगेट यू डियर फ्रेंड.. बट व्हाट अबाउट यू।“-अगर कभी मिलना हुआ दोबारा तो जरूर पूछूँगा।




चित्र : desicomment.com से साभार

रविवार, 10 जुलाई 2016

प्रेम उधार रहा

                       *प्रेम उधार रहा*

याद नहीं कब रश्मि मुझे अच्छी लगने लगी थी। बहुत जोर देने पर भी नहीं। शायद आहिस्ता-आहिस्ता शामिल हुए थी रश्मि मेरे विचारों की सीमा में। जैसे बसंत आता है पतझड़ की सीमा में शनै:-शनै:। जैसे नींद का आना होता है धीरे-धीरे आधी रात के बाद। जैसे हरियाली आती है हौले-हौले दो चार बरसातों के पीछे।

शुरूआत शायद उसकी निश्छल मुस्कान से हुई होगी। मोतियों- से सजे उसके दाँत ज्यादातर होंठों के पर्दे में ही रहते थे। मगर जब अनावृत होते तो अपने आसपास की दुनिया आलोकित कर जाते। इसी चमक में शायद दिखी होगी पहली रोशनी प्यार की। या शायद उसकी पतली काली भवों के बीच शोभित उस बिंदी ने सुझाया होगा मुझे रास्ता प्रेम का। उस छोटी-सी बिंदी से उसके सुंदर चेहरे की आभा और निखर जाती थी। मानो निर्मल आकाश में चंद्रमा! और यह भी हो सकता है कि हिरणी–सी बड़ी–बड़ी बिना काजल के ही काली आँखों की चंचलता ने खींचा हो ध्यान मेरे अंतर का।

खैर स्पष्ट रूप से तो मुझे भी नहीं पता कि वह कौन सी झंकार थी रश्मि के व्यक्तित्व की जिसकी धुन पर नाचने लगा था मेरा मन। पर रश्मि से मेरी पहली मुलाकात मेरी यादों के दस्तावेजों में साफ-साफ अंकित थी ।

तब पहली बार मैंने महसूस किया था उसका होना। कहने को तो वह अपनी सहेलियों के साथ थी। लेकिन मेरी नजरों में वह अकेली ही आयी थी। हंसी – ठिठोली करती लड़कियों की टोली में वह किसी प्रतिमा सी दिखती थी। सफ़ेद सलवार और आसमानी कुर्ते में सिमटी उसकी लंबी सुडौल देह झलक रही थी। उसपर गुलाबी रंग की बिंदी भवों के बीचों-बीच। मैंने कनखियों से देखा-अप्रतिम थी वह। कहाँ थी आज वाली मेरी आँखें अब तक। और कहाँ थी यह रूप की लहराती डाल।

“दर्पण देखते स्वयं पर अभिमान तो जरूर होता होगा..”-मेरे मन ने अंदाजे से कहा।

कुछ दूर के फासले में चलता मेरा मन कदमों से आगे निकल गया था। उसकी ओर।
उसे पूरी नजर से देखने को, उसकी आवाज सुनने को, उसका नाम पूछने को मन छिटक रहा था, मेरी सोच से आगे निकल कर। नजर हटती नहीं थी उसकी लम्बी लहराती लटों से। मन हवा पर सवार होकर उलझना चाहता था उसके बालों में। उसकी नज़ाकत भरी चाल से निर्जीव सड़क को जीवित होते देख सकता था मैं।

उस समय लग रहा था कि रास्ता ज़रा और लम्बा हो जाता। पर ऐसा हुआ नहीं। रश्मि आगे बढ़ गयी थी और मैं अपने गांव की ओर मुड़ गया था। पर जाने से पहले उसका एक बार पलटकर देखना भी सौ मन्नतें पूरी होने की खुशी के बराबर था। मैंने देखा था, मेरी ओर देखती उसकी आँखें मुस्कान भर रही थीं उसके चेहरे पर। मैं पूछना चाहता था उससे-“क्या तुम भी..!”
पर उसके सखा-सहेलियों के सामने हिम्मत जवाब दे गई। वह चली गई थी मेरे सीने को खाली करके जो अब हल्का महसूस कर रहा था और उड़ना चाहता था, बादलों से ऊपर..! चाहता था पल भर को नीचे आना प्यार की हवा में सांस लेने और फिर वापस खो जाना किसी अकेले अनंत में।
मन कर रहा था कि उसके कदम चूम लूँ, पर वह तो जा चुकी थी। सिर्फ उसके कदमों के निशान थे। मैंने आगे-पीछे देखा, लोग –बाग जरा दूर थे। मैं झूका और छू लिया उन कदमों की छाप को जो रश्मि के गुजरने से बने थे। कुछ देर के बाद ये निशान अपने अस्तित्व खो देने वाले थे।

रश्मि की तरफ झूकते दिल के पलड़े को बैलेंस करने की कोशिशें जब नाक़ाम साबित हुईं तो बात दिमाग के संज्ञान में लायी गयी। दिमाग की भवें उठीं-“नहीं!”
“क्यों?”-दिल के अपने सवाल थे। जायज़ था पूछना भी।“क्या वह अच्छी नहीं!”
“ऐसी बात नहीं..”
“क्या वह भली नहीं!”
“ऐसी बात नहीं..”
“क्या वह मेरे प्यार के काबिल नहीं!”
“ऐसा मैंने कब कहा..”
“क्या मैं उसके काबिल नहीं!”
“यह बात भी नहीं, दोस्त!”
“तो फिर..”- दिल ने बेचैन हो कर पूछा।
कुछ देर सोचने के बाद दिमाग ने कहा – “अभी अपने पढ़ने-लिखने के दिन हैं दोस्त, इसी पर ध्यान देना होगा।“
“लेकिन दिल तो उधर लगा रहता है रश्मि की ओर, अकेले तुमसे हो पाएगी पढ़ाई?”-मैंने दिमाग को अपनी शंका से अवगत कराया।
दिमाग परेशान दिखा। बिना दिल के लगे अकेले दिमाग के लिए पढ़ाई मुश्किल थी।
उसने दिल को समझाया – “देखो दोस्त! खाली प्यार-व्यार से दुनिया नहीं बनती, उसका भी वक्त आएगा।“
“पर तब तक वह दूर चली जाएगी, उसे पढ़ने में ज्यादा मन नहीं लगता, बता रहा था मेरा दोस्त अभिनव।“-दिल की अपनी चिंता थी।
“अच्छा! उसकी बड़ी चिंता हो रही है, पर उनका क्या जो तुम्हारे सहारे सुनहरे भविष्य के सपने देख रहे हैं?”- दिमाग ने दिल की कमजोर नस दबा दी थी।

***

घर की तंगहाली के बीच मेरी किताबें ऐसे चमकती थीं जैसे बादलों से भरी रात में दूर चमकती बिजली की कौंध। अंधेरा मिटने के लिए दिन का निकलना आवश्यक होता है। मेरे घर की तंगी और गरीबी मिटाने के लिए मेरा अपने पैरों पर खड़ा होना ही काफ़ी नहीं था। जरूरत थी इस रेस में दौड़कर आगे निकलने की। मुझसे छोटी दो बहनों का भविष्य भी मुझसे बंधा था, यह बात मुझे आठ-दस बरस का होते-होते अच्छी तरह समझा दिया गया था। मन कभी भूलना भी चाहता तो मस्तिष्क अपनी डुगडुगी बजा देता और मन वापस खो जाता किताबों की दुनिया में।

उस दिन मन और मस्तिष्क ने एक-दूसरे से बात न की। मन जहाँ रश्मि की सोच में डूब-उतर रहा था वहीं मस्तिष्क में भी हलचल मची थी कि आख़िर रश्मि का चित्र इतनी जल्दी मन के फ्रेम में तैयार कैसे हो गया। इसने तो कभी प्रेम की कूची को देखा भी नहीं था। उसे गुस्सा भी आ रहा था। आख़िर मन ने उसके साथ छल किया। मन की अपनी उलझन थी। क्यों उसे ही झेलना पड़ता है भावनाओं का दर्द। क्यों उसी के हिस्से में आता है अकेले होने की तड़प।

मेरे मित्र अभिनव ने बताया था उसका नाम –“ रश्मि! अपने पड़ोसी गांव की है। क्या बात है जनाब परेशान से दिखते हैं!”-उसने बात की तह तक पहुंचने की कोशिश की।
मैंने गाते हुए से कहा था –
“साथी रे साथी..
याद तुम्हारी..
कहाँ से है आती..
और कहाँ को है जाती..
सुखी डाली मन की..
जाए झूलाती..!”
“बस.. बस.. बस.. जनाब सब समझ गया” - अभिनव ने कहकहा लगाया।
“यार मुझे उससे मिलना है..”
“तो मिल लेना..ऐसी भी क्या जल्दी है!”
“फिर से गीत सुनाऊँ क्या?”
“नहीं भाई! तू रहने दे, मैं समझ गया तुम्हारी बेताबी।“
“यार! जल्दी ही तो है, पूरी दुनिया खाली दिखती है उसको देखने के बाद। अब उससे मिलकर ही पूरी हो सकेगी। चाहे एक बार ही सही।“

अभिनव किताबों के अलावा दुनिया की ज्यादातर चीजों की ख़बर रखता था। वह मेरी स्थिति से भी अवगत था और उसके सामने आनेवाली मुश्किलों से भी। जिस देश में प्यार को छूआछूत समझा जाता हो, जहाँ लोग इसे बीमारी समझकर इससे डरते नहीं बल्कि भागते हों वहाँ दो प्रेमियों को एक जगह लाना कितनी टेढ़ी खीर थी यह अभिनव को भली-भाँति मालूम था। और यहाँ तो बात गांवों की थी जहाँ ऐसे मामले बातों से नहीं, गोली – बंदूकों से निपटाए जाते थे । उसने समझाते हुए कहा – “नहीं आयुष! तेरी खाली दिखने वाली दुनिया पूरी तरह भरी हुई है – लोगों की चौकस निगाहों से, बातों में अर्थ नहीं अनर्थ ढूँढ़ते कानों से। मिलना तो दूर अगर किसी ने सुन भी लिया तो तूफान आ जाएगा। जानता नहीं उसके दबंग बाप को तू।“

अभिनव के शब्दों ने मेरी बेचैनी और बढ़ा दी थी।

अधीर होते हुए मैंने कहा – "यार अभिनव! यह बता कि हमारे क्लास-टीचर कम दबंग हैं क्या? फिर भी मैं हर बार तुम्हें नकल करवा कर पास करवाता हूँ न?"
असर में आने लगा था अभिनव मेरी बातों की गम्भीरता से।
"परिक्षाएँ फिर से आयी हैं सर पर। ऐसे में तू पास न हो तो दुख तो मुझे भी होगा न..तू समझता क्यों नहीं भाई !"

बात अभिनव के समझ में आ गई थी। उसे पता था कि मैं ऐसी बीमारी से पीड़ित हूँ जिसका इलाज रश्मि की एक झलक से ही हो सकती है। मरता क्या न करता! अभिनव के लिए अपनी परीक्षा पास करना जरूरी था और मेरे लिए रश्मि से जल्द ही मिलना। अभिनव की प्रतिभा पर मुझे पूरा भरोसा था। इस भरोसे को तोड़ने का जोखिम वह नहीं ले सकता था, लिया भी नहीं।

अगली बार जब वह मिला तो चहकता हुआ मिला।
“रश्मि को भी तुम्हारा ही इंतज़ार था। आज से तीसरे दिन रविवार को उसे बाज़ार से थोड़ा पहले सड़क के बगल के बगीचे में मिलना। वह अपनी एक सहेली के साथ वहीं आएगी।“
दिमाग ने फिर चेताया था- “वहाँ तो काफी लोग आते-जाते होंगे, बदनामी होगी।“
“लोगों की तो आदत है दूसरों की ओर झांकने की, उनकी परवाह क्यों करना!”-मन ने प्रत्युत्तर में कहा था।
“पर इन बातों में उलझने की जरूरत ही क्या है? कहीं बात फैल गई तो…!”-दिमाग का डर उभर आया था।
“कभी किताबों की दुनिया से बाहर आते तब तो समझते कि प्यार भी कोई शै है!”-मन ने मजाक उड़ाया था।

दिमाग ने बहस करना उचित नहीं समझा। उसे वास्तविकता की समझ थी। वह जानता था कि उसपर सबकी आशाएँ टिकी थीं। सच था कि मेरे जीवन में पढ़ाई के अलावा किसी और बात के लिए सोचने की गुंजाइश ही कहा थी।
“मन तो कोमल है, इस घड़ी बावला हुआ जाता है। विद्रोह की संभावना है” – दिमाग चुप हो गया था।

***

रविवार का इंतज़ार करना मेरे लिए अब तक का सबसे मुश्किल काम साबित हो रहा था। मचलते मन ने हलचल मचा रखी थी। जैसे लहरों के उन्माद में सागर के किनारे भी अशांत होते हैं वैसे ही मन के उन्माद में मैं अशांत महसूस करता था।
ख़ैर, आते-आते रविवार भी आ गया। नाराज़ दिमाग़ को घर पर ही बिठा कर मैं मुदित मन के साथ निकल पड़ा एक अहसास को जीने के लिए। दिल के रास्ते में धड़कनों का तेजी से आना-जाना हो रहा था। किसी की आँखों में अपने-आप को देखने वाला था मैं। मन मेरा भागा जा रहा था उसी रास्ते की तरफ़ रश्मि जिधर आने वाली थी।
मैं बार-बार पीछे छूट जाता था। मन देखता कभी पलटकर, मुस्कुरा देता और फिर भागने लगता।
रश्मि के बारे में सोचता मैं भी चला जा रहा था। देखा- गंतव्य से थोड़ा पहले मन रूक गया था, पेड़ की टेक लगाए।
“थक गए क्या?”-मैंने पूछा।
“हाँ”-संक्षिप्त उत्तर दिया उसने।
“ठीक है, थोड़ा रूक जाते हैं, फिर चलेंगे। वैसे भी अब पहुंचने वाले हैं..”
“नहीं! अब हम नहीं जा रहे।“
“क्यों? रश्मि नहीं आ रही क्या?”- निराश होने लगा था मैं।
“वह तो आयी हुई है, देखो दिखती है यहीं से..”-मन विह्वल होकर बोला था।
“फिर क्या हुआ? क्यों परेशान करते हो बेचारी को? इंतजार कष्ट देता है, नहीं जानते! कहीं तू भी तो नहीं डर रहा उसके दबंग बाप से, दुनिया की बातों से? “
“जानता हूँ, लेकिन मिलने के बाद बिछड़ने का दर्द ज्यादा कष्टप्रद होता है और मैं नहीं डरता किसी के भी आप-बाप से..”-मन ने तुनक कर जवाब दिया। “एक बार मेरी बात का जवाब दे दो आयुष, फिर मैं तुम्हारे साथ रहूँगा।
“बिछड़ने की बात कहाँ से आ गई मिलने के पहले ही?”-मन के इस रवैये से मुझे चिढ़ होने लगी थी।
“तो क्या रश्मि के साथ जिंदगी बीता पाएंगे हम..” – मन के इस सवाल ने मेरे होंठ सील दिए थे।
थोड़ी देर शांति रही, फिर सोचपूर्ण भाव से मैंने कहा – “शायद नहीं।“
“शायद क्या, बिल्कुल नहीं आयुष! उम्मीदों के बोझ से दबी अपनी जिंदगी से क्या दे पाएंगे हम रश्मि को, इंतज़ार के सिवा। उसके सपनों, उसकी आशाओं को हम कुछ दिनों, कुछ महीनों तक अपने नाम पर ठहरा तो सकते हैं, परन्तु उसे मंजिल कभी नहीं दे पाएंगे आयुष! जरा सोचो!” मन आज मस्तिष्क की आवाज में बोल रहा था –“ वह बेचारी इंतज़ार के सिवा कुछ नहीं पाएगी हमसे। वर्षों के लिए बिछड़ने की तड़प देने से कहीं बेहतर है कुछ पलों, कुछ दिनों का इंतजार।“

मन ने गहरा मंथन किया था। मुझे भी नहीं बताया था। पर इस वक्त मन का यह रूप मुझे तड़पा रहा था। विचलित-सा मैं बोल उठा- “लेकिन रश्मि भी प्यार करती है मुझसे, उसे कितना बुरा लगेगा?”
“इसीलिए तो..”-मन ने खुद को काठ बना लिया था, - “जो तुम्हें प्यार करती है उसे जीवन भर तड़पने के लिए छोड़ना ठीक नहीं आयुष। वह पगली कुछ घंटे, कुछ दिन तुम्हारी राह देखेगी आते-जाते फिर यह समझ कर कि तुम उसे प्यार नहीं करते थे भूल जाएगी। बस बात ख़त्म। बहुत होगा तो तुम्हें मनचला समझ कर थोड़े दिन कोसेगी। पर बाक़ी जिंदगी तो चैन से गुजारेगी। किसी और के प्यार को स्वीकार करेगी।“

“और मेरा क्या होगा?”-मैंने पूछा।
“तुम खाली हाथ नहीं जा रहे आयुष। वह देखो रश्मि बार-बार इधर ही देखती है तुम्हारी राह। तुम जानते हो कि वह तुम्हें प्यार करती है। तुम अधुरे कहाँ रहे। तुम्हारा प्यार पूरा हो गया आयुष।“

बात सही थी। रश्मि की जिंदगी चैन से बीते और उसके सपने सजते रहें, इसके लिए मेरा उससे दूर रहना ही बेहतर था। वैसे भी मुझ गरीब के पास उसके प्यार की दौलत तो थी ही। मेरे जीवन का खर्च आराम से पूरा हो जाना था इससे।

दिल का काम भी पूरा हो चुका था। उसमें रश्मि के प्यार की खुशबू बस गयी थी।
रश्मि को अपने दिल के गहरे में छुपा कर मैं वापस मुड़ गया था। भारी हो चुके मन ने आँखों के रास्ते कुछ आँसू निकाल दिए ताकि वापसी की राह आसानी से कट सके।




चित्र desibucket.com से साभार.






रविवार, 3 जुलाई 2016

पलाश के फूल

*पलाश के फूल *

शाम का समय समुद्री तट की जवानी का समय होता है। लहरों की पागल कर देने वाली चाल और उनकी ताल पर नाचते लोगों के मन। इनके बीच जहाँ – तहाँ पलाश के फूल जैसे दूर से ही दृष्टिगोचर होती जोड़ियाँ। रोहन के लिए यह समझ पाना मुश्किल होता था कि इतने लोगों की भीड़ और बेचैन लहरों के शोर में आखिर ये प्रेमी जोड़े इतना एकाग्र कैसे रह लेते हैं।
हमेशा की तरह टहलते हुए वह भीड़ भाड़ से अलग चट्टानों की संगत में बैठा था। इनके बीच बैठना उसे सुकून देता था। अनंत से चलकर लहरें आतीं और उन शिला-खंडों को चूमती हुई वापस लौट जातीं। सदियों से चलता यह सिलसिला रोहन को अनुभूति से भर जाता। लहरों और शिलाओं का यह प्रणय-प्रलाप उसके मन को बहुत भाता था।

दो निर्जीव आयामों का यह सजीव कलह अक्सर वह अकेला ही देखा करता। उस दिन भी वह खोया था लहरों के खेल में। आँखें दुनिया के उस ठुकराये हुए सुनसान का लुत्फ उठा रही थीं। अचानक से आँखों ने संशय को महसूस किया। दिमागी राडार में भी कुछ संकेत मिले। स्व-निर्देशित सी पुतलियाँ एक निश्चित दिशा में मुड़ गईं। आँखों ने थोड़ी दूरी पर एक आकृति के उभरने का संकेत दिया। और फिर पानी से एक आवाज आयी.. असामान्य-सी। कुछ गिरने की। उत्सुकतावश बढ़ गया आवाज की दिशा में। पास जाने से उसने जो देखा वह काफी था उसके होश उड़ाने को।
पानी की गहराई में एक धुंधली-सी आकृति डूबती उभरती थी।
किसी की जान खतरे में है।
रोहन विचलित हो उठा। पानी के जोड़ – घटाव में उलझने का समय भी नहीं था न ही आसपास कोई मनुष्य जिसे वह बुलाता मदद को। जल के लहराते शोर में उसकी आवाज का वहाँ तक जाना नामुमकिन था जहाँ लोग लहरों का उत्सव देखते खड़े थे। “कोई डूब रहा है.. “-वह जैसे सोते से जागा।
“नहीं, उसे बचाना ही होगा। “
उसने पानी में छलांग लगा दिया।

उसने अपने गांव की नदी में तैरना सीखा था कुछ साल पहले। परन्तु नदी और समुद्र के पानी में भी फ़र्क होता है और दोनों की परिस्थितियों में भी। समुद्र की कोई थाह नहीं होती न ही इसकी लहरों का कोई भरोसा। उसकी नसों में सिहरन सी दौड़ गयी। उसने डर को काबू में किया और लहरों के क्रोध से खुद को बचाते हुए आगे बढ़ता गया। कुछ उसकी किस्मत अच्छी थी और कुछ समन्दर का मिज़ाज़। किनारे की तरफ आती बड़ी – सी एक लहर ने डूबने और बचाने वाले की बीच की दूरी कम कर दी। रोहन के हौसले को उम्मीद मिली। उसने पूरा जोर लगा दिया। वह जानता था कि वक्त बहुत कम है और अगर वह चूका तो उसे बचाना असंभव हो जाएगा।
वह एक लड़की जान पड़ती थी। शुक्र था कि वह होश में थी। रोहन ने अपनी उखड़ती सांसों को किसी तरह थामे रखा। किनारा थोड़ा दूर सही मगर मकसद तो मिल गया था। एक जिंदगी का सवाल था। उसने अपना धैर्य नहीं खोया। एक हाथ से लड़की को खींचते और दूसरे से लहरों को काटते वह किनारे पर पहुँच ही गया। पानी का प्रभाव कहें या कुछ और लड़की को उल्टी हुई और वह बेजान सी लेट गयी।

थोड़ी देर बाद उसने आँखें खोली। उसे विश्वास नहीं हुआ कि वह जीवित है जबकि कुछेक मिनटों पहले वह मौत की सेज पर सोने चली थी। उसने फिर से आँखें बंद कर ली।
जान तो रोहन की भी निकली जा रही थी। आज तक उसने पानी का ऐसा रूप नहीं देखा था।
थोड़ा समय बीता और उसने आँखे खोली। रोहन की तरफ नजर गयी फिर झूक गयी। शर्मिंदगी से भरा चेहरा उठाया न जा रहा था। कुछेक बोलना चाह रही थी पर शब्द ठहर से गए थे भीतर ही कहीं। रोहन से उसकी हालत छुपी न रह सकी। उसने लड़की जो कि बीस के आसपास की होगी के सिर पर हाथ रखा स्नेह से-“ क्या मैं इस सुन्दर से चेहरे का नाम जान सकता हूँ? और हाँ तुम्हें यह बताने की जरूरत नहीं कि तुमने ऐसा क्यों किया। दुनिया को अलविदा कोई शौक से नहीं करना चाहता यह मैं जानता हूँ। वैसे मेरा नाम रोहन है।
“सोनम.. “
उसकी आवाज में जैसे खनक थी।
“बहुत प्यारा नाम है”। रोहन ने मुस्करा कर कहा।
“मसखरी न करो, बस नाम ही तो है, इसमें प्यारा क्या है! “वैसे भी लड़कियों की कौन सी बात गलत लगती है जो नाम गलत लगेगा। “

अरे यार, अजीब लड़की हो! जरा चैन तो ले लो। अभी-अभी लहरों से छूटकर आयी हो। कुछ शुक्रिया तो करती जाओ। उनका ही, मेरा न भी करो तो कोई बात नहीं। वैसे सच कहा तुमने सोनम कोई नाम है भला! नाम होना चाहिए था – सोनमती, फूलमती या पारवती…रोहन ने मुँह बनाते हुए कहा।

रोहन को मुँह बनाते देखकर उसकी हँसी छूट गयी।
हँसी के पीछे एक पतली-सी लकीर भी खींच गयी थी, दुख और बेबसी की। रोहन ने देखा – उसकी आँखों के किनारे एक जोड़ी धारा बह चली थी।
क्या वजह हो सकती है – रोहन ने सोचा।
प्रत्यक्ष में सोनम से कहा – चाहो तो जोर से रो लो, ऐसा कि आंसूओं से समन्दर का पानी भी मीठा होता जाए।
आँसू मीठे नहीं होते।
सबके कहाँ होते हैं पर तुम्हारी बात जरा अलग है।
सोनम मुस्कुराने पर मजबूर हो गयी थी।

रोहन की बातें अजनबीपन के दायरे से बाहर की थीं। एक तो अपनी जान पर खेलकर उसने सोनम की जान बचायी ऊपर से ऐसी प्यारी बातें, किसका मन नहीं फिर पिघलेगा। वैसे भी अच्छे लोगों का साथ दुख कम कर जाता है, अगर खत्म न भी करे तो। “यह सच है रोहन कि कुछ देर पहले मैंने अपनी तरफ से दुनिया को अलविदा कह दिया था। इस सुनसान का सहारा मैंने यही सोच कर लिया था। पता नहीं ऐसा क्यों हुआ कि जब जिंदगी खत्म लग रही थी तो मन में पहला खयाल यही आया कि मुझे ऐसा नहीं करना चाहिए था। यह मन की पुकार थी या कुछ और, लेकिन इस अंधेरे में भी अगर जीवन का उजाला मैं देख पा रही हूँ तो सिर्फ़ तुम्हारी वज़ह से। यह अहसान ताउम्र रहेगा मुझपर। हर पुजा में तुम्हारी जिंदगी के लिए मन्नतें करूँगी।“

 रोहन देख रहा था। डबडबायी आँखें ज्यादा नहीं बोल पाएँगी अब। सोनम अब कुछ सामान्य दीख रही थी।

उसने कहा – “सोनम! मैंने वही किया जो एक आदमी ऐसी सिचुएशन में करता है। तुम्हारे हिस्से में अभी जीना बाकी लिखा है। तुम्हें यह हक़ नहीं होना चाहिए कि इसे नुकसान पहुंचाओ। वैसे बातों से तुम खुद समझदार हो। बुरा मत मानना, तुम्हारी मनोदशा अभी ठीक नहीं है। मेरे परिचय के एक डॉक्टर हैं तुम्हें एक बार उनसे मिल लेना चाहिए।“
इसकी जरूरत नहीं है रोहन.. मैं बिल्कुल ठीक हूँ। वह एक आवेश था जिसमें मैंने ऐसा कदम उठाया बाक़ी नथिंग इज सीरियस.. मेरा विश्वास करो।

उसने बताया कि वह अपनी एक सहेली के साथ रहती है पेइंग-गेस्ट में। शहर के एक प्रतिष्ठित कॉलेज से एम. बी. ए  कर रही है। रोहन ने आग्रह कर उसे उसके पी. जी. तक छोड़ दिया। न तो सोनम ने न ही रोहन ने इस घटना के बारे में उसकी सहेली, प्रेरणा को कुछ बताया।

महानगर की व्यस्तता इसकी प्रकृति पर गहरा असर डालती है। यहाँ लोग मिलते हैं, कुछ कदम चलते हैं, आगे बढ़ जाते हैं। बहुत कम मुलाकातें अपनापन के रिश्तों तक पहुंच पाते हैं। प्रारंभ के कुछ दिनों तक रोहन उसका हाल – चाल पूछ लेता था। मगर सोनम ने अपनी तरफ से कभी कॉल नहीं किया था। व्यस्त दिनचर्या में रोहन भी इस बात को भूल ही चुका था। उधर सोनम ने भी कभी रोहन की ख़बर नहीं ली। हाँ, उस बीच पर उसका आना-जाना लगा रहता था।

इस घटना को दो साल हो चुके थे।
एक दिन वह टेलीविजन के सामने बैठा चैनलों के मकड़जाल में खोया था। कोई भी चैनल पर नजर टिक नहीं पाती थी। “ये चैनल भी आजकल बोर करने लगे हैं.. “ वह भुनभुना उठा। वह टेलीविजन बंद करने ही जा रहा था कि अचानक एक समाचार चैनल पर उसकी नज़र ठहर गयी। तस्वीरों में एक युवती विक्षिप्तावस्था में दिख रही थी। पुलिसकर्मियों से हाथापाई करती उस युवती पर नजर पड़ी तो सहसा चौंक पड़ा रोहन।
सोनम..!
एक डॉक्टर होने के नाते उसे समझते देर नहीं लगी कि सोनम गहरे अवसाद से पीड़ित थी। वह समझ सकता था कि क्यों कभी सोनम ने उससे संपर्क नहीं की। उससे और इंतजार न हो सका।
रास्ते भर सोनम का प्यारा चेहरा उसे याद आ रहा था। उसकी बातें ताज़ी हो रही थी। उसे स्वयं पर गुस्सा भी आ रहा था कि एक मनोचिकित्सक होने के बाद भी उसने सोनम को जाने दिया अवसाद के घने जंगल में भटकने के लिए। पर वह कर भी क्या सकता था। एक अंजान सी लड़की को वह जोर जबरदस्ती रोक भी तो नहीं सकता था। उसे अफसोस हुआ कि क्यों नहीं उसने बीच में कोई ख़बर ली।
पर वह उसकी कौन थी जो ख़बर लेता।
दोस्त! – नहीं।
परिचित! – नहीं।
रिश्ते में भी नहीं। फिर किस हैसियत से वह जाता उससे मिलने। जबकि उसे कुछ पता भी तो नहीं था। उसके बारे में, उसकी  जिंदगी के बारे में।
तो अब क्या हुआ? आज भी तो वही बातें हैं, वहीं परिस्थितियाँ हैं – उसने सोचा।
नहीं आज उसे मेरी जरूरत है, एक दोस्त के रूप में भी एक डॉक्टर के रूप में तो ख़ैर है ही।

पुलिस स्टेशन में जब उसने गाड़ी रोकी तो परिसर मीडियाकर्मियों से खचाखच भरा था। उसने मन ही मन उनका धन्यवाद किया। चाहे बाजार के हिस्से के लिए ही सही इन ख़बरों को चलाने का कुछ मकसद तो पूरा हो ही जाता है।
उसने पुलिस को अपना परिचय दिया। संक्षेप में उसने दो साल पहले का वह वाक्या भी बता दिया। पुलिस के अनुसार मदहोशी की हालत में रेलवे स्टेशन से उसे लाया गया था। उसे निकटवर्ती अस्पताल में अभी भर्ती कराया गया था।
उसने सोनम के होश में आने का इन्तज़ार नहीं किया। सारी कागज़ी कार्रवाई वह पहले ही पूरी कर चुका था।

कुछ देर बाद सोनम ने आँखे खोली तो अपने को एक अस्पताल के कमरे में पाकर चौंक गयी। कमरे के वातावरण और उसके रखरखाव से वह समझ गयी कि वह कोई प्राइवेट अस्पताल के कमरे में है। थोड़ी देर में दरवाजा खुला और रोहन ने कमरे में प्रवेश किया।
अ. रे.. ! रो.. ह.. न.. तु.. म.. बड़ी मुश्किल से वह बोल पायी।
हाँ मैं! शुक्र है कि तुमने पहचाना।
सोनम ने नज़रें झूका ली।
“और यह सब क्या है सोनम? तुमसे पहली बार मिला था तो मुझे तुमपर दया आयी थी पर इस बार मुझे गुस्सा आता है.. “
“एक प्रतिष्ठित कॉलेज की स्टूडेंट और देखने में सुलझी हुई लड़की की ऐसी हरकत.. सोचने में भी शर्म आती है.. “
सर!!
पीछे से नर्स की आवाज आयी।
क्या है? – भन्नाते हुए कहा रोहन ने।
सर, सी इज सीक नाओ.. सी निड्स योर सिम्पथी सर!
आय एम सॉरी.. मैं.. कुछ पल के लिए मैं भूल ही गया था।
उसने स्वयं को नियंत्रित किया।

सोनम से मुखातिब होते हुए उसने कहा – माफ़ करना सोनम, मैं जरा ज्यादा बोल गया। पर एक डॉक्टर के नाते इस बार मुझे सारी बात सुननी है तुम्हारे मुँह से। तभी मैं तुम्हारी मदद कर पाऊँगा। और हाँ, इस बार मेरी मर्ज़ी चलेगी।
उसने सारी रिपोर्ट्स चेक की, ब्लड में अल्कोहल और कुछ ड्रग्स की मात्रा थी।
उसने नर्स को जरूरी हिदायत दी। सोनम को उसके घर का पता और फोन नंबर देने को बोलकर वह चला गया।

कमरे में सिर्फ़ नर्स और सोनम थे। नर्स ने मुस्कराते हुए कहा – इनकी बातों का बुरा मत मानना, गुस्से में पता नहीं क्या – क्या बोल दिया.. वैसे दिल के बहुत अच्छे हैं।
नहीं सिस्टर ऐसे लोग दुनिया में बहुत कम हैं जो दूसरों की परवाह करते हैं। इनका मुझपर पहले से ही बहुत अहसान है। पता नहीं हर बार इनको ही तकलीफ देने मैं कहाँ से आ जाती हूँ।
उसने पर्ची पर अपने घर का पता और फोन नंबर लिखकर बढ़ा दिया।

दो दिनों बाद सोनम की हालत काफी हद तक अच्छी हो गयी थी। रोहन ने उसके घरवालों को फोन कर दिया था। पर अभी तक कोई नहीं आया था। उसे अकेले छोड़ना भी सही नहीं होता। कुछ सोचते हुए उसने सोनम से कहा – “जब तक तुम्हारे घरवाले नहीं आ जाते, तुम कुछ दिन मेरे घर में ही रूक जाओ.. तुम्हारी तबीयत भी तब तक ठीक हो जाएगी और मन भी लगा रहेगा। घर में मेरी माँ है उसे भी अच्छा लगेगा तुमसे बात करके।
सोनम को रोना आ रहा था। रोहन का अहसान उससे उठाया नहीं जा रहा था। मगर मज़बूरी थी, कहाँ जाती। और फिर इस बार उसमें हिम्मत नहीं हुई मना करने की।

रास्ते में रोहन के आग्रह पर उसने बताना शुरु किया…
वह एक संपन्न परिवार की इकलौती बेटी थी। घर में सुख सुविधाओं की कोई कमी नहीं थी। सब कुछ हंसी खुशी चल रहा था कि किस्मत की नजर लग गयी। एक दिन उसके पिता काम के सिलसिले में बाहर गए तो फिर उनका मृत शरीर ही वापस आया। दिल के दौरे से उनकी असमय मौत हो गई। तब वह बारह साल की थी। घर में विपत्तियों का पहाड़ टूट पड़ा था। हर समय मंडराने वाले रिश्तेदारों और परिचितों ने धीरे-धीरे आँखें फेर ली। यहाँ तक कि उसके रिश्ते के एक चाचा ने जमीन – जायदाद के लिए पापा के कुछ दुश्मनों से मिल कर षड्यंत्र करना भी शुरू कर दिया था। 

रोहन हतप्रभ होकर सुन रहा था। सोनम का दर्द उसे गहरे तक झकझोर रहा था। 

सोनम बोलती रही-"पापा के प्रभाव से शुरू-शुरू में तो गांव के अच्छे लोगों ने हमारी मदद की, लेकिन सब को अपना हित पहले देखना होता है- दूसरों के लिए कोई कब तक लड़ेगा। उनकी ज्यादतियों से उबकर माँ ने मुझे बाहर पढ़ने भेज दिया।"

"पता है रोहन! यह दुनिया उतनी बुरी नहीं है जितना इसमें रहने वाले कुछ लोग इसे बना देते हैं। पार्क में, बाज़ार में, बस स्टैंड में या रेलवे स्टेशन में, लोगों का हुजूम मिल जाता है। एक निकल जाए तो चार और आ जाते हैं उस रिक्तता को भरने। पर एक आदमी के चले जाने के बाद जो खालीपन उसके बाद जिंदगी में आता है उसे भरने के लिए कोई क्यों नहीं आ पाता? आना तो दूर लोग उसे और बढ़ा देते हैं।"
अचानक से शांति छा गई थी। ड्राइविंग सीट पर बैठे रोहन को कुछ समझ में नहीं आ रहा था कि वह क्या कहें। सोनम की बात शत-प्रतिशत सही थी। वह भी खामोश हो गया।

"खैर, समय ज़ख्म देता है तो दवा भी दे जाता है," - सोनम ने कहना शुरू किया।
"मैंने अपने पढ़ाई पर ध्यान लगा दिया। मेहनत रंग लाई और एक दिन मेरा चयन देश के जाने माने बिजनेस कॉलेज में हो गया। लेकिन मेरा पढ़ाई में अव्वल आना भी उन्हें अखरने लगा। वे मेरी शादी किसी कम पढ़े-लिखे से करवाने का दबाव देने लगे और नहीं करने पर भयानक अंजाम भुगतने की धमकी भी। माँ ने मना कर दिया। बदले की आग में उन्होंने हमारी फसलें बर्बाद कर दी। उनके डर से कोई हमारे खेतों में फसल लगाने को तैयार नहीं होता। तरह-तरह के अफवाह फैलाना शुरू कर दिया मेरे और माँ के बारे में। मेरी तस्वीर को अश्लील तस्वीरों में मिलाकर लोगों में फैला दिया.."सोनम का दर्द उभर आया था.. रोते – रोते कहा उसने-कोई कितना सहे रोहन.. धैर्य ने साथ छोड़ दिया था। कोई अपना था नहीं जिससे बाँट लेता अपना दर्द। और फिर एक अकेली लड़की का दर्द उसकी कमजोर नस भी होती है। इसी अवसाद में मैंने पिछली बार जान देने की कोशिश की थी।

रोहन का चेहरा पश्चाताप से भर उठा। पता नहीं वह क्या – क्या समझ रहा था सोनम के बारे में। आज उसके मन में सोनम के लिए बेइंतहा इज्जत जमा होती जा रही थी।
सॉरी सोनम..! पता नहीं मैंने क्या – क्या कह दिया तुम्हे, बिना तुम्हे जाने हुए।
इसमें तुम्हारी कोई गलती नहीं रोहन। इस स्थिति में जो भी होता यही समझता।

"पता है रोहन.. उस दिन के बाद मैंने सोच लिया था कि चाहे जो हो मैं हारूँगी नहीं। कोई भी विपरीत स्थिति में मैं सोचती तुम्हारे बारे में। कोई दूसरे के लिए अपना जीवन दांव पर लगा देता है और मैं स्वयं का जीवन भी नहीं संभाल सकती।"

"एक बार फिर मेरी जिंदगी वापस पटरी पर लौट आयी थी।
एक महीना पहले की बात होगी जब एम. . बी. ए का फाइनल एक्जाम होने वाला था। पढ़ाई का प्रेशर भी ज्यादा हो चला था। सर भारी-भारी सा रहता और आँखों में भी तकलीफ होनी शुरू हो गई थी।
एक दिन प्रेरणा ने एक दवा लाकर दी। मैंने खाया तो थोड़ा आराम मिला। सर भी हल्का रहने लगा। नींद भी कम आती। मैं खुश थी कि परीक्षा की तैयारी अच्छे से हो रही है। मेरा ध्यान अपने पर कम पढा़ई में ज्यादा थी। खैर परीक्षा समाप्त हुई। मैं खुश थी। पर ज्यादा दिनों तक नहीं रह पायी। एक दिन अचानक बेचैनी सी होने लगी। ऐसा लगता था जैसे शरीर अकड़ जाएगा। लगता था कुछ छूट रहा है। कुछ चाहिए पर पता नहीं क्या था वह। फिर पता नहीं प्रेरणा ने कौन सी दवा दी कि सब शांत हो गया। फिर तो हर दिन मैं यह दवा लेने लगी।"

"तीन दिन पहले जब मैंने प्रेरणा से वही दवा मांगी तो वह कहने लगी कि दवा ख़त्म हो गई है। उसने बताया कि वह दवा एक ख़ास दुकान पर ही मिलती है क्योंकि आयुर्वेदिक जड़ी-बूटियों से बनकर वहीं तैयार होती है। मरती क्या न करती मैं तैयार हो गयी। वहाँ जाने से पहले प्रेरणा ने मुझे कुछ खाने को दिया यह कह कर कि इससे कुछ राहत मिलेगी। जिस दुकान पर मैं गयी थी दवा के असर से मुझे ठीक-ठाक याद नहीं पर कोई बेसमेंट जैसी जगह थी। वहीं उन्होंने मुझे एक दवा दी पीने को। दवा ने पता नहीं कैसी असर दिखाई कि चक्कर- सा आने लगा। मैंने प्रेरणा को बुलाया पर वो उधर नहीं थी, उसके बदले दो आदमी आये जिनसे शराब की बू आ रही थी। मैंने थोड़ा संयमित किया खुद को, हालाँकि यह बहुत मुश्किल था। मैंने देखा वहाँ एक आदमी कैमरे के साथ खड़ा था। मेरा तो ख़ून सूख चुका था। मुझे वह क्षण मृत्यु से भी बदतर लग रहा था। अचानक मैंने अपने में एक ताक़त महसूस किया – चाहे जो हो जाए मुझे जीते-जी नहीं मरना। मैंने जमीन पर पड़ी एक कठोर चीज उठाई और उनमें से एक के सर पर दे मारी। उन्हें मेरे इस प्रतिकार की आशा नहीं थी। अचानक हुए हमले से वे जब तक संभलते तब तक मैं बेसमेंट की ओर दौड़ लगा चुकी थी। फिर मैंने मुड़कर नहीं देखा जिधर राह देखी, भागती गई। जब आँख खुली तो तुम्हारे पास पायी अपने-आप को।"

"ओ माय गॉड… इतना सब हो गया और मुझे कुछ भी पता नहीं! काश! कि तुम एक बार भी मुझे बता देती।" - रोहन तड़प उठा था।

"रोहन! मैं तुम्हें अपनी मुसीबत नहीं देना चाहती थी। तुम्हारी अपनी दुनिया है, अपने लोग हैं, किस मुँह से कहती। "

" क्या अपनी दुनिया में एक सच्चे दोस्त की कोई जगह नहीं होती सोनम? मैं तो इस भ्रम में तुमसे बेफ़िक्र रहा कि तुम जहाँ भी थे, खुश थे। एक बार तो आजमाया होता। "
" रोहन.. ऐसे अफसोस न करो.. प्लीज… मैं पहले ही शर्मिन्दा हूँ। तुमने पहले ही मुझपर कितने उपकार किए हैं। आगे से ऐसी गलती फिर न करूँगी।"
रोहन ने देखा सोनम की आँखों में सच्चाई के आँसू झिलमिल हो रहे थे।
रोहन मन- ही- मन सोच रहा था – सोनम यह आँसू अब सिर्फ़ तुम्हारे नहीं रहे, इसमें मेरी भी आभा मिल गयी है अब।
सोनम की तरफ़ देखते रोहन की आँखों में सपनों के दो सफ़ेद हंस तैरने लगे थे।
पुलिस तहकीकात में पता चला कि प्रेरणा को सोनम के चाचा ने पैसों का लालच देकर सोनम को ड्रग्स का आदी बनाने के लिए राजी किया था। जिससे वह सोनम की जायदाद पर कब्जा कर सके। उसकी मंशा तो पूरी न हो सकी। बदले में दोनों जेल पहुँच गए।
रोहन का समुद्र – तट का पसंदीदा जगह अब सुनसान नहीं रहा। वहाँ अब सोनम भी रहती है शाम के साथ-साथ। पलाश के फूलों जैसे दूर से दिख जाने वाले प्रेमी – जोड़ो में एक नाम और जुड़ गया था।
रोहन और सोनम का।












बुधवार, 29 जून 2016

शब्द-दर्पण

कभी लहरों पर हिचकोले खाती तो कभी किनारे की रेत को गले लगाती नाव की तरह। जिंदगी का यही आलम  है। जैसे अनमने भाव से उठते कदम निकल पड़ते हैं कहीं बिना आगे की राह देखे। कि चलो निकलते हैं… आगे देखेंगे किधर जाना है। और वहाँ तक बिना सोचे तो जा ही सकते हैं राह जहाँ तक मुड़ती न हो। जैसे एक लहर उठती है यादों की और पहले से उठी, शांति की ओर जाती पुरानी लहर को भी मिला लेती है कि सतह की हलचल कम न हो।
मैं देखता हूँ अक्सर डाल से टूटकर बिखरी हुईं फूलों की रंगीन बनावट, धरती की सतह पर। फिर सोचता हूँ कि क्या तुम्हारे होने से यह दृश्य दूसरा होता! या कि धरती फिर भी चूम रही होती नियति के मारे पंखुड़ियों को। भले ही सजी लगती भूमि मगर शाखों का दर्द तो तब भी उतना ही रहता।  तो तुम्हारे होने या न होने का फ़र्क उन फूलों की बदकिस्मती पर जरा भी नहीं पड़ता। पर जबकि नजरों के आगे तुम रहती तो यह संवेदना भी कहीं दूर बसी होती। किसी पत्ते की ओट से देखती पर मन अंजान बना रहता।
अब देखो न, तुम्हारी ही रंगत लिए एक और शाम आयी थी आज। झेंप गया था कि क्या कहूँ उसे कि जिसकी रंगत का असर था शाम पर उसने ही उगा कर रखा है कांटे दरो – दीवार और कालीनों पर यहाँ की। फिर भी अरसे से जमी धूल को झांड़ते हुए मैंने दिल का एक कोना बढ़ा दिया उसकी तरफ कि अनचाहे अतिथि के जैसे ही पर थोड़ी आवभगत तो करनी ही पड़ेगी। और फिर अपने होंठों के उजड़े फूलदान में हंसी की एक मुर्झायी डाली रख दी। हल्की-सी खुशबू ने शाम का स्वागत किया अनमने होकर। और इसके पहले कि शाम बेतकल्लुफ होकर पसर जाती मैंने इशारों में जता दिया- शाम! ठहरना है तो ठहरो कि घड़ी अभी आयी नहीं मेरे मदहोश होने की। कि दर्द की प्याली अभी सजनी बाक़ी है रात के सेंटर टेबल पर।

शनिवार, 25 जून 2016

अंधेरे का आलोक


**अंधेरे का आलोक**
वह अकेला था इस शहर में। इस दुनिया में भी। एक अनाथालय की दया पर उसका बचपन बीता। पर बुद्धि तीक्ष्ण थी और मेहनत उसका साथी था। सो नौकरी मिलने में परेशानी आयी नहीं। निबंधन कार्यालय के रजिस्ट्रार के पद पर पहली पोस्टिंग मिली और इस तरह वह भी इस शहर की हवा में हिस्सेदार हो गया। दो बड़े कमरों के घर में उसकी जिंदगी अकेली दौड़ रही थी। चीजों की कमी तो खलती नहीं थी, बचपन से अभ्यास जो था, फिर भी उसे महसूस होता कि जिंदगी में कुछ तो कमी थी।

दिन बीतते गए और महीने में बदलने लगे। एक दिन वह फुर्सत के पलों में अपनी बालकनी में बैठा गुम था। चाय की चुस्कियों के अंतराल में उसे कुछ खटका सा हुआ। अनजाना-सा कुछ। रोज तो नहीं लगता था ऐसा। बेचैन होकर उसने इधर-उधर देखा। जल्द ही उसे मालूम पड़ गया कि वह किसी की नज़रों की नोंक पर है। सामने की एक खिड़की से एक नारी शरीर उसे निहार रहा था। सामान्य बात थी। आयी-गयी होने लायक, वह शांत हो गया। 

लेकिन यह सिलसिला रूका नहीं, बल्कि बढ़ता गया। वह जब भी बालकनी में आता स्वयं को उसकी नजरों में बंद पाता। कभी-कभी उसकी मुस्कान भी दिख जाती। धीरे-धीरे वह आदी हो गया। जबतक खिड़की से नारी चेहरा दिख नहीं जाता वह बालकनी से हटता नहीं था। उसने जान लिया था जिंदगी की कमी को। 

एक दिन वह ऐसे ही बालकनी में खड़ा खिड़की को निहार रहा था। आज ज्यादा देर हो रही थी। उसका चैन जा रहा था। तरह-तरह के ख़्याल आने शुरू हो गए थे। प्रेम में इन्तज़ार के लिए कोई जगह नहीं होती। ख़ैर यह इन्तज़ार ज्यादा लंबा नहीं हुआ। थोड़ी देर बाद ही खिड़की खुली और उसकी नजरों का चैन वापस हासिल हुआ। चिरपरिचित चेहरा मुस्कान बिखेरता रौशन हुआ। नजरों की शिकायत दूर हूई तो उसने देखा- नारी – शरीर ने अपने हाथ से काग़ज़ का एक टुकड़ा नीचे की गलीनुमा सड़क पर उछाल दिया था। फिर एक इशारा मिला। मिनटों में वह लगभग दौड़ते हुए जा पहुँचा काग़ज़ी टुकड़े तक। 

क़ायदे से काग़ज़ के उस तुड़े-मुड़े टुकड़े को गली के किसी कोने में पड़ा हुआ होना था। पर उसपर लिखे गए तीन अंग्रेजी के अक्षरों ने उसे किसी के लिए उम्रभर सहेज कर रखने लायक बना दिया था। लिखावट ऐसी कि किसी को समझ में ना आए सिवाय उसके जिसके लिए वह लिखा गया था। 

उसने इधर-उधर नज़र घूमायी। गली के दोनों छोरों पर कोई न था, सिवाय सुनसान के। उसने धड़कनों को थोड़ा धीमा होने दिया। फिर झूककर उठा लिया नेह-निमंत्रण को। धड़कनों का शोर उत्कर्ष पर था फिर से। उसने सर ऊपर किया। उस ओर जिधर से आकर कागज़ का वह टुकड़ा किनारे लगा था। नारी – शरीर मुस्कान भरी नजरों से निहार रहा था। उसने भी मुस्कान बिखेरी। दोनों के रास्ते एक हो रहे थे। नारी – शरीर अब उसके लिए देवता था। प्रेम का देवता। 

अपने कमरे में आकर उसने प्रेम की सिलवटों को सीधा किया। केवल तीन अक्षर थे – आई एल यू। जैसे किसी अनाड़ी ने लिखा हो। तीनों अक्षरों का सम्मिलित तात्पर्य वह समझता था। कौन नहीं समझेगा! 
बेहद कीमती लिखावट थी। उसने संभाल कर रख लिया किसी अमूल्य निधि के जैसा। 

अब वह सातवें आसमान पर था। वापस आने की कोई जल्दी नहीं थी। आना भी नहीं चाहता था, पर आया। प्रेम की जो सौगात मिली थी उसका जवाब भी तो देना था। अठ्ठाईस बरस के बाद उसकी जिंदगी में प्रेम की पहली दस्तक पड़ी थी। भावनाओं का संक्षेपण कठिन था। चार पन्ने में किसी तरह उसने दिल की बात ख़त्म की। भावनाओं में लिपटा उसका प्रेम शब्दों पर सवार होकर पहुंच गया अपनी नयी – नयी मिली मंज़िल पर। उसने खिड़की से देखा सामने की बालकनी पर। उसके देवता ने दामन से लगा रखा था उसके जवाब को। उसकी जिंदगी की दीवार से उदासी की मैली धूल झड़ रही थी। किसी के प्रेम का सुनहरा रंग चढ़ने लगा था।

दो दिनों तक दोनों के शब्दों ने खूब भ्रमण किया। एक दिल से दूसरे दिल तक। तीसरे दिन तयशुदा समय और जगह पर दोनों का सामना हुआ। उसकी प्यारी बातें और मोहक अदा ने आदमी को यह सोचने पर मजबूर कर दिया कि वह इस दुनिया के सबसे खुशक़िस्मत इंसानों में से एक है। देवता की हँसी के अवदात आलोक में उसने पहली बार महसूस किया जिंदगी कितनी सुंदर है। सपने हजारों की संख्या में तैरने लगे थे, आँखों में। स्मित मुस्कान धारण किए उसके प्रेम के देवता ने फिर विदा लिया इस सहमति के साथ कि अब उनके प्रेम को एकांत चाहिए। वह भावविभोर था। यह मिलन तो अब इतिहास बनेगा। 

इस तरह मिलने का सिलसिला आरम्भ हुआ। वह खुश था। प्रेम परिपक्व हो रहा था। एक दिन भावी जीवन के सपने देखने – देखते पता नहीं वह कब आगे बढ़ गया अपनी स्वयं की तय की हुई सीमाओं से। परिणाम- अभिसाररत  कामना में उसे पता भी नहीं चला कि कब बिजली सी कौंधी और उनका प्रेम हमेशा – हमेशा के लिए स्थान पा गया था स्वचालित कैमरे में। प्रेम के देवता की कुटिल हँसी की कालिमा उसके वज़ूद को खाये जाती थी। उसे कुछ सूझता न था। 

प्रेम के देवता ने एक और पुजारी को अपना दास बना लिया था। 

बाद में उसे पता चला कि एक जमीन माफिया के ख़र्चे पर पलने वाली वह एक लड़की थी जिसे उस रजिस्ट्रार की इमानदारी को काटने के लिए औजार बनाया गया था। इमानदारी का लोहा इतनी जल्दी जंग खा जाएगा, उसने सपने में भी नहीं सोचा था। 


रविवार, 19 जून 2016

आधे-अधूरे स्वप्न

उसके लिए पार्क के इस हिस्से की आबोहवा में कुछ अपनापन अभी बाक़ी था। उससे आख़िरी मुलाकात की ताज़गी जड़ों की मिट्टी में मौजूद नमी जितनी बची थी। हर बार सूखने से पहले वह आ जाता और यादों के धुसर जल से सींचने के बाद लौट जाता। उन यादों में उसकी जिंदगी के खुबसूरत पल भी शामिल थे और उसी के बदौलत मिले दर्द और टीस भी।
“आरव! मिलते रहना कभी-कभी.. “
(क्यों कुछ और बाक़ी है क्या..! .दर्द शायद एक से ज्यादा किस्तों की है!)
“जरूर.." - प्रत्यक्षत: आरव ने जवाब दिया।
आखिरी शाम की आख़िरी बात थी जो कहीं गहरे पैठ गयी थी।
उसकी आँखों से कुछ बूंदें निकल कर पराए हो गए।
अपनापन के रिश्ते विछोह में परिवर्तित होने से असह्य पीड़ा देते हैं। उसने दर्द को पी लिया था।
करता भी क्या?
जब अपना ही पराया हो जाए।
जब अच्छाइयाँ भार बन जाए। जब रिश्ते का फूल काँटे-सा चुभने लगे।
उसने सर को झटका और घास पर लेट गया। थोड़ा आराम मिला। कुछ देर बाद वह तालाब की घेरे वाली दिवार पर टहल रहा था।
तालाब की बच गयीं मछलियाँ जब-तब सतह पर आकर जल की नीरवता को छेड़ जाती थीं। उसकी आँखों से एक और शाम निकल कर ढ़लने लगी…चार साल पहले वाली -

हल्की बूंदाबांदी शुरू हो चुकी थी जब वे पार्क में पहुंचे। पार्क खाली हो चुका था। उपर से पार्क बंद होने का समय भी हो चला था। गार्ड ने गेट पर ही रोक दिया। इसके पहले कि मायूस हो वे वापस होते निशा ने पचास का एक नोट आगे कर दिया। नोट की ललक गार्ड के चेहरे पर तत्काल स्पष्ट हुई। परमीशन ग्रान्टेड! अपनी पर आने से अक्सर लोग पाबंदियों को तोड़ने से नहीं हिचकते।

नया-नया बना पार्क बड़ा खुबसुरत लग रहा था। फूलों और सजावटी पौधों के गमले योजनाबद्ध तरीके से लगाए गए थे। किसी कुशल गाइड – सी निशा उसे पार्क के हर हिस्से के बारे में बताती जा रही थी। पर उसकी नज़रों की परिधि में तो हवा के झोंके से रह – रह कर उड़ते निशा के रेशम-से बाल और कंपन करते हुए उसके होठ थे। उसके होने से पार्क जीवन से भर गया था। हरेक पल कीमती था। संजोए रखना लाजिमी था।

भैया! टाईम हो गया है, बाहर चलते तो लाँक कर देता..
गार्ड ने आवाज लगायी और आरव वर्तमान के धरातल पर लौट आया।
उस दिन भी ऐसी ही स्थिति थी। हर बार गार्ड आवाज देता और - बस पांच मिनट भैया.. कहती हुई निशा आगे खींच ले जाती आरव को। अंत में तालाब के किनारे पर चढ़ ली। बमुश्किल दस इंच चौड़ी दिवार पर आगे-आगे वह और उसकी उंगली थामे आरव। बचपन उतर आया था उनके बीच। हंसते – हंसते पेट फूलने लगा था। उसकी ठंडी उंगलियों की डोर थामे बचपन छिटककर उसके साथ हो लिया। तालाब के रेलिंग पर चलते-चलते तीन-चार चक्कर काट लिये दोनों ने। बूंदें अपना काम कर रही थीं।
      कभी-कभी बेवजह की गयी बचकानी बातें ही खुबसुरत पल बन कर यादों के अलबम में कैद हो जाती हैं। तन्हाई की हवा से फड़फड़ाते इसके पन्ने फिर हमें वापस इन पलों की सैर कराते हैं।
उसका साथ आरव के लिए हमेशा एक रूमानी स्वप्न-सा होता। शब्द केवल सुनाई देते थे। बोल कर वह उन लम्हों को बर्बाद नहीं करना चाहता था। उसने तय किया था-“ बोलना उसके जिम्मे, सुनना मेरे! “

पार्क से बाहर निकलने से पहले उसने यूँ ही पूछ लिया था- “निशा मुझे भुल तो नहीं जाओगी कभी।“नहीं बाबा” – निशा ने हंसते हुए कहा। अगंभीरता से। अनजान-सा डर छू गया था उस घड़ी।

आरव गरीबी के कीचड़ से निकला हुआ था और अभी तक यह (अ)प्रमाणित था कि वह कमल था। रोजगार को हासिल करने की होड़ जारी थी मगर। यह पेट के लिए भी जरूरी था और निशा को अपनी जिंदगी का सवेरा बनाने के लिए भी।
लड़की के पिता की शर्त थी बराबरी वाली सोसायटी में ही बेटी का घर बसाने की। शर्तों वाला प्यार एक स्वाभिमानी ग़रीब को पसंद नहीं आया तो उसे भावनाओं के चाशनी में लपेट कर आकर्षक बनाया गया।
“आरव! पापा हमारे भले के लिए ही तो कह रहे हैं.. “
“और फिर तुम्हारी प्रतिभा के सामने कौन सी परीक्षा मुश्किल है.. मेरे लिए इतना भी नहीं करोगे। “

दो प्रेमियों के बीच मैं का होना प्रेम की संपूर्णता पर प्रश्नचिन्ह लगाता है। आरव ने गहरी साँस ली थी। उसके सामने सपनों का ताजमहल था तो ग़रीबी का खंडहर भी था। उस खंडहर में एक बीमार माँ की हाँफती जिंदगी भी थी जिसके कितने दिन बाक़ी थे कहा नहीं जा सकता था।
 बेटे ने कैसा रोग पाल लिया!
तय हुआ आरव को सिविल सेवा की परीक्षा पास करनी होगी फिर शादी होगी।

बीमार माँ को छोड़ कर जाना उसे कतई मंजूर नहीं होता। उसने घर पर रहकर ही तैयारी शुरू कर दी। इंटरनेट और सच्चे दोस्तों द्वारा दी गयी किताबों और नोट्स से तैयारी शुरू हुई। कहते हैं कि भाव प्रबल हो और प्रण कठिन तो फिर परिणाम तिनके जैसा नजर आता है। प्रारंभिक और मुख्य परीक्षा उसने अपनी मेहनत और प्रतिभा के बदौलत निकाल ली थी।
इंटरव्यू दो महीने बाद होने वाले थे। अब निशा बहुत खुश थी। उसे उसका प्यार मिलनेवाला था और बराबरी की सोसायटी भी। इस खुशी को सेलिब्रेट करने के लिए निशा आरव के साथ पार्क गयी थी।

बाहर निकलने से पहले वह एक बार नजर भर के देख लेना चाहता था.. निशा की बाहों के घेरे में खड़ा पाया उसने खुद को। देखा बेईमान समय को और उसके घिनौने चेहरे को। बारिश की बूंदों से बचाने के लिए उसने अपना दुपट्टा उसके सिर पर रख दिया था। दुपट्टे की झीनी ओट बूंदों को रोक तो नहीं सकी थी मगर अपनापन का ऐसा आवरण बना गई थी जिसमें प्रेम की नवजात मगर अमिट भावनाएँ ढ़ल चुकी थीं। बारिश तो खत्म हो गयी थी मगर समय हीन भावनाओं के रंग अभी भी झर रहे थे उसके सर से। फीकी हंसी उभर आई न चाहते हुए भी।

बाहर अनवरत शोर था। चिल्ल-पों थी। धकियाते हुए लोग थे। भागती हुए राहें थीं। इनके बीच वह था। “.. उसकी तो कोई राह ही नहीं है। किधर जाए..!” उसने एक नज़र भीड़ पर डाली, “भागते हुए लोगों की मंजिल तो है।“

आज इस शहर में उसका पहला दिन था। कल दिन में एक ऑफिसियल मीटिंग अटेंड करनी थी और शाम में कुछ मित्रों के साथ पार्टी। खुशी जैसी कोई चीज तो थी नहीं उसकी जिंदगी में, फिर भी। दोस्तों के लिए। दोस्त ही थे जिन्होंने उसे उबारा था। मुफलिसी से, बेमकसद जिंदगी से।गुजरे दिनों की काटती तन्हाई में इन दोस्तों की निश्छल धमक ही थी जिसने उसके जीवन की फीकी ही सही रोशनी को बचाये रखा। वैसे भी निशा के बिना यह शहर उसे सुनसान ही लगता था। दोस्तों के साथ ग़म छलकता तो मन का भार कम हो जाता।
“.. अब छोड़ो भी यार, बीते दिनों को भार बनाकर कब तक ढ़ोते रहोगे. . पूरी जिंदगी सामने पड़ी है.. कल से बाहर निकलो और आनेवाले कल की तरफ देखो… “-उसके दोस्त कहते, उँची नौकरी, समाजिक प्रतिष्ठा और सुंदर मन..क्या नहीं है तुम्हारे पास..!"

सच्चाई की बातें थी। आज उसके पास वो सब कुछ था जो लोगों की नजरों में उसे बड़ा बनाते थे।
पर उसे तो अपना बिता हुआ कल ही चाहिए था। उसकी दुनिया थी जिसमें। माँ थी, निशा थी। सपने थे, आनेवाले कल के…

इंटरव्यू के बाद मिलना भूल मत जाना.. वर्ना याद दिलाने घर आना पड़ेगा, समझे भोलूराम.. जूस का ग्लास थमाते हुए कहा था निशा ने। आरव हल्के से हँसकर रह गया।
क्या हुआ बाबू.. चिंतित स्वर गुँज उठा।
कुछ नहीं, बस आनेवाले कल की चिंता है.. निशा क्या होगा अगर मैं पास न हो.. स. का..
यार.. तुम सोचते बहुत हो, वैसा कुछ नहीं होगा। तुम पास करोगे मुझे पता है.. मैंने तो शादी की तैयारी भी शुरू कर दी है.. बस तुम पढ़ाई करो, सिर्फ पढ़ाई।.

उसके बाद आरव ने धुन ठान ली थी। दिन-रात किताबों में ही बीतता। इंटरव्यु के तैयारी के लिए कुछ जाने-माने लेखकों की पुस्तकें उसकी मित्र मंडली ने उपलब्ध करवा दी थी।
इंटरव्यू के दिन पास आ रहे थे। आरव आत्मविश्वास से जुटा हुआ था।

इधर माँ की बीमारी भी कम होने के बजाय बढ़ती जा रही थी। इन्सान सोचता तो बहुत कुछ है पर परिस्थितियाँ अक्सर हकीक़त का संतुलन बिगाड़ देती हैं। भविष्य के रास्ते उबड़-खाबड़ मिलेंगे या सपाट-समतल, यह जानना मनुष्य के वश के बाहर है अभी तक। सोचने और उसके अनुसार घटित होने का महीन अंतर भी कभी-कभी बड़ा परिणाम उत्पन्न कर देता है।

“काश! जिंदगी दो और दो चार जितनी होती..”
 माँ की ममता ने उसके दर्द को ढ़क रखा था। बेटे के दिन संवरने वाले थे, इसकी खुशी बढ़ते दर्द को प्रकट करने से रोके रखती। नतीजा बीमारी बढ़ती गयी।

साक्षात्कार पूरा हुआ। माँ भी खुश थी। अपनी बीमारी के बढ़ते प्रभाव से आश्वस्त भी थी। दिन कम हो रहे थे।
आरव ने बहुत कोशिश की पर डाक्टरों ने हाथ खड़े कर दिए थे।
माँ की ज़िद थी। आखिरी सांस घर पर ही लेगी। बेटे का घर बसते देखना शायद भाग्य में नहीं लिखा था।
आरव ने बहुत कोशिश की समझाने की निशा के पापा को।
“अंकल जी, एक माँ के लिए इससे बड़ा सपना कुछ नहीं होता कि उसके बच्चों का घर बस जाए।जिंदगी के सारे दुख उसने अपने बेटे के लिए उठा लिए। कम से कम आखिरी खुशी तो दे दीजिए। यह उपकार मुझपर कर्ज रख दीजिए।“

कुछ लोग केवल झूठी शान के लिए जिंदगी जीते हैं। रिश्तों की खुशबू, उनमें शामिल खुशियों के रंग और उनको बाँधने वाली डोर को नजरअंदाज कर अपनी छद्म सामाजिक रुतबे के लिए जीना ही सिर्फ़ जीना होता है, उनके लिए। राजशेखर भी उन्हीं लोगों में से एक थे। अपनी सामाजिक मर्यादा की उँची छत से इतनी जल्दी कैसे उतरते! न तो आरव की कातर याचना उन्हें सुनाई दी और न ही निशा की ममत्व भरी पुकार।
अपनी इच्छा को आँखों में ही बसाये आरव ने अपनी माँ को विदा होते देखा ।
एक बेटा अपनी माँ की पूरी हो सकने वाली इच्छा भी पूरी न कर सका। यह उसका स्वार्थ ही तो था। हालांकि आरव का इसमें कोई कसूर नहीं था। मगर बेटे के अंतर्मन में यह बात घर कर गई कि उसने बेटा होने के फ़र्ज को नहीं निभाया।
आरव का मन खोया-खोया रहने लगा था। निशा के लिए उसका प्यार ही अब उसे अपनी माँ का कातिल लगने लगा था। स्वार्थी था उसका प्यार। उसकी नजरों में ख़ुद के लिए हिक़ारत दिखाई देता था उसे।

निशा ने बहुत कोशिश की पर उसके मन से यह बात निकाल नहीं पायी।
"आरव, तुम्हारा दुख बहुत बड़ा है। पर यह मेरे लिए भी उतना ही गहरा है। एक और माँ का साया मेरे सर से भी उठा है। पर जिंदगी में एक बार फिर खड़ा होना ही पड़ता है लड़खड़ा कर गिरने के बाद। "
" मैं लड़खड़ा कर नहीं गिरा निशा, ऐसा होता तो मैं उठ चुका होता।"
"
अपने रिश्ते के लिए, अपनी पढ़ाई के लिए मैं यह भूल गया कि एक बीमार माँ को मेरी जरूरत है। कल को मेरे पास सब होंगे पर जो अभी-अभी छूटा है वह तो वापस नहीं न आएगा।"

"ऐसा नहीं है आरव, तुमने तो हर संभव कोशिश की पर किस्मत में कुछ और ही था तो तुम क्या कर पाते। फिर माँ भी तो यही चाहती थी कि तुम पढ़-लिख कर अच्छी जिंदगी चुनो।"
"नहीं निशा, माँ चाहती थी कि अच्छा आदमी बनूँ।
अच्छी जिंदगी और बड़ा आदमी तो तुम्हारा साथ पाने के लिए जरूरी था। तुम्हारे पिता के लिए।"
आरव का मन कसैलेपन से भर चुका था। सामाज का दोहरा आचरण और उसका ग़म उसके शब्द को अनियंत्रित कर रहे थे।
"
तुम्हारी तरफ से तो यह रिश्ता इसी शर्त पर टिका हुआ है न निशा। कल को अगर मुझे तुम्हारे मनमाफिक नौकरी नहीं मिली तो फिर इस रिश्ते का क्या भविष्य होगा। क्या यह प्यार है?नहीं निशा यह प्यार नहीं, बल्कि व्यापार है। तुमने तो एक कुशल व्यापारी जैसा सोच – समझकर निवेश किया है अपने प्यार का, पर मैं व्यापारी नहीं हूँ निशा।"
निशा निःशब्द थी।
आरव के शब्द बहुत धारदार थे, गहरे तक चोट कर रहे थे। आँसूओं की राह तैयार थी।
आरव अपनी जगह सही था। पर जो हुआ उसके लिए निशा को दोष देना भी उचित नहीं था। वह अपने पिता की अकेली बेटी थी। प्यारी भी। हर अमीर पिता की तरह राजशेखर ने भी अपनी बेटी को सुख-सुविधा के सारे साधन दिए थे और अच्छे संस्कार भी। उसे अपने पिता के निर्णय में कोई बुराई नहीं दिखी। यह अलग बात है कि उसने एक प्रेमिका की नज़र से देखने की कोशिश भी नहीं की थी।
"आरव, पापा ने वही चाहा जो हर पिता चाहता है। कौन पिता नहीं चाहता कि उसकी बेटी अच्छी जिंदगी जीये। और तुम भी तो इसीलिए पढ़ रहे थे। ग़रीबी किसको पसंद है! "

" सच कहा तुमने, गरीबी किसको पसंद है। यह तो कलंक है समाज का। एक धब्बा है अमीरी के आँचल पर। मैं भी उसका एक हिस्सा हूँ निशा, बेहतर है तुम भी किनारे ही रहो..!!"

"आरव! ऐसा नहीं है। तुम्हारे लिए मेरा प्यार ऐसी बातों से उपर है लेकिन जिंदगी सिर्फ प्यार से तो नहीं कटती.. "

" ओ रीयली! काफी समझदार हो गयी हो, पर मुझे तो लगा था प्यार के साथ पूरी जिंदगी काटी जा सकती है.. हमारी सोच नदी के दो धार जैसी अलग जाती दिख रही है..!"
आरव के शब्द नश्तर बन गड़ रहे थे। जिंदगी के उस मोड़ पर निशा उसे कोई चोट पहुंचाने नहीं आयी थी। अत: उसने जाना ही उचित समझा इस समय।
"आरव! ऐसा नहीं है.. अपने को संभालो.. धीरे-धीरे सब ठीक हो जाएगा। हमारी भी जिंदगी होगी, खुशियाँ होंगी, ग़म भी होंगे। बस तुम साथ रहना।"-उसने आरव को गले लगाते हुए कहा।
आरव को थोड़ी सांत्वना मिली। अच्छा लगा निशा का साथ। मन का गुब्बार निकल चुका था।आँखें भी नम हो चली थीं। दोनों की।

फोन का रिंगटोन बजा तो आरव की तंद्रा टूटी। मधुर का कॉल था। शाम की पार्टी के बाबत पूछ रहा था। उसने अपने हिसाब से अरेंज करने के लिए मधुर को राजी कर लिया साथ मे बाक़ी दोस्तों से भी को-आर्डिनेट करने के लिए भी बोल दिया।

आरव की मीटिंग में अभी देर थी। उसने एक बार फिर अपना प्रजेंटेशन चेक किया। सब कुछ दुरूस्त था। दरअसल संयुक्त राष्ट्र संघ की संस्था यूनिसेफ जो बच्चों की शिक्षा को बढ़ावा देने के लिए प्रसिद्ध है, उसी के कुछ प्रतिनिधियों के साथ आज उसकी बैठक थी। अगर बैठक सफल होती तो भारी अनुदान की अनुशंसा हो जाती जो गरीब बच्चों की शिक्षा नीति के लिए बहुत सहायक सिद्ध होता। सरकार की तरफ से इस काम के लिए आरव को अधिकृत किया गया था। उसने पहले भी कई मौकों पर इस काम को सफलतापूर्वक संपन्न करवाया था। उसे विश्वास था इस बार भी वह सफल रहेगा। असफल होने का दर्द उससे बेहतर कौन जानता था।

आरव के लिए जिन्दगी में अब कुछ बाक़ी नहीं था। मन को सुकून देता जाँब था। नाते-रिश्तेदार ज्यादा थे नहीं, जो थे वे अपनी दुनिया में व्यस्त थे।
अकेला आदमी या तो भविष्य के सपने बुनता है या फिर अतीत की अतल गहराईयों में भटकता रहता है।वहीं बिखरे यादों के मोती सहेजता है, समेटता है। चैन मिले तो, न मिले तो – वापस वर्तमान की सतह पर उभर आता है।
 आरव के लिए भविष्य था भी या नहीं, उसे मालूम नहीं था। वह तो बस अतीत में ही जीना चाहता था। वही  अतीत जिसमें ग़म था, दुख था, असफलता थी और निशा भी। अंतिम के अलावा किसी को याद नहीं करना चाहता था वह। मगर अतीत के पल ऐसे उलझे थे आपस में कि सुलझाना मुश्किल था।

.. दो-दो असफलताओं के बाद उसका सपना टूटने लगा था। उसे स्वयं पर तो विश्वास था मगर राजशेखर के लिए अब और इंतजार करना मुश्किल था। उनकी नजर में प्यार अपनी जगह पर सही था, लेकिन दुनिया केवल प्यार से नहीं चलती। कितने अच्छे रिश्ते उन्हे ठुकराने पड़े निशा की जिद और प्यार के आगे। इस बार उन्होंने फैसला कर दिया था।
"अगर मेरी कद़्र है और मेरी इज्ज़त का ख़्याल है तो मना मत करना बेटी, बाक़ी तुम्हारी मर्ज़ी पर दूसरी स्थिति में एक पिता-पुत्री का रिश्ता समाप्त समझना। हाँ, यह दौलत तुम्हारी रहेगी, हर हाल में। घबराना मत। "
निशा के लिए कुछ कहना बाक़ी था क्या!

एक रिश्ते को बनाने के लिए दूसरा टूट जाए ऐसा वह कैसे कर सकती थी। उसके लिए पापा ने कम त्याग नहीं किया था। न तो निशा का बेटी होना उनके लिए कोई अफसोस की बात हुई और न ही पत्नी की मृत्यु के बाद उपजा अकेलापन। उनकी दुनिया बेटी निशा पर ही शुरू और उसी पर खत्म होती थी। यही कारण था कि उन्होंने दूसरी शादी के बारे में कभी सोचा भी नहीं। जिन्होंने पाल-पोस कर बड़ा किया है उनके ही हृदय पर आधात वह कैसे करेगी।

एक बेटी जीत गयी थी। प्रेम ने हार स्वीकार कर ली।

सुंदर सपनों की दुनिया उजड़ रही थी। पार्क के जिस हिस्से में दोनों के सपने बड़े हुए थे वहीं पर सपनों को दफ़न भी किया गया। गवाह बने उफनते आँसू, लरज़ते होंठ, भींगी पलकें और सिसकते पलों के साये। एक सूरज पश्चिम में डूब रहा था, दूसरा उनके मन के किसी कोने में। अपने-अपने हिस्से की तन्हाई और बेबसी लेकर दोनों निकल पड़े अनजान-से डगर पर।

जाते-जाते निशा ने औपचारिकता निभायी थी।
“आरव! आते रहना कभी-कभी..”

आँखों के किनारे नम हो गए थे। आरव ने घड़ी देखा। एक बजने वाला था।
“ओ, शिट्! लेट हो जाऊँगा.. “स्वयं को कोसते हुए भागा आरव।
ड्राइवर मुस्तैद था, आरव के बैठते ही गाड़ी भगा लिया। साहब का इशारा पाते ही गाड़ी को जैसे पंख लग गए। नीयत समय से दस मिनट पहले वह कॉन्फ्रेंस रूम का जायजा ले रहा था। यूनिसेफ की समिति के सदस्य भी बाहर आ चुके थे। जरूरी आवभगत के बाद मीटिंग शुरू हो गई थी।
दो घंटे बाद मीटिंग खत्म हुई। आरव बहुत खुश था। अनुशंसा समिति को उसका प्रजेंटेशन बहुत जँचा था। अतः उन्होंने एक मत से सरकार द्वारा पेश किया गया प्रस्ताव मंजूर करने की सिफारिश करने का फैसला किया था। अपने अधीनस्थ कर्मियों को जरूरी निर्देश देने के बाद आरव जब बाहर निकला तो उसका चेहरा चमक रहा था। उसने मोबाइल देखा। आरव के दोस्त बेसब्र हुए जा रहे थे।
बत्तीस मिस्ड कॉल थे। उसने जल्दी से कॉल लगाया मधुर को। खुशी उसकी बातों से टपक रही थी। मधुर अचरज में था। पर खुश था। चलो दोस्त आख़िर खुश तो हुआ।

आधे घंटे बाद आरव की गाड़ी जब होटल लैंडमार्क के पोर्टिको में रूकी तो उसके सारे दोस्त वहीं जमा इंतजार कर रहे थे। जोशीले अंदाज़ में सारे दौड़कर लिपट गए। दूरियां सिमट गई थीं यारों की आज। आज़ की शाम खुशियाँ बिख़र-सी गई थी। दुआ-सलाम और गिले-शिकवों का दौर खत्म कर सभी मुड़ने ही वाले थे अंदर जाने के लिए कि आरव ने कहा – “ एक और मेहमान को नहीं ले चलोगे अंदर? “ बिन बुलाए ही सही पर है तो मेहमान ही।“
“हाँ – हाँ, क्यों नहीं.. बुलाओ तो सही!”-सभी ने समवेत स्वर में कहा।
अगले क्षण कार का दरवाजा खुला और बाहर आती हुई आकृति पर नजरें गयी तो आरव को छोड़कर सारे साथियों के मुँह खुले के खुले रह गए।
सामने निशा थी।
माहौल शांत था।
कुछ पल बाद जब माहौल हल्का हुआ तो आरव आगे-आगे और सारे दोस्त उसके पीछे-पीछे थे।
साले बता नहीं सकता था..
कमीने फोन पर तेरी खुशी यूँ ही नहीं छलकी जा रही थी..
कुत्ते मैं तेरा खून पी जाउँगा..
निशा लोटपोट हुई जा रही थी। फ़िजा एक बार फिर रंगीन हो गई थी।

बाद में डायनिंग टेबल पर सारे लोग ध्यान से उन दोनों को सुन रहे थे। आरव ने कहना शुरू किया – “एकबारगी तो मुझे यक़ीन ही नहीं हुआ अपनी आँखों पर। एक तो साड़ी में पहली बार देखा था निशा को, उसपर मीटिंग का प्रभाव, मुझे लगा यादों का हैंगओवर तो नहीं है यह…!"
"आरव तुम भी तो पहचान में नहीं आ रहे थे। मैंने तो लिस्ट में तुम्हारा नाम देखा तब विश्वास हुआ।"
"हाँ निशा! कौन जानता था कि जिन्दगी के इस मोड़ पर यूँ अजनबी बन मिलेंगे!"– आरव ने अफसोस के स्वर में कहा।
दरअसल निशा यूनिसेफ के लिए काम करती थी और आरव के साथ होने वाली बैठक में शामिल होने अन्य सदस्यों के साथ आयी थी। अचानक से मिले दो (पूर्व)प्रेमी बैठक की विवशता और औपचारिकता में लाचार थे। भावनाओं को जताना तो दूर ठीक से बात भी नहीं कर पाए थे। मीटिंग खत्म हुई तो भावनायें प्रवाहित होने लगी। कभी खुशी में नज़रें मिलाते फिर अनदेखे हकीकत को जानकर नजरें हटा भी लेते। पता नहीं यह दौर कब तक चलता अगर निशा ने पूछा न होता – और बताओ घर पर कैसे हैं सब?
“घर!! “-हंसा था आरव।
“जैसा भी है सामने है तुम्हारे.. मेरा घर.. मेरी दुनिया.. सब तुम ही तो थी.. तुम मेरी रही नहीं तो अब सिर्फ मैं हूँ – ठीक भी हूँ! “
आरव ने देखा - डबडबायी आँखों से निशा लिपट गई थी आरव के गले से।
हड़बड़ाकर पीछे होना चाहता था आरव।
इक्का-दुक्का लोगों का आना-जाना हो रहा था गैलरी में।
“निशा तुम किसी की पत्नी हो, ऐसा आचरण सही नहीं है! “-आरव ने चुटकी लिया। वास्तव में वह निशा के आचरण से अच्छी तरह परिचित था।
“तुमसे शादी हुई नहीं तो पत्नी कैसे बनी। “
“किसी और की पत्नी “
“नहीं बाबा! किसी और की भी नहीं हूँ.. अब तो निश्चिंत हो जाओ… भोलुराम§§.. “ गाते हुए कहा निशा ने।
दोनों हँस पड़े।
निशा ने बताया कि शादी से दो दिन पहले ही प्लेन – क्रैश में उसके मंगेतर की मौत हो गई थी। फिर निशा ने भी मना कर दिया था। इस सदमे के बाद उसके पिता ने भी दबाव देना बंद कर दिया था। निशा का मन इस शहर से उचट चुका था। उसने एक प्रतिष्ठित कॉलेज से एमबीए किया था। जल्द ही एक एनजीओ से जुड़कर विदेश चली गयी। बाद में यूनिसेफ में नियुक्त हो गयी थी।
आरव का सलेक्शन भी सिविल सेवा में अगले साल ही हो गया था। अपने कुशल कार्यशैली से जल्द ही वह प्रमोशन पाते हुए शिक्षा-परियोजना कार्यक्रम का उपनिदेशक बन गया था और अन्तत: निशा से मिल पाया।